उत्तर पूर्व की कविता पर वर्ष २००६ में ‘पहल’ पत्रिका के एक
पुस्तिका छापी थी. गोपाल प्रधान और सजल नाग के संपादन में तैयार इस पत्रिका के लिए
गोपाल प्रधान के हिन्दी अनुवाद किए थे. सजल नाग असम विश्वविद्यालय में इतिहास के
जानकार प्रोफ़ेसर रहे हैं और उत्तर पूर्व के इतिहास पर उनकी कई महत्वपूर्ण पुस्तकें
अंग्रेज़ी में प्रकाशित हैं.
पुस्तिका के अनुवादों के लिए डॉ. गोपाल प्रधान ने जो आलेख
लिखा था उसे यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे अच्छा लग रहा है. गोपाल जी भी असम
विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्यापन करते रहे हैं.
आलेख के उपरान्त आपको इस पुस्तिका से कुछेक कविताएँ पढ़ाऊंगा.
नदी, जंगल और पहाड़ की कविता
कविता सदा से हरूफ़ की ऐसी जादुई तामीर रही है जिसे छूने में
डर लगता है. आलियों का कहना है कि किसी जुबान में कही गयी कविता का जमाल दीगर
जुबान में तर्जुमा करते वक्त काफी कुछ मर जाता है. इसलिए ऐसी कविताओं का चुनाव और
तर्जुमा ज़्यादा किया गया है जो नस्रनुमा थीं. वैसे अंग्रेज़ी तर्जुमा कर संपादकों
ने काफी सहूलियत पैदा कर दी थी. कविता के मानी महज उसके अर्थ में नहीं बल्कि उसके
संगीत छंद और लय में भी छिपे होते हैं इसलिए छंदोबद्ध एकाध ही कविताओं का तर्जुमा
किया गया है.
मकसद यह रहा है कि पाठकों को उत्तर पूर्व में लिखी जाने
वाली कविताओं की झलक मिल सके. इसलिए ध्यान परिमाण के बजाय कविता की विविधता पर रहा
है. वैसे भी यह गन्धर्वों का देश है. यहाँ कौन नहीं गाता. कविता के लोकतंत्र में
यहाँ अन्यथा बदनाम देवकांत बरुवा असमिया के बड़े कवि माने जाते हैं. इस संग्रह में
भी आपको मंत्री से लेकर घरेलू स्त्री तक की कविता दिखाई देगी. इबोपिशा लुहार हैं
और अब भी भट्टी पर लोहा गलाते और पीटते हैं. विश्वविद्यालय तो हैं यहाँ पर सौभाग्य
से साहित्य वहीं तक सीमित होकर नहीं रह गया है. डाक्टर से लेकर पत्रकार तक सभी
कविता लिखते और सम्मान पाते हैं.
इस इलाके को समझने के लिए आज़ादी के पहले के किसी नक़्शे पर
निगाह डालिए. यह काम आज़ादी के दीवानों के लिए मुश्किल तो होता है लेकिन उसके साथ
ही हुए बंटवारे की त्रासदी को समझने के लिए ज़रूरी है. बंगाल के पूरबी छोर से
नदियों का जो जाल शुरू होता है वह बांग्लादेश होते हुए पूरे उत्तर पूर्व को घेर कर
बर्मा चला जाता है. पहाड़ों के बीच से निकलती नदियों और जंगलों की हरियाली की खान
यह इलाका अंग्रेजों के आने के बाद बर्बाद होना शुरू होता है. उनसे पहले इस इलाके
में बर्मा चीन और भारत से आकर लोग बसते रहे थे. विस्तृत भूमि भी, अलग अलग पहाड़ों
पर शुरू में थोड़ी झंझट के बाद अलग-अलग कबीले बस गए. सामाजिक आचार व्यवहार और भाषा
की स्वतंत्रता बनी रही. कंद, मूल, फल के सहारे जिंदगी की बुनियादी ज़रूरियात पूरी
होती रहीं. कभी किसी ने बड़ा राज्य बनाना भी चाहा तो पैदल सेना की रसाई बहुत दूर तक
नहीं होती थी. अलग-अलग इलाकों में कबीलाई प्रशासन की अपनी पद्धतियाँ चलती रहीं.
मुगलों ने आने की कोशिश की पर ब्रह्मपुत्र के किनारे ही रह गए.
अँगरेज़ १८२६ में आए. पहली बार पानी का स्वाभाविक प्रवाह
रुका. चीन से चाय की आमद रुक गयी थी. चाय की खेती के लिए इलाका मुफीद लगा. पानी के
स्वाभाविक प्रवाह में मच्छरों के अंडे रुकते नहीं. पानी रुकने से मलेरिया नामक नई
बीमारी आई. फिर उस बीमारी पर शोध के लिए एक अग्रेज फ़ौजी डाक्टर को नोबेल पुरूस्कार
मिला. अरसे से साम्राज्यवाद की यही चाल रही है. बीमारी पैदा करो फिर ठीक करने का
श्री भी लूटो.
