Monday, June 24, 2013

सुनयना के अपने ज्ञानरंजन - एक पठनीय संस्मरण


सुनयना के अपने ज्ञानरंजन


सुनयना ज्ञानरंजन

मैं जिस नागर परिवार से हूँ, उसकी एक विशेष मान-मर्यादा इलाहाबाद में रही है और आज भी उसकी चमक भले ही फीकी पड़ गई हो मगर खत्म नहीं हुई है. पंडित दीनानाथ नागर हमारे बाबा थे और वे इलाहाबाद में वकालत करते थे. उनके बेटे हुए वैद्यनाथ नागर. सिर्फ नाम से ही वे वैद्यनाथ न थे बल्कि वे पेशे से वैद्य थे. आयुर्वेद चिकित्सा में उनकी गहरी पैठ थी. वे सिद्ध वैद्य माने जाते थे. वैद्यनाथ जी के दो बेटे हुए- प्रभुनाथ नागर और सूर्यनाथ नागर. सूर्यनाथ नागर हमारे पिता थे. ताऊ जी ने तो आजीविका के उपाय के तौर पर सरकारी नौकरी को अपना लिया मगर पिताजी ने दो पीढ़ियों से चली आ रही आयुर्वेद चिकित्सा को ही अपना जीवन-सहचर बनाया.

इलाहाबाद में लूकरगंज मुहल्ले में हमारा घर है. घर क्या है, एक विशाल हवेली कहिए- इक्कीस कमरे हैं उसमें. सबसे बाहर का जो बरामदा है, वहां पिता अपनी वैद्यकीय बैठक जमाया करते थे. उनसे मिलने-जुलने वाले और रोगी वहीं आते हम लोगों को अंदर पता ही नहीं चलता कि बाहर कौन आया और कौन चला गया! जिस चौराहे के पास हमारा घर है, उसी के अगले चौराहे पर फर्लांग भर की दूरी पर ज्ञान का घर था ज्ञान यानी ज्ञानरंजन हम दोनों के परिवारों में पारिवारिक किस्म का घरोबा चलता था आना- जाना, उठना-बैठना था. हमारे पिता और ज्ञान के पिता में दोस्ती थी पिताजी ज्ञान के घर जाया करते और उनके पिता के पास अड्डेबाजी करते. ज्ञान के पिता श्री रामनाथ सुमन जी गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे. हमारे पिता भी कांग्रेसी थे. दोनों में खूब बनती. अनगिनत विषयों पर लंबी चर्चाओं के दौर चला करते. तब जीवन में सिद्धांतों और नैतिकता का बड़ा महत्व था. सिद्धांतहीनता को चरित्रहीनता तक मान लिया जाता था. आदर्शों के लिए कुछ भी खोया और त्यागा जा सकता था. खो देने में गर्व था त्याग देने में अभिमान. ज्ञान की मां हमारे घर आतीं और हमारी मां उनके घर जातीं. मेरे भाई दीपक और ज्ञान में गहरी दोस्ती थी. तो कहने का मतलब यह कि दोनों धरों के, हर उम्र के लोगों का आपस में दोस्ती और आत्मीयता का रिश्ता था. सुमन जी पिता जी को 'पंडित जी' कहते और पिता उन्हें सुमन जी. ज्ञान के पिता का साहित्य के क्षेत्र में बड़ा आदर-सम्मान था. वे उत्तर-छायावाद युग के महत्वपूर्ण लेखक माने जाते थे. हमारे घर के पीछे खुसरूबाग रोड है. वहां अश्क जी (उपेंद्र नाथ अश्क) रहा करते थे. पिता का उनसे भी मिलना-जुलना था. पिता को नागरों की श्रेष्ठता, उनके उद्भव और उनकी प्रतिष्ठा जैसे विषयों पर बातें करने का बेहद शौक था. उन्हें नागरों की जातिगत श्रेष्ठता पर विश्वास भी था और गर्व भी. उन दिनों अश्क जी की उच्छृंखलता के भी किस्से मशहूर थे. उन किस्सों को सुन-सुन कर पिता के मन में धारण बन गई थी कि लेखक लोग चरित्र और नैतिकता के स्तर पर 'भले आदमी नहीं होते, कि लेखकों में लंपटपना ही प्रमुखता से होता है. तब किसको पता था कि आगे चल कर एक लेखक ही उनका दामाद बनने वाला है और दूसरा उनका समधी. मुझे ही कहां पता था.

