थोड़ा सा समय – १
कहाँ ख़त्म होती है दूरी? कहाँ ख़त्म करता है भय अपना शासन?
मैं पुकारता हूँ शून्य को. खाली करता हूँ भरे हुए को. चकमक
पत्थर तक है मुलायम, यहाँ तक कि रेत भी जन्म लेती है पानी से.
क्यों ये सडकें, आगमन क्यों?
भटक गया हूँ, भटक गया हूँ, और मैं लौटूंगा नहीं. पतन ही
मेरी स्थिति और मेरी अवस्था है; स्वर्ग मेरा विरोधाभास.
मैं एक विवाह हूँ; और मैं घोषणा करता हूँ मृत्यु के आकर्षण
की. मैं बादल हूँ, नहीं जानता सूखापन; मैं सूखापन हूँ और मेरे पास कोई बादल नहीं
हैं.
मैं छिप जाता हूँ पहेली के पीछे, छिप जाता हूँ मौसमों के
लबादों के नीचे
और उनके छिद्रों में से झांकता हूँ. मैं अपने क़दमों को उनका
आकार देता हूँ
और समुद्र से कहता हूँ : मेरे पीछे पीछे आओ.
मेरी कापियों में पत्तियाँ हैं; कविताएँ पत्थर हैं मेरी
तरह. मैं क्षितिज की त्वचा खुरच दूंगा, उस से निकल कर रक्त बहेगा. मैं इस घाव से
उस घाव के बीच उडूँगा.
हम बाँट लेते हैं अपने बीच की जगह : मृत्यु और मैं.
हम उठाते हैं भुखमरी का झंडा : डबलरोटी और मैं.
और कल मैं उलझ जाऊंगा गाथा की पोशाकों में और परछाइयों की
दीवारों पर चढूँगा. तब, पत्थर की प्रार्थनाओं का एक जुलूस मुझे जकड़ लेगा.
ओ, पागलपन, मेरे स्वामी, मेरे ईसा.
मैं उस सूरज को तलाश रहा हूँ जो आँखों में रहता है, प्रकाश
को धारण करने वाली आँखों के लिए – समूचे प्रकाश को
मैं एक पेड़ का तना खोजता हूँ जो एक देह में तब्दील हो जाता
है. मैं उसे खोजता हूँ जो शब्द को देता है एक यौनांग और भेद देता है आसमान को.
मैं खोजता हूँ उसे जो पत्थर को देता है बच्चों के होंठ,
इतिहास को एक इन्द्रधनुष और गीतों को पेड़ों के कंठ.
मैं खोजता हूँ उसे फैला देता है लहराती सरहदों को, समुन्दर
और चट्टानों के, बादलों और बालू के, और दिन की रोशनी और रात के दरम्यान की अदृश्य
सरहदों को.
मैं खोजता हूँ उसे जो एक बना देता है हमारे स्वरों को :
ईश्वर के और मेरे, शैतान के और मेरे, संसार के और मेरे, और जो हमारे दरम्यान बोया
करता है संघर्ष के बीज.
ओ,
प्रार्थनाओं की आत्मा, ओ, मेरे जहाज़.
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