जैसे-जैसे पहाड़ों के टीलों पर कब्ज़ा होता गया, मूल निवासी
घने जंगलों में खिसकते गए. जहां चाय नहीं उगती, वहाँ से इमारती लकड़ी और कोयला
निकाला गया. डिब्रूगढ़ से तेल निकाला गया. कुल मिलाकर लोगों की जिंदगी में खलल.
उद्योगों के लिए सड़कों और रेलों का जाल ज़रूरी था. अँगरेज़ कंपनियों ने
प्रतिद्वंद्विता रोकने के लिए “इनर लाइन परमिट” की व्यवस्था लागू की. कोई बाहरी आदमी
घुस ही नहीं सका. स्वतंत्रता प्रेमी लोगों को परास्त के लिए इतनी मशक्कत उठानी पडी
कि तय हुआ यहाँ के लोगों को काट कर रखो. अगर शेष भारत से स्वतंत्रता आंदोलन के साथ
में मिल गए तो आफत आ जाएगी. तब समझाया गया मिशनरी लोगों की कोशिशों से कि तुम लोग
हो. भाषा दी गयी अंग्रेज़ी और धर्म ईसाईयत.
बहारहाल, शायद ही कोई साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन होगा
जिसमें इस इलाके की भागीदारी न रही हो. १८५७ में असम में मनीराम दीवान और पियाली
बरुवा को अंग्रेजों ने फांसी दी. चाय की खेती के लिए बड़े पैमाने पर हिन्दी भाषी
लोगों को लाया गया था. उनके साथ स्वतंत्रता आंदोलन की खुशबू भी आई. १९२०, १९४२ और
गांधी यहाँ के इतिहास में अनजाने नहीं हैं. उनकी पुख्ता जड़ें मौजूद हैं. दुखद रूप
से आज़ादी के बाद दिल्ली में गठित शासन ने अंग्रेज़ी चाल ही अपनाई. १९४७ महज आज़ादी
के नाते नहीं, बंटवारे के नाते भी याद किया जाना चाहिए. बंगाल का बंटवारा तो सभी
जानते हैं लेकिन ‘उत्तर पूर्व’ नामक समस्या भी बंटवारे से ही पैदा हुई. शेष भारत के
साथ इस इलाके का रिश्ता ज़मीन की इतनी पतली पट्टी के ज़रिये रह गया कि उसे अंग्रेज़ी
में ‘चिकन नेक’ कहते हैं, चौड़ाई ‘बॉटल नेक’ कहलाने भर भी नहीं.
नदियों, पहाड़ों और जंगलों पर राष्ट्र राज्य का क्या वश लेकिन
जहां तक वश चला ऐसी क्रूरतापूर्ण हरकतें की गयी हैं कि देख कर दिल फट जाता है. एक
नदी पर पुल था पहले का. पुल पड़ गया बांग्लादेश में. अब क्या किया जाए. सो पहाड़ को
बीच से चीर कर भारत में नया पुल बना. ऐसे में भूस्खलन से कैसे बचा सकते हैं आप? सो
अक्सर सिलचर या त्रिपुरा जाने की सड़क बंद हो जाती है. मेघालय में जयंतिया लोगों का
मुख्यालय जयंतियापुर बांग्लादेश में है. हालत ये हैं कि भारत के लोगों के खेत बांग्लादेश
की सीमा के भीतर. तिस पर कंटीले तारों के बन्दनवार सजाने का उत्साह. त्रिपुरा तो
उसी तरह बांग्लादेश में घुसा है जैसे झांसी मध्यप्रदेश में. पुराने त्रिपुरा राज्य
का एक बड़ा इलाका बांग्लादेश में है. मणिपुर की विधानसभा में हाल के दिनों एक
प्रस्ताव पारित हुआ जिस में मांग की गयी कि मणिपुरी राज्य का जो हिस्सा अंग्रेजों
ने बर्मा को दिया था उस के बदले में बर्मा पहले कर देता था अब उस व्यवस्था को पुनः
शुरू किया जाए. मिज़ो लोगों का बहुत छोटा हिस्सा ही भारत में है, शेष बड़ा हिस्सा बांग्लादेश
और बर्मा में.