ज्ञान की बहन मृदुला हमारे साथ स्कूल में पढ़ा करती थी वह बड़ी सरल और सादी किस्म की लड़की थी ज्ञान उनसे अक्सर कहा करते कि सुनयना तुम्हारी सहेली है, तो उसकी तरह तुम भी जरा स्मार्ट बनने की कोशिश किया करो. तेजतर्रार बनो. सिकुड़ी-सिमटी न रहा करो. सुनयना की तरह साइकिल चलाओ. खेलकूद में हिस्सेदारी किया करो. मैं उन दिनों भी फुलपैंट पहना करती थी. खेलों में भाग लिया करती थी. खूब ऐक्टिव रहा करती. ज्ञान चाहते थे कि मृदुला भी उतनी ही ऐक्टिव बनें.

एक दिन ज्ञान ने हठपूर्वक मृदुला को पेट पहनने के लिए विवश ही कर दिया. फिर कहा कि अब जरा बाहर जाने की हिम्मत दिखाओ. कहीं और नहीं जा सकती तो एक चौराहे की दूरी तय करके सुनयना के घर तक ही चली जाओ. कुछ हिचक और थोड़ी हिम्मत करके मृदुल किसी तरह हमारे घर तक साइकिल पर आ गई. मृदुला को भी अपने साहस पर गर्व हुआ और हम लोगों ने उस दिन की दुस्साहसिक साइकिल-सवारी और पैंट पहनने के कारनामे का जी भर कर जश्न मनाया.

जब हमारे यही बड़ी बहन की शादी हो रही थी, तो ज्ञान हमारे घर एक टेप-रिकॉर्डर लेकर आया करते. जर्मनी-वर्मनी कहीं से मंगवाया था उन दिनों टेप जैसी चीज के बारे में ज्यादातर लोगों को कुछ पता न था. ज्ञान ने एक दिन चुपके से अपने टेप-रिकॉर्डर में पिताजी के द्वारा विवाह अवसरों पर किए जाने वाले मंत्रोच्चारणों को टेप कर लिया लोग देखते कि पिताजी वहां नहीं हैं, मगर वे मंत्रोच्चार कर रहे हैं खुद पिता भी हैरत में पड़ जाते कि उनकी वाणी किस अदृश्य स्थान से कैसे आ रही है. स्त्रियां चौंक जातीं लड़कियां पागलों की तरह उस स्थान को खोजने में लग जातीं, जहां से स्वर फूट रहे होते. बस हम कुछ लोगों को ही इस सारे रहस्य की जानकारी थी. शेष सब भोले लोग थे. उन दिनों रहस्यों के साथ जीना और जानने के गर्व से तने रहने में कितना मजा आता था. इसके चार ही जानकार थे- मैं, मेरी बहन, ज्ञान और और ज्ञान की बहन मृदुला. हम पारंगत लोग थे रहस्य को रहस्य बनाए रखने का धैर्य हममें था. अब नहीं रहा. दरअसल अब रहस्य ही नहीं रहे.

