Wednesday, July 31, 2013

एक है ज़ोहरा – १


ज़ोहरा सहगल को कौन नहीं जानता. अठानवे साल की आयु में २०१० में उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘क्लोज़ अप’ प्रकाशित की. हिन्दी के पाठकों के लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि इस पुस्तक का अनुवाद हमारी कबाड़न दीपा पाठक के किया है और ‘क़रीब से’ शीर्षक अनुवाद के रूप में इसे राजकमल प्रकाशन द्वारा छाप भी दिया गया है.

इस किताब के चंद शुरुआती हिस्से दीपा की मेहरबानी से यहाँ पेश किये जा रहे हैं.


ज़ोहरा सहगल-उर्फ मुमताज़ के खानदान का लेखाजोखा
नवाब नजीब-उद-दौला (1708-1770) के खानदानी

नजीबाबाद के आखिरी हुक्मरान नवाब जलालुद्दीन खान 1857 की बग़ावत के दौरान अंग्रेज़ों की गोली से मारे गए  थे. उनकी विधवा बेगम, दो जवान बेटे और दो कमउम्र बेटियां बैलगाड़ी में छुप कर मुरादाबाद पहुंचे, जहां बेगम के भाई फौज में कमांडर थे.

बाद में बड़ा बेटा अज़िमुद्दीन खान रामपुर के जवान नवाब के रीजेंट के साथ-साथ वहां की फौज के जनरल बन गए. कई सालों बाद उनकी पोती असकरी बेगम की शादी रामपुर नवाब के वारिस राज़ा अली खान से हुई और उन्हें राफत ज़ामानी बेगम की पदवी दी गई.

छोटा बेटा, साहेबज़ादा हमिद्दुज़ार खान को देश की कई रियासतों का रीजेंट बनाया गया. उनकी छोटी बहन जाफरी बेगम की शादी रामपुर के एक इज़्जतदार और अमीर आदमी अताउल्लाह खान से हुई. उनके सबसे छोटे बेटे मुमताज़ुल्लाह खान ने अपनी रिश्ते की बहन साहेबज़ादा हमिद्दुज़फर खान की बेटी नातिका बेगम से शादी की. उनके सात बच्चे हुए जिनमें से ज़ोहरा सहगल तीसरे नंबर की संतान थीं.

जलालुद्दीन खान की सबसे बड़ी बेटी ज़ुबैदा बेगम (?) की शादी लोहारू के नवाब से हुई, जिनकी बहुत सारी बेटियां पैदा हुई, जिनकी बाद में अलग-अलग नवाबों से शादियां हुईं जैसे मालेर कोटला, पटौदी और फखरुद्दीन अली अहमद का रंगून खानदान.
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1919 -1929
बचपन और लाहौर

जीवनः खुद के साथ अंतहीन बातचीत; होश के आलम में चुप और पागलपन में सुनाई देने वाली

कोई अपने बारे में किताब क्यों लिखता है? सबसे बड़ी वजह तो यह कि इंसान मरने के बाद जीवन से अपनी पकड़ छूटने की कल्पना से डरता है . ऐसे में आत्मकथा उसे मरने के बाद भी अपने होने के भ्रम को बनाए रखने का जरिया लगता है. मुझे लगता है कि यह एक तरह की आत्ममुग्धता है, भला किसे परवाह है तुम्हारी भावनाओं की, तुम्हारे संघर्ष की, तुम्हारे सुख या दुख की? हां, शायद तुम्हारे बच्चों के लिए उनकी कुछ अहमियत हो. हालांकि वो भी दिल से तुम्हें प्यार करने और तुम्हारी देखभाल करने के बावजूद कभी-कभी ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे तुम उनकी जिंदगी से जुड़ा एक फालतू हिस्सा हो और तुम्हारे हटने से उन्हें राहत मिलेगी...पता नहीं पर मुझे ऐसा लगता है!

मेरे लिए इस किताब को लिखने की खास वजह एक ऐसा काम हाथ में लेना था जिसमें मैं खुद को डुबा सकूं, साथ ही मैं अपनी जिंदगी जो कुछ हुआ उन सब बातों को पूरी तरह से भूल जाने से पहले ही लिख डालना चाहती थी. इसमें से बहुत सारी बातें बहुत पुरानी हैं, ऐसा लगता है वो सब किसी और जन्म में घटा था, इसके बावजूद कुछ यादें इतनी जीवंत हैं जैसे लगता है कल ही की बात हो.


