Friday, June 21, 2013

पथरीले हिंदी उपन्यास पर नई दूर्वा - सुन्दर ठाकुर के उपन्यास पर विष्णु खरे

कबाड़ी और अनन्य मित्र सुन्दर चंद ठाकुर के हाल में छपे उपन्यास 'पत्थर पर दूब' की यह समीक्षा विष्णु खरे जी ने लिखी है और 'समयांतर' में छपी है. आप भी पढ़िए -



पथरीले हिंदी उपन्यास पर नई दूर्वा

विश्व-सिनेमा के अमर दृश्यों में एक स्टेनले क्यूब्रिक की कालजयी फिल्म ‘स्पेस ओडिसी 2001’ का वह मंज़र है जिसमें गुहापुरुषों की दो छोटी मादरज़ाद काल्पनिक सेनाएँ एक डबरे पर पानी पीने के अधिकार के लिए मानव-इतिहास का पहला युद्ध लड़ती हैं और वह फ़ौज जीतती है जिसके नंगे सिपहसालार के हाथ में सिर्फ एक सूखी,सख्त,सुफ़ैद हड्डी का,लेकिन पहला, हथियार होता है जिससे वह ‘दुश्मन’ के सरग़ना को मार डालता है.वह हाड़ कैसे भविष्य के अंतरिक्ष-यान में बदलता है यह एक अलग माजरा है लेकिन लगता है ऋग्वेद और ‘महाभारत’ आदि की सेनाओं और युद्धों की दाग़बेल डल गयी.

मुहब्बत और जंग,’लव एंड वॉर’,विश्व-साहित्य को शुरू करने वाले विषय हैं.’महाभारत’,जो संसार की निर्विवाद महानतम किताब है,इन दोनों से लबरेज़ है, फ़लसफ़े से भी.हमारे यहाँ एक वीर रस है और एक वीरगाथा-काल है जो दरअसल युद्ध-रस और युद्धगाथा-काल हैं.हमलों और जंगों ने भारत को हिन्दोस्तान और फिर इंडिआ बना दिया.अर्जुन का बृहन्नला हो जाना हमारे भविष्य का अद्भुत प्रतीकात्मक पूर्वानुमान था.इस सरज़मीं पर वेद-व्यास और सिकंदर के ज़माने से सैकड़ों युद्ध तो हुए होंगे, साथ में पिछली सदी में  हज़ारों दक्षिण एशिआई फौज़ी दोनों आलमी जंगों में शहीद हुए,जिनके कई बाक़ी निशाँ यूरोप में बिखरे पड़े हैं लेकिन वाह रे रणबाँकुरे हिंदी कहानी और उपन्यास लेखक,एक अंधों में कानी रानी ‘उसने कहा था’ को छोड़ कर मजाल है कि तूने सैनिकों या युद्धों पर स्मरणीय  कुछ रचा हो,जबकि यदि छोटी-बड़ी लड़ाइयों को लेकर शेष विश्व में अब तक जो लिखा गया है उसे इकठ्ठा किया जा सके तो शायद अपने आर्मी हैडक्वार्टर्स से कहीं बड़ी इमारत में एक करोड़ किताबों की लाइब्रेरी बनानी पड़े.

