(पिछली कड़ी से आगे)
अपने भीतर घिरते
जाने की कविताः आलोक धन्वा के बारे में
-शिवप्रसाद जोशी
आलोक धन्वा क्या थ्रिल के कवि हैं.
क्या उनकी कविताएं कंपन और थर्राहट से भरी हुई हैं. वो कोयल बुलबुल बारिश के ज़रिए
हमें किसी अलक्षित थ्रिल की ओर ले जाते हैं. हमें उन थरथराहटों के हवाले करते हुए
या वो क्या हमसे चाहते हैं कि हम उन्हें उस थरथराहट से निकाल ले जाएं.
दुनिया में आते ही
क्यों हैं
जहाँ इंतज़ार बहुत
और साथ कम
आलोक धन्वा की कविता इस मासूमियत से बनी हुई है. वो अपने लिए नन्हें परिंदे जैसी जगह चाहती है, वैसी कोमलता, स्नेह और प्रेम, सुरक्षा की वैसी निष्कपट अभिलाषा. पक्षियों की गाय की बछड़ों की और आवाज़ की और बारिश की और ओस की और बीज की जैसी.
क्यों हैं
जहाँ इंतज़ार बहुत
और साथ कम
आलोक धन्वा की कविता इस मासूमियत से बनी हुई है. वो अपने लिए नन्हें परिंदे जैसी जगह चाहती है, वैसी कोमलता, स्नेह और प्रेम, सुरक्षा की वैसी निष्कपट अभिलाषा. पक्षियों की गाय की बछड़ों की और आवाज़ की और बारिश की और ओस की और बीज की जैसी.
खुले में दूर से ही दिखाई
दे रही शाम आ रही है
कई रातों की ओस मदद करेगी
बीज से अंकुर फूटने में!
लेकिन क्या आलोक धन्वा की कविता में जो बहुत नाज़ुक और मासूम बिंब आए हैं क्या वो उस स्वप्निलता और उस रुमानियत के हवाले हो जाने वाली कविता है. क्या आलोक धन्वा में ये किसी क़िस्म के सरेंडर का बिंब है. पर आख़िर किसके सामने, आख़िर क्यों. आलोक धन्वा की हाल की कविताएं हमें जिन भूलीबिसरी मानवीयताओं की याद दिलाती हैं उनमें प्रेम भी है. किसी न किसी हवाले से वो प्रेम, अवहेलना, तिरस्कार, अपराधबोध, क्षमा और पीड़ा की कविताएं हैं. वे एस ऐसे युद्ध के बारे में बताती हुई कविताएं हैं जो ख़ामोशी से उन सब जगहों पर चल रहा है जहां से कविता निकाली जा सकती है. वो जितना अजीब है उतना ही अज़ाब है. वो बारिश से निकलकर रात हो जाती है. वो मृत्यु से निकलकर जीवन हो जाती है. वो शाम से निकलकर ओस बन जाती है. कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में ये अंकुर के फूटने की दास्तानें हैं. उसकी गवाहियां या उसकी रिपोर्टे.
दे रही शाम आ रही है
कई रातों की ओस मदद करेगी
बीज से अंकुर फूटने में!
लेकिन क्या आलोक धन्वा की कविता में जो बहुत नाज़ुक और मासूम बिंब आए हैं क्या वो उस स्वप्निलता और उस रुमानियत के हवाले हो जाने वाली कविता है. क्या आलोक धन्वा में ये किसी क़िस्म के सरेंडर का बिंब है. पर आख़िर किसके सामने, आख़िर क्यों. आलोक धन्वा की हाल की कविताएं हमें जिन भूलीबिसरी मानवीयताओं की याद दिलाती हैं उनमें प्रेम भी है. किसी न किसी हवाले से वो प्रेम, अवहेलना, तिरस्कार, अपराधबोध, क्षमा और पीड़ा की कविताएं हैं. वे एस ऐसे युद्ध के बारे में बताती हुई कविताएं हैं जो ख़ामोशी से उन सब जगहों पर चल रहा है जहां से कविता निकाली जा सकती है. वो जितना अजीब है उतना ही अज़ाब है. वो बारिश से निकलकर रात हो जाती है. वो मृत्यु से निकलकर जीवन हो जाती है. वो शाम से निकलकर ओस बन जाती है. कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में ये अंकुर के फूटने की दास्तानें हैं. उसकी गवाहियां या उसकी रिपोर्टे.
