Saturday, June 8, 2013

बा हर सू रक्स-ए बिस्मिल बूद शब जाय कि मन बूदम


बहुत दिनों बाद बाबा नुसरत फ़तेह अली खान साहेब की आवाज़ सुनाने जा रहा हूँ आपको. हजरत अमीर ख़ुसरो की इस शानदार रचना को सुनिए –

  



मुख्य मूल रचना के बोल ये रहे –

नमी दानम चे मंज़िल बूद शब जाये के मन बूदम 
बा हर सू रक्स-ए बिस्मिल बूद शब जाय कि मन बूदम

परी पैकर निगार-ए सरव कद्दे लाला रुखसरे
सरपा आफ़त-ए दिल बूद शब जाय कि मन बूदम

खुदा खुद मीर-ए मजलिस बूद अनदर लामकन खुसरौ
मुहम्मद शम्म-ए मेहफ़िल बूद शब जाय कि मन बूदम

एस. ए. एच. आबिदी के अंग्रेज़ी अनुवाद की मदद से आपके वास्ते इस रचना का लब्बो-लुबाब पेश करता हूँ –

पता नहीं कल रात मैं किस जगह था, हर तरफ़
यातना में तडपते नीम-क़त्ल मोहब्बत के शिकार पड़े हुए थे.

सरो जैसे ऊंचे कद और फूलों जैसी सूरत वाली परियों जैसी एक महबूबा
वहां मोहब्बत के मारों के दिल के साथ अत्याचार किये हुए थी.

मोहब्बत के उस दरबार में खुद ईश्वर की देखरेख में यह सब हो रहा था.
अय ख़ुसरो, उस जगह तो पैगम्बर का चेहरा भी मोमबत्ती की रोशनी जैसा दिपदिपा रहा था.  

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