४.
पहन के जिस्म
भटकतीं मजाज़ की
नज़्में
बता रही हैं कि
दरपन के सामने हूँ मैं!
अजीब हाल है
लरजाँ हैं दस्त-ओ-पा मेरे
कि आज नन्ही
पुजारिन के सामने हूँ मैं!!
यही व’ नन्ही
पुजारिन है जिसकी पलकों में
दिखी थी नींद भी
मासूमियत में लिपटी हुई!
कि जिनमें
तितलियों के पर पे इक जहान था कल
गुलों के रंग की
दुनिया थी एक सिमटी हुई!!
मैं उसकी तेज़
निगाहों की सीध में हूँ खड़ा
कि जैसे मौजे
तलातुम की ज़द पे साहिल हो!
सफ़ीने जिसकी तरफ़
बढ़ रहे हों सहमे हुए
सदायेफ़र्ज़ जिनकी
ख़ामुशी में शामिल हो!!
खड़ी है तन को वह
सीने पे हाथ बांधे हुए
कि जैसे मुल्क
की अस्मत खड़ी हो बिफरी हुई!
अभी भी माथ का
टीका है उसके चन्दन का
तनी-तनी हैं भवें
और ज़ुल्फ़ बिखरी हुई!!
वही है सन्दली
सूरत, बदन है निखरा हुआ
वही है नन्ही
पुजारिन जवान होती हुई!
दिखी है पहले
पहल ज़िन्दगी में आज मुझे
ज़मीन ख़ुद ही
यहाँ आसमान होती हुई!!
व’ कह रही है –
मेरे शायर-ए-शबाब तुझे
क़सम है कौम की
इज्ज़त की और अस्मत की!
कलम से काम न
चलता दिखे तो आग लगा
क़सम है प्यार की
तुझको क़सम मोहब्बत की!!
व’ प्यार, प्यार
नहीं जो कि जिस्मगोई में
सिमट के बह्र
कतरे में बदलता है यहाँ!
उसे तू भूल के
रुतबा न दे मोहब्बत का
जो कारोबार की
मानिंद चलता है यहाँ!!
वो होंट जिनको
तेरे होंट छू गए होंगे
ग़लीज़ प्यार के
नगमे न उनसे फूटेंगे!
वो तार जिनसे
तेरी सांस जुड़ गयी होगी
वो तार बिजलियों
के हाथ से न टूटेंगे!!
जो इसके बरखिलाफ़
और कुछ हुआ साबित
वफ़ा के नाम से
नफ़रत करेगी यह दुनिया!
दिलों के
दरमियान गर खुदा भी आया तो
ख़ुदा के नाम से
नफ़रत करेगी यह दुनिया!!
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