टेप-रिकॉर्डर में मेरे और मेरी बहन के गाये फिल्मी गाने भी रिकॉर्ड किए गए थे. उन दिनों मैं जिस गति को खूब गाया करती थी, वह है- 'शाख नजर की बिजलियां, दिल पे मेरे गिराए जा.... ' मुझे आशा भोंसले के गाये गीत बेहद पसंद हैं, जैसे- 'ये है रेशमी जुल्फों का अंधेरा न घबराइए, जहां तक महक है मेरे गेसुओं की चले आइए. ' तो घर में शादी का कोई दस्तुर चल रहा है और कहीं दूर से हमारे ही गाये गाने चले आ रहे हैं. स्त्रियां और लड़कियां भौंचक्की होकर सुनने लगती, फिर हमें देखतीं. हमारे मुंह देखतीं वे चकरा जातीं हमें गुदगुदी होती. हंसी आती. ज्ञान और दीपक पीछे के किसी कमरे में छुपकर टेप चलाए हुए होते. हमारी दूसरी बहन करुणा कभी-कभी सुमन जी से पढ़ने के लिए उनके घर जाया करती थी. ज्ञान ने उसे अपने घर में देखा था और सोचने लगे थे कि इस लड़की से उनकी शादी हो सकती है. ज्ञान उसके प्रति कोमल भावनाएं रखने लगे थे. करुणा को इसका पता न था. बड़ा इम्मैच्योर-सा मामला था. शुरुआती किस्म का. 'प्रथम दरस के बाद और प्रथम परस के पहले' वाला. मैं जहां नटखट बातूनी और साहसी किस्म की लड़की थी, वहीं करुणा सीधी और पढ़ाकू. लंबी और खूबसूरत. फिर करुणा की शादी तय हा गई. ज्ञान ने उसकी शादी के प्रबंध में खूब हाथ बँटाया अब वह कलकत्ता में अपने परिवार के साथ है. फिर ज्ञान अपनी भाभी की बहन के प्यार में पड़ गए खतों का आना-जाना हुआ. सुमन जी तक भी यह बात पहुंची, मगर वे एक ही परिवार से दो बहुएं लाए जाने के पक्ष में नहीं थे. उन्हीं दिनों मैं अपनी बुआ के देवर को पसंद करने लगी थी. मन में चाहना थी कि उससे शादी हो जाए. खुद हमारी दादी भी यही चाहती थीं तब का समय ऐसा था कि लड़के-लड़कियों की दोस्तियां दूरदराज के इलाकों में नहीं होती थी. नजदीकी परिवारों और रिश्तेदारों में ही हमारे नायक-नायिकाएं हुआ करती थीं या फिर कॉलेजों में.

बुआ का घर भी इलाहाबाद में ही पड़ोस में था आना-जाना खूब होता वहीं मैंने गोपाल को देखा था और एकाध बार उससे बात भी की थी गोपाल कहीं दूसरे प्रदेश में नौकरी पर था और शादी की बात चलाने की गरज और कामना के साथ ही हमारे घर आया करता था मगर पिता ने एक भावी वर के रूप में उसे तवज्जो नहीं दी जो रिश्तेदारी थी, उतनी ही वे चलाते रहे. उसे उतना ही आदर-मान दिया, जितना अपनी बहन के देवर को देना चाहिए था. गोपाल चला गया सदा-सदा के लिए हमें उसके आने की भनक तक न लगी हम तो बेचैनी से शाम तक उसका रास्ता देखते रहे पर वह नहीं आया.

ज्ञान को इस बात का पता था कि मेरी शादी गोपाल से हो सकती है. मामला दोनों घरों के बीच तय है प्रसंग आने पर हमने ज्ञान को भी गोपाल के किस्से सुनाए थे. मैं ज्ञान से पूछ कर ही गोपाल के लिए उपहार खरीदा करती थी. ज्ञान अक्सर उपहार में किताबें देने के सुझाव दिया करते थे वही किताबों के नाम भी बताते और वे कहां मिलेंगी, यह भी बताते. हम मृदुला के साथ जाकर किताबें खरीदते और फिर गोपाल को भेंट कर देते गोपाल को मेरी साहित्यिक रुचियों पर गर्व होता.

मुदुला के माध्यम से ही ज्ञान को यह पता चल गया होगा कि गोपाल के साथ होने वाली मेरी शादी का ख्वाब टूट गया है, कि पिता नहीं चाहते कि गोपाल से शादी हो, कि गोपाल जा चुका है, कि हम दुख और निराशा में हैं. वगैरह-वगैरह. ऐसे में ज्ञान ने मृदुला की मार्फत खबर भेज कर हमें अपने घर बुलवाया. फिर दुख तथा निराशा दूर करने वाली बातों से हमें उस अंधकार से निकालने के लिए खासी मशक्कत की. ज्ञान की बातों ने मुझे सांत्वना दी, साहस दिया, भावुकता से निजात दिलाई, यथार्थ का अहसास कराया. और सबसे बड़ी बात, हमें हमारे वजूद की याद दिलाई. कहा, क्या तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है? महत्व और स्वाभिमान नहीं?? एक आदमी, जो तुमसे प्रेम की कसमें खाया करता था, अचानक खामोशी के साथ क्यों चला गया? विदा ही लेनी थी तो तुमसे लेकर जाता. मिलता. अपनी बात कहता. अगर दुस्साहस नहीं कर सकता था तो कम-से-कम तुम्हारे सम्मान का ध्यान तो रख सकता था. जाने दो उसे, वह तुम्हारे काबिल ही न था. अपात्र था. अपात्र के लिए दुखी होना, दुख का अपमान करने के बराबर ??

