बाबा नज़ीर अकबराबादी की यह रचना पिछले कुछ सालों से होली के अवसर पर कबाड़खाने में लगती रही है. खास तौर पर मित्र आशुतोष बरनवाल के आग्रह पर. आज पुनः.
स्वर छाया गांगुली का है
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों
ख़ुम शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अँगिया पर तक के मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की
3 comments:
बेहतरीन प्रस्तुति,होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
वाह ,अनुपम रचना और स्वर !
अहा, मन मोह लिया।
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