Tuesday, March 26, 2013

परियों के रंग दमकते हों ख़ुम शीशे जाम छलकते हों


बाबा नज़ीर अकबराबादी की यह रचना पिछले कुछ सालों से होली के अवसर पर कबाड़खाने में लगती रही है. खास तौर पर मित्र आशुतोष बरनवाल के आग्रह पर. आज पुनः. 

स्वर छाया गांगुली का है



जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों
ख़ुम शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों

नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों

मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अँगिया पर तक के मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की

3 comments:

Rajendra kumar said...

बेहतरीन प्रस्तुति,होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.

Arvind Mishra said...

वाह ,अनुपम रचना और स्वर !

प्रवीण पाण्डेय said...

अहा, मन मोह लिया।