Monday, July 1, 2013

सब एक दूसरे से अधिक कनबहरे

केदारनाथ अग्रवाल की कविता-



कनबहरे

कोई नहीं सुनता 

झरी पत्तियों की झिरझिरी 

न पत्तियों के पिता पेड़ 

न पेड़ों के मूलाधार पहाड़ 

न आग का दौड़ता प्रकाश 

न समय का उड़ता शाश्वत विहंग 

न सिंधु का अतल जल-ज्वार 

सब हैं - 
    
सब एक दूसरे से अधिक
                
कनबहरे, 
                
अपने आप में बंद, ठहरे 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सब अपने गीले में जीते,
सूखे की सुध साधे कौन,
पंख लगाये, सजे सजाये,
तकते राह, उड़ा दे कौन।