ज्ञान ने खुद अपना उदाहरण भी दिया कि वे अपनी भाभी की बहन से पिछले आठ सालों से प्रेम करते रहे हैं मगर पिता (सुमन जी) को एक ही घर से दो बेटियों को लाना मंजूर नहीं था, इसलिए उन लोगों ने लड़की की शादी कहीं और कर दी. खुद लड़की भी कहीं और शादी करने को राजी हो गई. बताया तक नहीं, अन्यथा कोई रास्ता निकाला जा सकता था पर जब पात्र ही ' कुपात्र हो जाए तो कोई क्या करे? ज्ञान ने उस लड़की के लिखे हुए प्रेमपत्र हमें पढवाए कि लो, पढ़ तो, देख लो खतों में कितना पवित्र प्रेम बिखरा हुआ है मगर असलियत में प्रेम चूर-चूर हो गया न! माता-पिता ने कहा यहां शादी कर लो, तो वही कर ली. प्रेम और प्रेम की पवित्रता गई भाड़ में. ज्ञान ने भी गम में नौकरी त्याग दी थी. खुद को शराब के हवाले कर दिया था. गमगीन हालत में रहे. आवारगी बढ़ गई थी. चेहरा निस्तेज हो गया था. 'खलनायिका और बारूद के फूल, में यही सब व्यक्त हुआ है.

ज्ञान के असफल प्रेम के किस्से सुन कर हम अपना दुख भूल गए. मन के अंदर से यह बात उठी कि ज्ञान क लिए हमें एक अच्छी-सी लड़की की खोज करनी चाहिए हमारी एक दोस्त थी- श्रीवास्तव लड़की. ज्ञान खुद भी श्रीवास्तव थे तो सोचा, यह ठीक रहेगी मगर वह लड़की अंग्रेजी वगैरह के ज्ञान से शून्य थी एडवांस और स्मार्ट भी न थी ज्ञान को उस लड़की के बारे में बताया तो गान ने कहा, ''शादी की जा सकती है. '' पर लड़की हमें पसंद न थी. रद्द कर दी ज्ञान के लिहाज से सही जोड़ी न होती.

हम खिलाड़ी थे जैवलिन दो, शाँटपुट और बैडमिंटन वगैरह खेला करते थे कोच सिखाया करते थे कोच बेहद हैंडसम थे. ऐसा व्यक्तित्व था कि कोई भी प्रभावित हो जाए. वे मुसलमान थे. ज्ञान से हम उनके बारे में बातें किया करते. शान कभी-कभी कहा करते कि हम उनसे न मिला-जुला करें. क्या जरूरत है किसी कोच-वोच की? ज्ञान गुस्सा भी होते. गुस्सा हमें भी आता. इस बात पर कि हम किसी से क्यो न मिलें- जुले? बातचीत क्यो न करे? मिलने और बातें करने में क्या बुराई है?

कुछ दिनों बाद ईद का त्यौहार आया. कोच साहब ' ने ईद पर घर आने का निमंत्रण दिया. हमने ज्ञान को बता दिया कि कोच ने ईद का न्यौता दिया है. ज्ञान ने. कहा, ''देखो, उसके घर मत जाना. ''

हमने कहा. ''भई, हम तो जाएंगे. जाने में क्या है?
बुलाया है तो जाना ही चाहिए. सिवइयों की दावत है
दावत खाने में क्या बुराई है?

