Tuesday, June 25, 2013

जाग फक़ीरे जाग, भाग फक़ीरे भाग


महान शायर और जनकवि वामिक़ जौनपुरी की यह पुरानी रचना अचानक कितनी ज्यादा प्रासंगिक हो गयी है-

गोहार

-वामिक़ जौनपुरी

जाग फक़ीरे जाग
भाग फक़ीरे भाग

भोर भई पर तोल रहा है
सर पर तेरे काग
गेहूं चावल साग
हर जीवन की ठांव
जाग फक़ीरे जाग
भाग फक़ीरे भाग
सर पर रख कर पाँव

शहर नहीं अब ये भट्टी है
जिसमें भूतों की हट्टी है
गलियों गलियों धूप
आग लगी है आग
कहीं नहीं अब छाँव
जाग फक़ीरे जाग
भाग फक़ीरे भाग
सर पर रख कर पाँव

दूकानों की और न जाना
काले धन का है वो ख़ज़ाना
जिनके हैं हैं रखवाल
काली काली नाग
ज़हरीला हर दांव
जाग फक़ीरे जाग
भाग फक़ीरे भाग
सर पर रख कर पाँव

देहातियों की बतियाँ जिन कर
बिजली पानी तेल और शक्कर
इनके दर्शन द्वार
आशाओं को त्याग
नरक भये सब गाँव
जाग फक़ीरे जाग
भाग फक़ीरे भाग
सर पर रख कर पाँव

भारत के सब नेता प्यारे
अवसरवादी हाथ पसारे
अपना अपना दफ़
अपना अपना राग
नक़ली सबका नाँव
जाग फक़ीरे जाग
भाग फक़ीरे भाग
सर पर रख कर पाँव


-वामिक़ जौनपुरी 

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