इस पृष्ठभूमि में प्रतिष्ठित कवि-पत्रकार सुंदर चंद ठाकुर के अरंगेत्रम् उपन्यास “पत्थर पर दूब” के महत्व की अतिरंजना करना असंभव-सा है.यह भारतीय साहित्य का सौभाग्य है कि एक नॉन-कमीशंड सैनिक अफ़सर के बेटे सुन्दर बाजाब्ता हिन्दुस्तानी फ़ौज में अपने पिता से बढ़कर कमीशंड ऑफ़िसर बने – कितना गर्व हुआ होगा उस ख़ुशक़िस्मत बाप को – और हिंदी के कवि-लेखक के रूप में भी विकसित हुए.अब यह क़तई लाज़िमी नहीं कि सिर्फ़ एक सैनिक को  फ़ौजी ज़िन्दगी पर लिखना चाहिए – यूँ अगर वह लिख सकता है तो उसमें कुछ स्वागत्य अतिरिक्त प्रामाणिकता आ ही जाएगी.लेकिन लाखों अफ़सर-ग़ैर-अफ़सर फ़ौजियों ने अपने जीवन-वृत्त या रोज़नामचे लिख छोड़े हैं जो न तो सारे-के-सारे पठनीय हैं और न कथात्मक-औपन्यासिक.किसी भी अनुभव को साहित्य में बदल पाने के लिए महज़ प्रामाणिकता अक्सर कुछ नाकाफ़ी साबित होती है.सुन्दर ने कुछ वर्षों तक कविता पर अच्छा मश्क़ करने के बाद गल्प पर हाथ आज़माया जो तीनों के लिए मुफ़ीद साबित हुआ.
यहाँ यह साफ़ कर देना चाहिए कि “पत्थर पर दूब” न तो युद्ध-उपन्यास है और न मिलिटरी-उपन्यास – उसे हम चाहें तो फ़ौज में ‘बालिग़ होने’ (‘कमिंग ऑफ़ एज’) का, ‘एर्त्सीउंग्सरोमान’ (Erziehungsroman, शिक्षण-उपन्यास ) , ‘एंट्विक्लुंग्स- या बिल्डुंग्सरोमान’ ( Entwicklungs- अथवा Bildungsroman) कह सकते हैं.यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई जेंटिलमैन-कैडेट देहरादून या खड़कवासला और उसके आसपास के अपने वर्षों पर कुछ लिखे, लेकिन यहाँ यह ध्यातव्य है कि सुन्दर सीधे शॉर्ट सर्विस कमीशन पर गए थे, हालाँकि सिखलाई वहाँ भी कसाले की होती है.

विदेशों में युद्धों पर शायद हज़ारों उपन्यास लिखे गए हैं,जिनमें से कुछ बड़े और महान भी कहे जा सकते हैं, आगे भी लिखे जाते रहेंगे,एरिष मारिया रेमार्क जैसे लेखक तो युद्ध-उपन्यासकार के रूप में ही अमर हैं,लेकिन सुन्दर चंद ठाकुर का यह पहला उपन्यास उन्हें फ़िलहाल भारतीय साहित्य में अपने लगभग अछूते विषय के कारण स्थायी स्थान तो दे ही रहा है,लेकिन इसलिए भी कि वह बहुत पठनीय भी है – यद्यपि यह सवा तीन सौ सघन पृष्ठों का है लेकिन उसे एक बार शुरू कर के बीच में छोड़ देना कठिन है.उसका नायक कोई शूरवीरता-भरा,दुश्मन को मौत के घाट उतारनेवाला रोबोट-सोल्जर, सुपर- या आयरन-मैन नहीं है,वह कुमाऊँ के गाँव का एक निम्नमध्यवर्गीय युवक है जिसने पहले ही अपने परिवार और जीवन की कुछ लड़ाइयाँ देख रखी हैं,वह एक शुरूआती मुहब्बत में नाकामयाब भी रहा है और सेना में जाने के बाद एक कठिन संघर्ष में उसकी ज़िंदगी और आदर्शों पर कई दचके-दाँचे पड़ते हैं,कई मोहभंग होते हैं लेकिन वह स्वयं में और अपने कुछ जीवन-मूल्यों में कभी आस्था नहीं खोता.