ज्ञान ने देखा कि उनकी बातों का हम पर कोई असर नहीं हो रहा है तो अगले दिन यानी ईद वाले दिन उस नुक्कड़ पर जाकर पहले से ही खड़े हो गए, जहां से होकर हम गुजरने वाले थे एक सड़क आगे चल कर ही तो कोच का घर था. हमने ईद की दावत पर जान के लिए अपने सबसे सुंदर कपड़े पहने थे. नुक्कड़ पर खड़े ज्ञान पर नजर पड़ी ज्ञान ने हमें देखा तो फौरन पास चले आए. कहा, ''आज बड़ी रंगीन पोशाक पहने हाँ देखो वहां मत जाओ अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मेरी जिंदगी बिलकुल 'प्लेन' हो जाएगी. जमाना खराब है. तुम कुछ समझती तो हो नहीं.

ज्ञान का उस दिन, इतने अधिकार के साथ, यों फैसलाकुन अंदाज में बोलना दिल में उतर गया. हम रास्त से ही लौट आए दावत पर नहीं गए. हमने ईद रद्द कर दी. कोच महाशय की ईद का क्या हुआ, पता नहीं.

कोच महोदय के घर पहले से ही आना-जाना होता था. उसकी अम्मीजान हमें बहुत चाहती थी. कहा करती, हमारी बहू बन जाओ. हम मना कर दिया करते वे पूछतीं कि क्या उनका मजहब इसका कारण है ' हम कहते. ''नहीं-नहीं. हमारे लिए मजहब-वजहब कुछ मायने नहीं रखता वह अलग चीज है. मगर शादी नहीं करनी. कोच से शादी करने का इरादा न था.

एक और लड़का था- हरिलाल वह लड़का. हमें अच्छा लगता था मगर उससे कोई प्रेम-वेम न था. उसके माता-पिता भी चाहते थे कि हमारी शादी हो जाए. वे लोग जानते थे कि ज्ञान के प्रति हमारे मन में प्रेम है तो कहा करते, ''कहां उस बाबा के पीछे पड़ी हो... -
हमने कहा, ''हरिलाल को और लड़कियां मिल जाएगी मगर यदि ज्ञान को हम न मिले तो वो साधु हो जाएगा.''

घर वालों ने भी अलग से शादी की बात चला रखी थी जहां बात चल रही थी, वे लोग जालंधर के रहने वाल थे लड़का नेवी में जॉब करता था. हमे नेवल लाइफ पसंद न था. घर वालों के निमंत्रण पर हमें देखने इलाहाबाद आया. हमारे घर पर ही रुका. फिर हम ज्ञान की बहन के साथ उसे छोड़ने के लिए स्टेशन भी गए. मृदुला से ही ज्ञान को इस देखा-दिखाई का पता चला. ज्ञान गुस्सा हो गए. उन्हें बुरा लगा.
जालंधर से लड़के का खत आया. उसने अपनी ओर से रजामंदी भेज दी थी. हमने इस चिट्ठी के बारे में ज्ञान को बता दिया ज्ञान ने कुछ देर सोचने के बाद कहा ''ऐसा करो कि तुम तीन-चार बजे हमारे घर आ जाओ तभी कुछ करेंगे. ''

हम नय समय पर ज्ञान क घर पहुंच गए. गान ने जालंधर वाले लड़के के पत्र के जवाब में पहले से ही एक चिट्ठी तैयार कर रखी थी ज्ञान ने कहा कि हम उनकी लिखी चिट्ठी को अपनी हैंडराइटिग में लिखकर भेज दो. हमने लिख दिया कि हम 'इंगेज्ड हैं और उससे शादी नहीं कर सकते.
जब हमारी चिट्ठी उधर पहुंची तो लड़के के पिता ने हमारी चिट्टी का ब्यौरा हमार पिताजी को लिख भेजा बस फिर क्या था, घर में तो एक हंगामा ही खड़ा हो गया. पिता ने एक थप्पड़ लगाया. चिट्ठी लिखने के जुर्म में यह सजा मिली थी. भीषण सजा हमने इसके पहले तक पिता से केवल दुलार ही पाया था. फटकार या झिड़की तक नहीं. दिन भर घर मैं चीख-पुकार मची रही. हर कोई नाराजगी और तनाव में था. दीपक ने घर में हुए इस हंगामे की खबर ज्ञान को दे दी. ज्ञान ने फोन पर सांत्वना दी समझाया और सब कुछ बहादुरी के साथ झेलने की ताकत दी. शात रहने की ताकीद की.

