केदारनाथ
अग्रवाल की कविता-
कनबहरे
कोई नहीं सुनता
झरी पत्तियों की झिरझिरी
न पत्तियों के पिता पेड़
न पेड़ों के मूलाधार पहाड़
न आग का दौड़ता प्रकाश
न समय का उड़ता शाश्वत विहंग
न सिंधु का अतल जल-ज्वार
सब हैं -
सब एक दूसरे से अधिक
कनबहरे,
अपने आप में बंद, ठहरे
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सब अपने गीले में जीते,
सूखे की सुध साधे कौन,
पंख लगाये, सजे सजाये,
तकते राह, उड़ा दे कौन।
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