प्रकृति के पास जाकर आलोक धन्वा ने
अपने लिए एक नई बेचैनी ढूंढी है. क्या वो इसे एंज्वॉय कर रहे हैं. उनकी विवरणओं की
सुंदरता और विह्वलता उनकी तड़प की कौंध को नुमायां नहीं करतीं वे उसे छिपाए रहती
हैं. इस छिपी हुई कौंध के कवि हैं आलोक धन्वा. बिजलियां और व्यथाएं वहां तड़क तड़क
कर गिर नहीं रहीं वे वहां पहले से गिर कर बिछी हुई हैं. जैसे बर्फ़ में दबी कोई
स्मृति. अपनी नई कविताओं में आलोक धन्वा इस बर्फ़ को धीरे धीरे हटा रहे हैं.
ज़ाहिर है जितना लगता है उतना आसान ये काम नहीं है. इस बात को आइए ज़रा रेशमा नाम
की उनकी कविता के हवाले से पढ़ें देखें. रेशमा की जगह इतनी सहूलियत शायद ली जा
सकती है कि हम कविता रख कर देखें.
वे कहाँ ले जाती हैं
किन अधूरी,
असफल प्रेम-कथाओं
की वेदनाओं में
वे ऐसे जिस्म को
जगाती हैं
जो सदियों पीछे छूट गए
ख़ाक से उठाती हैं
आँसुओं और कलियों से
वे ऐसी उदासी
और कशमकश में डालती हैं
मन को वीराना भी करती हैं
कई बार समझ में नहीं
आता
दुनिया छूटने लगती है पीछे
कुछ करते नहीं बनता
कई बार
क़ौमों और मुल्कों से भी
बाहर ले जाती हैं
क्या वे फिर से मनुष्य को
बनजारा बनाना चाहती
हैं?
किनकी ज़रुरत है
वह अशांत प्रेम
जिसे वह गाती हैं!
मैं सुनता हूँ उन्हें
बार-बार
सुनता क्या हूँ
लौटता हूँ उनकी ओर
बार-बार
जो एक बार है
वह बदलता जाता है.
किन अधूरी,
असफल प्रेम-कथाओं
की वेदनाओं में
वे ऐसे जिस्म को
जगाती हैं
जो सदियों पीछे छूट गए
ख़ाक से उठाती हैं
आँसुओं और कलियों से
वे ऐसी उदासी
और कशमकश में डालती हैं
मन को वीराना भी करती हैं
कई बार समझ में नहीं
आता
दुनिया छूटने लगती है पीछे
कुछ करते नहीं बनता
कई बार
क़ौमों और मुल्कों से भी
बाहर ले जाती हैं
क्या वे फिर से मनुष्य को
बनजारा बनाना चाहती
हैं?
किनकी ज़रुरत है
वह अशांत प्रेम
जिसे वह गाती हैं!
मैं सुनता हूँ उन्हें
बार-बार
सुनता क्या हूँ
लौटता हूँ उनकी ओर
बार-बार
जो एक बार है
वह बदलता जाता है.
आलोक धन्वा ने अपने को उस फ़जीहत के
हवाले कर दिया है जो एक अनुभव से हो सकता है. एक बड़ा, उतना ही कोमल हृदयस्पर्शी
और जानलेवा अनुभव. फिर वो चाहे एक आवाज़ हो या एक गीत या एक चिड़िया या एक बिंब.
बस जो भी वो है वो बदलता जाता है. आलोक धन्वा शायद इसी बदलाव के कायल हुए हैं.
इसीलिए उनकी नई कविताएं हमें नए आलोक में दिखती है. या उनमें हमें एक नया आलोक
दिखता है जो अंधेरे उजाले में अपना बिसरा हुआ रोमान ढूंढता है. भटके हुओं को शरण
देने के लिए पुकारती और उस भटकाव में ख़ुद भी शामिल हो जाती, एक करुणता सरीखी हैं
उनकी कविताएं. अवसाद को परखने के लिए उन्होंने एक पैमाना बनाया है, जोख़िम
उन्होंने ये उठाया है कि अपनी आग दिखाएं या अपनी आत्मा. या दोनों ही या आत्मा को
उसमें झुलसता हुआ दिखाएं. और फिर उस आग को बुझाएं आप ही, अपनी ही एक कविता में
जैसे रुसवाई उठाकर फूलों की डाल झकझोर दें.
आलोक धन्वा की कविता की बुनावट ही
ऐसी है कि वो अगर चाहें भी तो उन्हें किसी रोमांटिसिज़्म की इजाज़त नहीं देती. एक
कवि के लिए ये शायद तात्कालिक ही सही पर रचनात्मक इत्मीनान होना चाहिए. पाठक के
लिए भी कि वे आलोक धन्वा को वहां न देखें जहां वो सबसे ज़्यादा दिखने की कोशिश
करते हैं. फिर कहां जाएं किन अधूरी कथाओं और वेदनाओँ का रुख़ करें. आलोक धन्वा अपनी
नई कविताओं में इसी कहां की तलाश करते दिखते हैं. संघर्षों से स्वप्नों तक.
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