दीपक और पिताजी के यह बात पता न थी कि ज्ञान और हमारे बीच में कुछ 'पक' रहा है. कुछ 'चल रहा है. पूरा घर इस छानबीन में जुटा हुआ था कि आखिर वह लड़का है कौन? उनकी हैरत इस पर थी कि कैसी बेवकूफ लड़की है जिसने उस लड़के की खातिर ऐसी अच्छी नौकरी वाला लड़का गंवा दिया.

मां ने सुझाया कि झूठ बोल दो कि किसी ने. जलन के कारण ऐसी चिट्ठी जालंधर भेज दी होगी, हमने नहीं लिखी. हमने झूठ बोलने से साफ मना कर दिया. उन्हीं दिनों लखनऊ से हमारी ताई जी इलाहाबाद आई. जब वे वापस जाने लगीं तो पिताजी ने हमें भी उनके साथ लखनऊ भिजवा दिया. ताई से अनुरोध किया गया कि वे लखनऊ में हमारे लिए लड़का देखे.

ज्ञान को दीपक भाई से ही खबर मिली कि हम लखनऊ भेज दिए गए हैं. ज्ञान ने तब अपने तरीके से ताई का पता वगैरह हासिल किया और अगली ट्रेन से लखनऊ पहुंच गए. लखनऊ में ज्ञान से टेलीफोन-संपर्क बना रहा और इस बात पर जोर रहा कि ताईजी का 'वर खोजो अभियान, ध्वस्त होता रहे. जब इलाहाबाद लौटने की तारीख तय हो गई तब हमने गान को तारीख के बारे में बता दिया था. ज्ञान स्टेशन आ गए थे. हमारी बहन साथ थीं. गान भी साथ हो गए. तभी हमने देखा कि दो लड़के जो ताई जी के यहां आया-जाया करते थे, वे भी उसी डिब्बे में हैं. आपस में खुसरफुसर भी कर रहे हैं ये लड़के क्यों वहां थे, किसने भेजा था? यह तो पता नहीं परंतु वे जासूसी में जरूर लगे हुए थे.

उन दिनों गान जबलपुर के जी. एस. कॉलेज (गोविंदराम सेक्सरिया अर्थ एवं वाणिज्य महाविद्यालय) में हिंदी साहित्य की प्राध्यापकी कर रहे थे. उनका बार-बार इलाहाबाद आना नौकरी के चलते संभव न था और अगर नौकरी को तवज्जो देते तो हमारा जीवन संकट में पड़ जाता. वे भाग- भाग कर इलाहाबाद आते, उलझी हुई चीजों को सुलझाते_ और जबलपुर लौट जाते. वे जबलपुर जाते ता यहां कुछ और गुत्थियां पैदा हो जाती. लिहाजा, ज्ञान ने नौकरी त्याग देने का निर्णय ले लिया. बड़ा अजीब निर्णय था, घर बसाने की जद्दोजहद से भिड़ने के लिए अपनी आर्थिक जड़ों को ही काट फेंकना.