‘पत्थर पर दूब’ मूलतः एक यथार्थवादी कृति है – हिंदी में इतनी असलियत इधर के बहुत कम कहानी-उपन्यासों में देखी गई है.अपनी चाक्षुष और फ्लैशबैक-फ़ॉर्वर्ड तकनीक के कारण वह कभी-कभी एक डॉक्यु-ड्रामा का आभास देने लगता है.उसमें युद्ध नहीं है लेकिन कमांडो-एक्शन है,सस्पेंस,थ्रिल,फ़ेस-ऑफ़,हैपी एन्डिंग है.अंध-देशभक्ति,शत्रु-घृणा,साम्प्रदायिकता,नारेबाज़ी से यथासंभव बचा गया है. हैरत यह है कि सुन्दर का पहला उपन्यास होने के बावजूद इसमें एक ऐसा नैपुण्य और लाघव है जिसकी उम्मीद हम वरिष्ठ और सिद्धहस्त रचनाकारों से ही करते हैं.भाषा,शैली और तकनीक की दृष्टि से कुल मिलाकर ‘पत्थर पर दूब’ में कोई कच्चापन दिखाई नहीं देता.

यह उपन्यास जहाँ हिंदी गल्प की एक आधारभूत कमज़ोरी को रेखांकित करता है वहाँ स्वयं उसके ख़म्याज़े की दिशा की और संकेत भी करता है.हमारे यहाँ या तो सामाजिक-राजनीतिक,गुरु-गंभीर,उत्तर-आधुनिक,जादुई यथार्थ के उपन्यास हैं जिनमें से अधिकांश अपाठ्य या बोगस हैं या फिर फ़ुटपाथ या रेल्वे स्टालों पर बिकनेवाले लोकप्रिय किन्तु नितांत विकलमस्तिष्क क़िस्से.जितना विविध हमारा समाज और हमारे कार्य-क्षेत्र हैं उसमें  गहरे पैठनेवाले और साथ ही पठनीय उपन्यास हिंदी में नहीं हैं.किसी भी विदेशी पुस्तक की दूकान के कथा-साहित्य विभाग में जाकर देखिए – लेखकों,पुस्तकों और विषयों के वैविध्य से सर चकराने लगता है और वे सब हाल के प्रकाशन होते हैं.भारत में भी अब सैकड़ों युवक-युवतियाँ धड़ल्ले से अंग्रेज़ी में ज़माने भर के विषयों पर ‘फ़िक्शन’ लिख रहे हैं,भले ही वह ‘पल्प’ हो, और सच्ची-झूठी लाखों-करोड़ों की रॉयल्टी कमा रहे हैं,सेलेब्रिटी बन रहे हैं.आज हिंदी में सीधा महान  प्रतिबद्ध साहित्यिक उपन्यास है,जो अपने स्तर पर शुद्ध अधपची बकवास है,लेकिन सेना,नेवी,एअर-फ़ोर्स,वकालत,अदालत,डॉक्टरी,इंजीनिअरिंग,अस्पताल,रेआलपोलिटीक,साइबर-विश्व,कॉर्पोरेट-जगत, असल जनजीवन,सिनेमा,टेलीविज़न,प्रिंट-मीडिअम,मंडी,मॉल,थोक और खुर्दा व्यापार,होटल,एअरलाइंस,काला पैसा,तस्करी,आइ ए एस,आइ एफ़ एस,आइ पी एस,इनकम टैक्स,रेल्वे आदि हजारों विषयों पर कुछ भी नहीं है – यानी ‘बेस’ सिरे से ग़ायब है, राहु की तरह अधर में लटका मात्र एक खोखला ‘सुपरस्ट्रक्चर’ है.कुछ नए-पुराने अपवादों को छोड़ कर हमारे लगभग समूचे कथा-साहित्य की यही दुर्दशा है.

