Sunday, January 13, 2013

देवी तुम तो काले धन की बैसाखी पर खड़ी हुई हो - ३


बाबा नागार्जुन पर श्री करन सिंह चौहान जी का आलेख-सम्भाषण

(पिछली क़िस्त से आगे)


नागार्जुन की कविता सच्चे और ठोस अर्थों में समकालीन रही है. अपने समय में घट रही हर छोटी-बड़ी घटना पर उनकी नजर है. कितनी ही भाषाओं के पत्र-पत्रिकाएं वे एक सिरे से घोखते हैं रोज-कई समाचारों और पंक्तियों पर उनकी नजर ठहर-ठहर जाती हुई. वे पंक्तियों के बीच में भी पढ़ते हैं और सामान्य अर्थों के पीछे छिपे बड़े संदर्भों को साकार कर देख लेते हैं. यही कारण है कि अधिकांश लेखक जब काव्य की गहरी बहसों में उलझे होते हैं और अनुभव के आस-पास कविता बुन रहे होते हैं या चालू मुहावरे को स्वीकार या नकार कर कुछ नया गुल खिला रहे होते हैं तो बाबा इन सब से अलग देश में घट रही घटनाओं के चश्मदीद गवाह बनते हैं. कोई चीज उनकी नजर से छूटती नहीं वे उसे या तो यथातथ्य वर्णनात्मकता में,या व्यंग्य में या चुनौती और आक्रमण की भाषा और मुहावरे में ढाल रहे होते हैं. जब से उन्होंने लिखना शुरू किया है तब से आज तक यह उनकी रचना का मुख्य धर्म बना हुआ है. हम जब तक चीजों को सपाट न्यूज की पंक्तियों में ही पढ़ रहे होते हैं कि बाबा उस पर एक सशक्त रचना लेकर सामने आ जाते हैं. चाहे फिर वह महारानी एलिजाबेथ का भारत में आगमन हो या बिहार में हरिजनों पर हो रहे अत्याचार या आसाम का मामला. वे एक सजग और सम-कालीन रचनाकार के नाते इस सबको वर्चस्व देना अपना कर्तव्य मानते हैं.

बाबा ने कविता में बर्जुआ वर्ग की किसी भी नामी हस्ती को नहीं बख्शा है. यह प्रारंभ से ही उनका प्रिय विषय रहा है. व्यक्तियों पर लिखी इन कविताओं का स्वर चेहरों से नकाब उठाने वाला,गरिमा के पीछे छिपे पाखंड का उद्घाटन करने वाला,तीखा व्यंग्य लिए मारक रहा है. यह एक सच्चाई है कि बाबा के व्यंग्य की मार को बर्दाश्त करना हरेक के बूते की बात नहीं. वही झेल सकता है इस मार को जिसकी चमड़ी बहुत मोटी हो या जो निहायत संवेदनशून्य हो गया हो. जिस पर भी यह मार पड़ी है वह इसके असर को जानता होगा. उन्होंने बख्शा किसी को नहीं है -न सुभाष को, गाँधी को,न नेहरू को,न विनोबा को,न राजगोपालाचारी को,न जयप्रकाश को, इन्दिरा गाँधी और संजय को - यहाँ तक कि अपने कामरेड डाँगे को भी नहीं.

 इन  कविताओं  की खूबी  है  कि इनमें  ये व्यक्ति  व्यक्ति होते हुए भी इस भ्रष्ट तंत्र के प्रतिनिधि नजर आते हैं. इन रचनाओं में ये व्यक्ति भ्रष्ट,जन विरोधी व्यवस्था के पाखंडी प्रतिनिधि के रूप में सामने आ खड़े होते हैं.

बाबा एक जमाने तक कविता से आंदोलन का काम लेते हैं. ढपली पर गाँव-गाँव में ‘चना जोर गरमकी लोक धुन पर फौरी राजनीति के चित्र जनता के बीच खींचना –इस सबसे हम परिचित हैं. इसलिए बाबा सीधे जनता तक पहुँचने के लिए उसी की जबान और लहजे में अपनी कविता की भाषा और रूप को ढालने के कायल रहे हैंयही कारण है कि बाबा की कविता हमारे देश की जातीय संस्कृति के ठेठ रंग-रूपों का सुन्दर प्रतिनिधित्व करती है. हममें से कितने ही लोगों ने आम लोगों के बीच बाबा को पूरे हावभाव और अभिनय से अपनी कविताओं का पाठ करते देखा होगा जिससे श्रोता भाव विभोर भी हैं और कविता-पाठ में शरीक भी.