ज्ञान के कॉलेज के संचालकों-प्रबंधकों और साथी अध्यापक-मित्रों ने खूब समझाया कि नौकरी मत छोड़ो. इतनी अच्छी नौकरी बार-बार नहीं मिलती. मगर ज्ञान अपने फैसले पर डटे रहे. अंतत: सबने हार मान ली. कॉलेज ने ज्ञान के लिए फेयरवेल पार्टी का इंतजाम किया. सब हाजिर, मगर ज्ञान गैरहाजिर. जिसका फेयरवेल हो रहा था, वह स्टेशन के प्लेटफॉर्म के पथरीले-बरामदे में व्याकुलता से रेल का इंतजार कर रहा था. इधर पार्टी में कहकहे लग रहे थे, उधर ज्ञान के चेहरे पर खो देने की आशँकाओं के डेरे जमा हो रहे थे. ज्ञान इलाहाबाद आ गए तो हमारी भी ताकत बढ़ गई साहस दोगुना हो गया. ज्ञान अब देर न करना चाहते थे, जो होना था शीघ्र हो जाए, यही भाव था. ज्ञान ने शादी कैसे, कब और कहां करना है, इसकी पूरी योजना बनाई. 'पहल सम्मान' और दूसरे ऐसे ही बड़े-बड़े कार्यक्रमों की त्रुटिहीन रूपरेखा को देखकर ज्ञान के मित्र और सहयोगी चकित हो जाया करते हैं मगर हमें तो तभी से पता है कि वे एक परफेक्ट-प्लानर हैं ज्ञान ने वह तारीख तय की, जिस तारीख में पिता बनारस जाने वाले थे शादी हमने इलाहाबाद में की ज्ञान के कोई परिचित पुरोहित थे हम लोग उनके घर चले गार थे. वही पास-पड़ोस की महिलाएँ बुला ली गई थीं उन्होंने ही फूल वगैरह जमा किए हमें सजाया, श्रृंगार किया. मालाएं तैयार थीं पुरोहित ने मंत्रोच्चार किया और विवाह संपन्न हुआ. जब पुरोहित जी मंत्रोच्चार कर रहे थे तब पिता की याद आ रही थी. काश! मंत्रोच्चार उन्होंने किया होता. वे नहीं तो उनकी आवाज वाला टेप रिकार्डर ही होता, पर वह न था सादगी और सहजता से शादी हो गई.

ज्ञान ने ऐसी योजना बनाई थी कि हम ट्रेन से बनारस रवाना हुए और पिता की ट्रेन बनारस से इलाहाबाद चली जब दोनों गाड़ियां एक-दूसरे को क्रास कर रही थी, तब ज्ञान ने बताया, ''तुम्हारे बाबूजी इसी ट्रेन में हैं. '' एक पल के लिए दिल धक करके ठहर-सा गया वहां कोई टुकड़ा रेत का धसका. यह धसकन घर, माता-पिता, उनके दुलार और संरक्षण की यादों की रही होगी या फिर उनके प्रति एक अप्रीतिकर-अवहेलना की रेत खिसकी होगी.

हमारे मुहल्ले में ही एक श्रीकृष्ण दीक्षित साहब रहा करते थे. वे पुलिस विभाग में थे. उन्हें अपने लड़कों-लड़कियों से पता चल गया था कि उस वक्त हम और ज्ञान कहां हैं, मगर उन्होंने किसी को भी भनक नहीं लगने दी उन्होंने घर पर पुलिस लगा दी थी कि कोई और कुछ न कर सके. घर का हाल बुरा था. कोहराम मचा हुआ था. गमगीनी छायी हुई थी लड़की कहां चली गई? क्या हो गया उसे? नागरों के उच्चकुल में ऐसा दुखद समय भी आने को था हाय, क्या करें?

हम लोगों ने बनारस से टेलीग्राम कर दिया था कि शादी कर ली है टेलीग्राम मिलने पर घर वालों को पता चला कि हमने ज्ञान से शादी की है उन्हें जरा-सा भी अंदेशा न था कि हमने ज्ञान को अपने लिए चुना है.

पिता तुरत ही सुमन जी के घर जा धमके जाकर कहा, ''अब समझ में आया कि आप काहे 'पंडिज्जी-पडिज्जी की रट लगाए रहते थे... क्यों शुद्ध घी के लड्डू खिलाने की जिद ठाने रहते थे....'' सुमन जी ने उन्हें लाख समझाया कि उन्हें भी शादी के बारे में कुछ अता-पता नहीं है मगर पिता ने इस पर भरोसा नहीं किया. पिता रास्ते पर आते- जाते तो लोग उन्हें बेटी के विवाह की बधाइयां रोक-रोककर देते. इनमें दिल से निकलने वाली भली बधाइयाँ भी थीं और दिलजलों की कुढ़न से भरी, कोंचने के लिए दी जाने वाली बधाइयां भी. दो-ढाई महीने का अरसा गुजरा. गान के घर का वातावरण अनुकूल हुआ. वहां ज्यादा प्रतिकूलता न थी सुमन जी गांधीवादी विचारों वाले और लेखक थे. भेदभाव और जातिभेद न मानते थे. ही, व्यक्तिगत रुचि-अरुचि का ही अवरोध था, वह भी समय की गति के साथ ढह चला था. सुमन जी ने हम लोगों के विवाह पर 'एट होम' पार्टी का आयोजन किया. पिता और परिवार को 'भी न्यौता भेजा गया. पिता पार्टी में आए भी पर हम दोनों से बिना मिले ही लौट गए. सुमन जी और पिता की मुलाकात हुई मिलना-जुलना हुआ पर संकोच शायद दोनों ओर रहा होगा. न इन्होंने कहा- बेटी- दामाद से मिलिए, और न उन्होंने ही कहा- बेटी- दामाद से मिलना है.