ऐसे में सुन्दर चंद ठाकुर का हिंदी में ‘पत्थर पर दूब’ जैसा एकदम अनूठा उपन्यास लेकर आना कई तरह के अभूतपूर्व कारनामे अंजाम दे रहा है.इसने पहली  बार समसामयिक भारतीय फ़ौज को एक चेहरा दिया है.हर रैंक के फ़ौजी को भी इसे अवश्य पढ़ना चाहिए.बहुत कम सिवीलियन लोग इस दुनिया को जानते हैं – ‘उसने कहा था’ एक अमर कृति होते हुए भी  अंततः लगभग एक सदी पुरानी, विदेशी लाम पर घटी, प्रेम और त्याग की सादा,मार्मिक कहानी ही है.हिन्दी पाठकों को ‘पत्थर पर दूब’ की  कई बातें बहुत चौंकाएँगी.यह उपन्यास उन्हें बताएगा कि एक फ़ौजी उन्हीं की तरह का इंसान होता है.एक तरह से यह हिंदी के इक्कीसवीं सदी की अधुनातन दुनिया में प्रवेश करने का पहला उपन्यास है.इसमें सेना के पतनों और विडम्बनाओं को भी बख्शा नहीं गया है.यूँ तो हर आयु-वर्ग का पाठक इसे पढ़कर आल्हादित और समृद्ध होगा लेकिन मुझे लगता है कि यह अनायास ही हिंदी का पहला ‘किशोर-तथा-युवा’ उपन्यास भी बन गया  है और उनमें इसे विशेषतः लोकप्रिय होना चाहिए.एक बड़ी उपलब्धि यह भी है कि जहाँ  हिन्दी के कई जाहिल गल्प-लेखक अपने स्वदेशी-विदेशी पात्रों से अपने  ही स्तर की ख़ानसामा अंग्रेज़ी को सही समझ कर उनसे बुलवाते रहते हैं,सुन्दर ने शायद चार-पाँच ही ऐसी ग़लतियाँ की हैं और वे ब्लंडर नहीं हैं.यदि ‘पत्थर पर दूब’ का अनुवाद अंग्रेज़ी में हो जाए तो चेतन आदि बगुला-भगतों की आरती उतर जाएगी.

स्वयं मेरे पिता दूसरे विश्व-युद्ध में आर्मी मेडिकल कोर में बर्मा के मोर्चे पर किंग्स कमीशंड अफ़सर थे लेकिन 1946 में छँटनी में आ गए और बहुत बाद में मेरे बड़े भाई साहब एअर फ़ोर्स में वारंट अफसर के रैंक से रिटायर हुए.मेरे तीन मुँहबोले भांजे फ़ौज के सर्वोच्च रैंकों पर हैं और उनमें से मेजर-जनरल कैवल्य त्रयम्बक पारनार्ईक तो अगले महीने ही जम्मू-कश्मीर की सर्वाधिक विस्फोटक भारतीय कमांड से रिटायर होने वाला है. मैं अभी तक फ़ौज और सेकंड वर्ल्ड वॉर से आज़ाद नहीं हो पाया हूँ.यह उपन्यास इसलिए भी मुझे बहुत क़रीब और चहीता लगा है.इसे लिखवा लेने के पीछे सबसे पहला इसरार और दबाव  शायद मेरा ही रहा होगा,लेकिन बहुत अच्छा होने के बावजूद यह आंशिक रूप से ही वह उपन्यास निकला जो मैं पढ़ना चाहता था.मेरा वाला विषय है सोमालिया में सुन्दर के बिताए गए पंद्रह महीने, जब वे वहाँ यूनाइटेड नेशंस की शान्ति-सेना में अफसर थे.यह एक दुर्लभ और कई तरह के जोखिमों से भरा राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभव रहा होगा और शायद विदेशी भाषाओँ में भी ऐसे विषय  पर कोई उपन्यास नहीं है.मेरे लेखे ‘पत्थर पर दूब’ उस उपन्यास का पहला,भले ही अपने में पूर्ण, खंड ही है जो सोमालिया-पर्व के अपने दूसरे खंड के बिना पूरा नहीं माना जा सकेगा. एंड दैट्स एन ऑर्डर,कैप्टेन ! 

2 comments:

ravindra vyas said...

padhana padega!

Unknown said...

सुंदर को बधाई. विष्णु खरे जी आश्वस्त रहें हिन्दी का दारिद्रय कम होगा लेकिन धीरे धीरे