मैं 27 अप्रैल, 1912 में संयुक्त भारतीय प्रांत, जो अब उत्तर प्रदेश कहलाता है, में सहारनपुर में पैदा हुई. मेरे पिता एक पठान सरदार, मौलवी गुलाम जिलानी खान साहेब के वंशज थे. मौलवी साहेब  की नस्लीय जड़ें अफगानिस्तान के अब्दुल राशिद नाम के एक यहूदी से जुड़ी थीं, जिन्होंने 631 ईसवीं सन् में मुस्लिम धर्म अपना लिया. 1760 में गुलाम जिलानी, जो एक विद्वान और प्रसिद्ध योद्धा थे, दिल्ली में अहमद शाह के दरबार में आए जहां उन्हें बहुत सम्मान दिया गया. बाद में वे अन्य रोहिला सेनापतियों के साथ सेना में शामिल हुए. उन्हें नवाब फैजुल्लाह खान की सेना की कमान सौंप दी गई. नवाब साहब के साथ वे कोसी नदी के किनारे बसे 'रामपुरा' नाम के एक गांव में पहुंचे. इस तरह से रामपुर शहर और राज्य के रूप में विकसित हुआ. गुलाम जिलानी और बाकी ग्यारह रिसालदारों को यहां जमीन आवंटित की गई. मेरी मां के दादा जी नवाब जलालुद्दीन खान थे, जो नवाब ज़ेब्ते खान के पोते थे. नवाब ज़ेब्ते खान नजीबाबाद के संस्थापक और नवाब नजीबुद्दौला के बेटे और उत्तराधिकारी थे. मुझे अचरज होता है यह सोच कर कि हमारे पूर्वजों के जीवन का हम पर कितना प्रभाव पड़ता है, कभी सोचती हूं कि मेरे पूर्वज के व्यक्तित्व में जुड़े विद्वता और साहसिक  गुणों का का मेरे जीवन के अलग-अलग पड़ाव पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है.

मेरे पिता ने युवावस्था में ही रामपुर छोड़ दिया. मेरी पैदाइश के दौरान वह ब्रिटिश प्रोविंसियल सर्विस में कनिष्ठ अधिकारी थे. (एक बहुत हास्यास्पद सी बात यह थी कि बाद के वर्षों में अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें नौकरी में अच्छे प्रदर्शन के लिए खान साहेब का दर्ज़ा दिया, जबकि नवाबी खानदान से जुड़े होने के चलते यह तमगा तो जन्म के साथ ही उनके नाम से जुड़ा था.)

मैं अपने परिवार में तीसरे नंबर की संतान थी, अब क्योंकि भारतीय किसी भी और देश के मुकाबले सबसे ज्यादा रंगभेदी होते हैं,  मैं घरवालों की काफी चहेती थी सिर्फ इस वजह से कि मेरा रंग मेरे बड़े भाई और बहन के मुकाबले थोड़ा गोरा था. हालांकि मुझे लगता है कि मुझसे छोटे दो भाई-बहन के आने के साथ ही मेरी कद्र कम हो गई क्योंकि दोनों का रंग एंग्लो-इंडियन की तरह गोरा था. मेरी छोटी बहन की तो बचपन में घुंघराली सुनहरी लटें भी थी, जैसे अक्सर पठानों में होती हैं.

मेरी सबसे पुरानी याद अपने ऊपर छाए नीले आसमान की है, हांफने की आवाज के साथ-साथ बहुत धीमी गति के साथ आसमान के इस टुकड़े का फ्रेम बदलता जा रहा था. साथ में थी पसीने की गंध और मेरी पीठ किसी कठोर सतह पर टिकी थी. मैंने अपने पिता से जब यह बात की तो उन्होंने अंदाज़ा लगाया कि शायद यह 1914  में नैनीताल जाते समय की बात होगी, जब मुझे एक कुली कंधे पर बंधी बेंत की टोकरी में ले गया. उन दिनों बसें नहीं चला करती थी. आपको पहले तांगे या घोड़ा गाड़ी पर चढ़ाई करनी पड़ती थी, यात्रा का अंतिम हिस्सा घोड़े की पीठ पर करना होता था. बच्चे बेंत की टोकरियों पर बैठा कर ले जाए जाते थे.


(जारी)

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

इतिहास कैसे गढ़ता है व्यक्तित्व..अच्छा लगा पढ़कर..स्वास्थ्य हेतु शुभकामनायें।