पार्टी में आने के बावजूद पिता वकीलों से मिलते रहे. कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते रहे कि शादी कैसे टूटे. श्रीकृष्ण दीक्षित जी ने पिता का समझाया भी था कि दोनों बालिग हैं, शादी विधिवत ढंग से हो चुकी है, इसलिए कानूनन उनका कुछ भी बिगाड़ा नहीं जा सकता. मगर किसी वकील ने सुझाया कि लड़की कह दे कि लड़का उसे भगा कर ल गया था, तो मामला बन सकता है.

मां ने हमसे कहा, ''बेटी, कह दो कि लड़का भगा कर ले गया था हमने कहा, ''लड़का हमें कहां भगा ले गया था, उलटे हमीं लड़के को भगा ले गए थे.'

मां ने कहा, ''आज से हमारा-तुम्हारा कोई संबंध नहीं.

पिता अमृतलाल नागर के पास भी गए. उन्होंने पिता को समझाया कि लड़के का परिवार अच्छा है. लड़का पढ़ा-लिखा और लेखक है लेखक होना विशेष होना होता है लड़के के लिखने में दम है.

नागर जी के समझाने का पिता पर अच्छा प्रभाव पड़ा फिर उन्होंने इस बारे में विरोध करना बंद कर दिया. विरोध तो बंद कर दिया मगर हमें अपनाया भी नहीं. खलिश रही आई. हमारे बहुत-से रिश्तेदार यह देखने के उद्देश्य से हमारे घर आया करते थे कि ज्ञान हमें कैसे रख रहे हैं?
जीवन का बेहतर समय हम दोनों ने संघर्षों में और जूझते हुए ही बिताया. अभाव, कमियां और खींचतान वाली अर्थ-व्यवस्था रही परंतु ज्ञान का भरपूर प्यार, आदर और घर के प्रति अटूट लगाव की संपदा से हम मालामाल रहे. सुख और सुकून रहा. अब कठिनाइयों वाले वो दिन भी नहीं रहे. अपना घर है. चीजें हैं. बेटे-बेटी और नाती-पोतों का सुखमय संसार है. ज्ञान जहां जाते हैं, वहां की प्रसिद्ध चीज लाना नहीं भूलते. हमने अपने लिए शायद ही कभी साड़ी खरीदी हो. ज्ञान ही लाते हैं. इतनी सुंदर, इतनी बढ़िया कि खुद हम ना ला पाएं. शायद उन दिनों के अभावों को अब भर रहे हैं. हमने कभी कोई शिकायत नहीं की. प्रेम की कभी कोई कमी नहीं रही. बच्चों ने सादगी के साथ अपनी पढ़ाई की. अब अपने-अपने घरों में खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं.

जब सीलिंग एक्ट आया और जमीन वगैरह बिकने का भय हुआ तो पिता ने कहा कि तुम्हें भी कुछ दे दिया है. हमें सुमन जी से भी कुछ नहीं मिला और पिता से भी कुछ नहीं मिला था. चाहिए भी न था. जो चाहिए था, वह पा चुके थे. ज्ञान ने तो अपनी ससुराल से कभी एक रुपया भी न लिया. भाई दीपक को जरूर बहुत दिनों तक आशंका रही कि वे हिस्सा मांगेंगे. पर अब वे भी निश्चिंत हैं.

(राजेन्द्र चंद्रकांत राय द्वारा की गई लंबी बातचीत पर आधारित )


(शुक्रवार, साहित्य वार्षिकी 2013 से साभार. फोटो: सुनयना जी अपनी पुत्री बुलबुल और ज्ञानरंजन जी के साथ.)

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