भौगोलिक विभाजन से बड़ा अत्याचार मानसिक स्तर पर हुआ. आप इन
कविताओं में अश्लील व्यंग्य देखने से नहीं चूकेंगे. दर असल यथार्थ इस से भी अधिक
अश्लील है. लोकतंत्र की जो संसदीय प्रणाली हमने अपनाई उसमें ५०० से भी ज़्यादा
सासदों में से बहुत छोटा हिस्सा ही इस इलाके से चुना जाता है. सो लोगों की
राष्ट्रीय राजनीति में कोई रूचि नहीं. शासन यहाँ गवर्नरों के जरिये चलता है जो
आमतौर पर सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी होते हैं. इनमें लोकतंत्र के प्रति ममता
जगजाहिर है. बाकी का काम सेना स्वयं करती है. सेना को इस इलाके में विशेषाधिकार
प्राप्त है एक कानून के ज़रिये. क़ानून का नाम “आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट”.
कानून अंग्रेजों के ज़माने का है शेष सभी कानूनों की तरह. अंग्रेजों के समय
शांतिभंग की आशंका (महज़ आशंका) होने पर गोली मारने का अधिकार कमीशंड अफसरों को था,
अब यह अधिकार हवलदार को भी प्राप्त है. आए दिन बलात्कार और गोली चालन की घटनाएं आप
पढ़ सकते हैं. धीरे धीरे आदत पड़ जाती है. कभी कोई बड़ी घटना होने पर पता चलता है देश
को कि मणिपुर में मनोरमा के साथ कुछ हुआ था. इस कानून की विशेषता यह है कि
मानवाधिकार उल्लंघन की कोई घटना होने पर आप शासन की पूर्वानुमति से ही मुकदमा दायर
कर सकते हैं.
एक तरफ़ राज्य की हिंसा. लोकतांत्रिक राजनीति बेमानी. फलतः
वस्तुतः नागरिक जीवन पर आतंक का राज है. असम और मिजोरम जैसे राज्यों में तो शांति
है पर नागालैंड, मणिपुर जैसे राज्यों में समानांतर प्रशासन मौजूद है. सबको “टैक्स”
देना पड़ता है. जो नहीं देता मारा जाता है. हालात ऐसे हैं कि ज़रा सी अफ़वाह भी बड़ी
घटना का बायस बन जाती है. जिन जगहों पर शांति है वहाँ भी यदि आप कानून के शासन के
आदी हों तो घुटन का अनुभव करेंगे. प्रत्येक सरकारी कार्यालय भ्रष्टाचार के सुनियोजित
संगठित तंत्र का हिस्सा हैं. वैसे अब तो पूंजीवादी अलमबरदारों ने भी कानून
व्यवस्था की स्थापना की आशा छोड़ आतंक का रास्ता अपना लिया है. पर सामान्य लोग
चक्की के दो पाटों में फंसकर पिस रहे हैं. विकास के नाम पर केन्द्र से भेजी गयी
राशि ने महज नेताओं के दलाल तबके का विकास किया है. एक ही राजनीतिक वर्ग के लोगों
से सभी पार्टियां चलती हैं जिनके सम्बन्ध ठेकेदारों से लेकर आतंकवादियों तक हैं.
धर्म के मामले में मणिपुर, त्रिपुरा और असम हिन्दू बहुल
हैं. लेकिन मणिपुर के पुराने सनामही पंथ को छोड़ कर जो मैतेई हिन्दू हुए उन्हें
हिन्दू मुख्यधारा हिन्दू नहीं मानती. आखिर जाति प्रथा के बगैर हिन्दू धर्म कैसा?
त्रिपुरा का हिन्दू बहुल होना एक त्रासदी की महागाथा है. प्रारंभ में यह राज्य
जनजाति बहुल था. धीरे धीरे बंगाली प्रव्रजन के चलते आबादी का अनुपात गडबडाता गया.
आज़ादी के समय भी आदिवासी बहुसंख्य थी. बंटवारे के बाद तेज़ी से परिवर्तन हुए और महज़
कुछ सालों में आदिवासी अल्पसंख्यक हो गए. अब वहाँ जनजातियां जो कभी आबादी का ७०
प्रतिशत थीं, महज ३० प्रतिशत रह गयी हैं. फलतः शहरों के बाहर उग्रवाद का शासन है. नागालैंड,
मिजोरम और मेघालय जनजाति बहुल हैं और ईसाई बहुल भी. अरुणाचल में प्रकृतिपूजक
बहुतायत में हैं पर बौद्ध मतावलंबी भी काफी हैं.