सामाजिक यथार्थ के प्रति साम्यवादी और जनवादी दृष्टिकोण ने जहाँ एक ओर नागार्जुन की रचना की विषयवस्तु के चुनाव को प्रभावित किया है,उनके सौंदर्यबोध का निर्माण किया है वहीं उनके भाषा,रूप,अप्रस्तुत-विधान,लय,छंद आदि पर भी निर्णायक प्रभाव डाला है. अपने एक साक्षात्कार में  उन्होंने कहा कि-"एक नब्बे-सौ  साल की जो वृद्धा है तो उसको यदि हम सौ वर्षों को झेले हुए व्यक्तित्व की दृष्टि से देखें तो हमको वो खूबसूरत दिखाई पड़ेगी. लेकिन जिसकी आँखों को नरम नरम,कोमल कोमल वस्तुएँ देखने की आदत पड़ी हुई है उसको वो वीभत्स लगेगा कि भाई,जो कब्र में पाँव लटकाए हुए हैं उसको रूपायित करने की क्या अनिवार्यता थी. लेकिन ये है कि हम उसे वैरागी संतों की भाँति सृष्टि को मिथ्या समझने की भावना में नहीं ढकेलेंगे...गौतम बुद्ध को जब ये लगा कि वो भी बूढ़े हो जाएँगे,तो उनको वैराग्य हुआ. लेकिन ये है कि भई,पूरा जीवन जीने वाली जो ये वृद्धा है उसके चेहरे पर जो संघर्षों की महागाथा अंकित है उस दृष्टिकोण से उसमें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा."

जीवन के प्रति दृष्टिकोण,इस नवीन सौंदर्यबोध के तकाजों और साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता  के कारण ही बाबा आज भी कविता के लिए छंद और लय की अनिवार्यता पर बल देते हैं बार-बार. किसी भी नए रचनाकार से उनकी यह सहज माँग होती है कि अनगढ़ रूप में रचने के साथ अगर कभी-कभी छंद और तुक भी मिला लें तो लोगों के बीच में वह ग्राह्य बन सकती है. बाबा जैसी सादगी और जीवंतता रचना में लाना बहुत बड़ी बात है. लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं कि बाबा की रचनाओं में कोई परंपरित रूप या छंद और अप्रस्तुत विधान का ही पिष्टपेषण हुआ है,या कि उस स्तर पर नई सीखने की चीज उसमें है ही नहीं. सही है कि वे प्राचीन मिथकों का गजब का उपयोग करने  के साथ-साथ हिंदी साहित्य की संपूर्ण रचना-परंपरा के स्वर को अपने काव्य में सँजोते हैं. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि रचाव और रूप के स्तर पर नागार्जुन की कविता ने हिंदी में जितने प्रयोग किए हैं वे निराला के अलावा अन्यत्र किसी एक कवि में एकत्रा नहीं मिलेंगे. इसके उदाहरण के रूप में ‘शासन की बंदूक’ और ‘अकाल और उसके बाद’ से लगाकर ‘मंत्र कविता’ तक की दर्जनों कविताएँ मुझे याद आ रही हैं.

अब अंत में एक और बात. नागार्जुन की कविता की विचारधारात्मकता की चर्चा में जो एक सबसे प्रमुख बात ओझल रह जाती रही है वह है उसका फैलाव. शब्द,रूप,रस,गंध,स्पर्श के जितने भी शेड्स हो सकते हैं बाबा की रचनाएँ उसका अद्भुत उदाहरण हैं. यही है बाबा के पूर्ण मानवीय मनुष्य होने का प्रमाण. इसी को रेखांकित करते हुए विष्णुचंद शर्मा ने अपनी एक कविता में कहा है-

"अक्सर मैं बाबा को शब्द,रूप,रस,गंध,स्पर्श का पांच दरवाजा खोले सहस्र नेत्र भारतवर्ष कहता हूँ."

जो लोग इसको नहीं देख पाते वे ‘बादल को घिरते देखा हैया बारहमासों पर लिखी कविताओं या गुड्हल के लाल फूल के रंग या मिट्टी की सोंधी गंध अथवा आम की महक को पकड़ लेने वाली कविताओं और सामयिक राजनीतिक स्थितियों पर लिखी कविताओं के आंतरिक संबंधों को न पहचान पा भूलभुलैया में ही पड़े रहते हैं और कहे-सुने मुहावरों के बल नागार्जुन को परिभाषित करने की कोशिश करते रहते हैं.

(समाप्त)

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