Friday, June 21, 2013

और यह उलटबख्त फैला विडम्बना बनके रायते की तरह



आज से कबाड़खाना पर अद्वितीय कवि संजय चतुर्वेदी की कम पढ़ी-सुनी कविताओं की श्रृंखला शुरू की जा रही है. उनकी कई कविताएँ आपको इस ब्लॉग पर पहले पढ़ने को मिली हैं जिन्हें आपने सराहा भी ख़ूब है. आशा है यह सीरीज़ भी आपको पसंद आएगी -


ईश्वर मेरा बिगड़ा यार

-संजय चतुर्वेदी

किसी मरदूद पे टमाटर फेंक के मारने से बेहतर है
उसे टमाटर पे फेंक के मारना
मेरी मृत्यु ने पंचांगों को भौंचक्का कर दिया था
जिस तरह मेरे जन्म ने
ताकि रहे आदमी की पहल
और सभी जीवधारियों की
और उन सब की जिनमें अभी जीवन खोजा जाना है
और रहे ख़ूबसूरती इस मवाली की
भन्नाया घूमता है भौंरे की तरह
और जाने कहाँ है इसकी मंज़िल
कभी अशिव में शिव
कभी शिव में भटकता है अशिव बन के
ज़मीन से फूटता है फ़सल की सूरत
टूटता है विपत्ति बन के किसी दिन
दिलों में मुहब्बत
समाज में शोषण
फ़ितरत में हरामपन
कमजोरों में ताकत
और दीवानों में जीवट बन के उतरता है
रूह में उतरता है शैतान की तरह
हड्डियों में खून, आँख में रौशनी, दिमाग में अँधेरा
चीड़ में तारपीन का तेल
और देवदारों के हरे में क़यामत का नूर बनके
समुद्रों में सोम, सूर्य में रस
भ्रूण में फ़ोन नम्बर, पते में पिनकोड,
ठोस चीज़ में खला बनके
खला में बिजली, बिजली में चुम्बक, चुम्बक में लकीर
लकीर से आती है चीख
अनंत सूक्ष्म और अनंत विस्तार की एकरूप
धरती पर आया कोयले की चाशनी में प्राण बनके
और जाने कितने लोकों में फूटा हो यह विलक्षण फव्वारा
दिखता है तमाम गतियों में लॉजिक की सूरत
जो वहाँ भी रहता है जहां बुद्धि नहीं रहती
जो तब भी था जब नहीं थी यह मगरूर और फूली हुई चीज़
काली रातों में रम्ज़-ओ-इशारा
पर्वतों में सवेरा
एक दिन अचानक उत्पन्न हुआ हो जैसे
जैसे ली हो किसी ने सांस
बिना पदार्थ और ऊर्जा के
तमाम लॉजिक को ऊट-पटांग करते हुए
फोड़ा हो किसी ने नारियल पंडिज्जी की खोपड़ी पर
और यह उलटबख्त फैला विडम्बना बनके रायते की तरह
घर की नाली से आकाशगंगा तक.

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