विविधता ही उत्तर पूर्व की खुसूसियत है. किसी भी प्रांत में
आपको अनेक भाषाओं का व्यवहार दिखाई देगा. मसलन असम में असमिया के अलावा बोडो,
कार्बी, कुर्दमाता, बराक घाटी में सलेटी बांगला, चाय बागानों में कामगारों की
बोलियों के साथ मिलकर बना असमिया का कोई रूप सुनाई पड़ेगा. मेघालय में खासी भाषा के
जयंतिया और भोई रूपों के अतिरिक्त गारो भाषा मिलेगी पर पुरानी राजधानी होने के
कारण सभी प्रान्तों के कुछ न कुछ लोग यहाँ मिलेंगे. नागालैंड में कम से कम १६
प्रमुख जनजातियां हैं जिनकी अपनी भाषाएँ हैं पर बोलचाल में असमिया से मिलकर बना एक
रूप नागामीज़ सुनाई पड़ेगी. मिजोरम में मिज़ो के अलावा रियांग भी है. मणिपुर की
इम्फाल घाटी के बाहर पहाड़ी जनजातियों की अपनी भाषाएँ हैं. त्रिपुरा में काकबरोक और
त्रिपुरी के अलावा चकमा भी है. दुखद यह है कि मेघालय की राजकीय भाषा अंग्रेज़ी है,
नागालैंड में भी बातचीत भले ही नागामीज़ में हो पर पढ़ाई अंग्रेज़ी में है, मिजोरम
में भी अंग्रेज़ी ही राजकीय भाषा है. ऐसे में स्थानीय लोगों को संवेदनात्मक स्तर पर
काफी दूर की यात्रा करनी पड़ती है. फिर भी इसे आश्चर्य ही कहेंगे कि कविताएँ लिखी
जाती हैं और स्थानीय भाषाएँ भी फल-फूल रही हैं.
आज़ादी के बाद भारतीय राज्य ने भी जो आचरण इस इलाके के साथ किया
उसने स्थानीय लोगों में अलगाव बढ़ाया है. इसके लिए मणिपुर का उदाहरण काफी होगा. यह
प्रांत ‘प्रिंसली स्टेट’ था. यहाँ एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता हुए
इरावट सिंह. उन्होंने आज़ादी से पहले राजा के शासन का खात्मा कर पीपुल्स असेम्बली
की स्थापना की. आज़ादी के बाद राजा को को बातचीत के लिए शिलोंग बुलाया गया और
तकरीबन कैद कर उस से विलय के संधिपत्र पर हस्ताक्षर लिए गए. राजा कहता रहा कि
इम्फाल जाकर असेम्बली की राय पूछ आए पर नहीं. इसे धोखा माना गया. तबसे मणिपुर कभी
शांत नहीं हो सका. सरकार को कोई मतलब नहीं. आम लोग फ़ौज और आतंकवाद की दोहरी मार के
शिकार हैं.
भाषा का सवाल इस इलाके के लिए बहुत महत्वपूर्ण ही रहा है.
१९६० में असम राजभाषा विधेयक के चलते ही उसका विभाजन हुआ. तकरीबन सभी प्रांत असम
से टूटकर ही बने हैं. विधेयक के ज़रिये समस्त असम में असमिया को राजभाषा बनाया गया.
इसके विरोध में आल पार्टी हिल पीपुल्स कांग्रेस (ए.पी.एच.पी.सी.) बनी. उसी आंदोलन
के फलस्वरूप मेघालय, मिजोरम, नागालैंड आदि बने, त्रिपुरा और मणिपुर ‘प्रिंसली
स्टेट’ थे. अरुणाचल ‘नेफा’ के नाम से पहले से था. फलतः असम की सीमा सभी राज्यों से
मिलती है. आबादी के विस्थापन से कभी किसी गाँव में किसी जनजाति की बहुसंख्य हो
जाती है तो सीमा विवाद शुरू हो जाता है. हास्यास्पद रूप से तब इन प्रान्तों की
पुलिस ही आपस में भिड़ जाती है.
मानव अस्तित्व की इसी संकटपूर्ण स्थिति का प्रतिविम्ब इन
कविताओं में भी प्रकट हुआ है. प्रकृति की समृद्धि के साथ मानव जीवन की जटिलता का
ऐसा मेल दुर्लभ है. इसी बहुरंगी छटा के कुछ रंगों को हमने इस संग्रह के जारिये
प्रस्तुत करने की चेष्टा की है.
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(नोट -कल से यहाँ देखिये उत्तर पूर्व की कुछ चुनी हुई
कविताएँ)
1 comment:
पूर्वोत्तर के बारे में अद्भुत जानकारी । हाल में हुकूमते बरतानिया ने सरकारी तौर पर माना कि वॉटरलू और डी डे की लड़ाई जो नॉरमंडी में लड़ी गई और कई अन्य कठिन लड़ाइयों से भी कठिन उनके लिए पर्वोत्तर की लड़ाई रही जो बैटल फॉर इम्फ़ाल के नाम से जानी जाती है । लेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र के विकास के लिए भला क्या हुआ , कुछ नहीं । कुछ हुआ क्या नहीं ..नहीं हुआ ।
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