एक
लाख लोग ग़लत नहीं हो सकते
-संजय
चतुर्वेदी
इस
अखबार की एक लाख प्रतियाँ बिकती हैं
एक
लाख लोगों के घर में नहीं खाने को
एक
लाख लोगों के पास घर नहीं है
एक
लाख लोग
सुकरात
से प्रभावित थे
एक
लाख लोग
रात
को मुर्गा खाते हैं
एक
लाख लोगों की
किसी
ने सुनी नहीं
एक
लाख लोग
किसी
से कुछ कहना ही नहीं चाहते थे
भूकम्पों
के इतिहास में
एक
लाख लोग दब गए
नागासाकी
के विस्फोट में
एक
लाख लोग ख़त्म हो गए
एक
लाख लोग
क्रांति में हुतात्मा हुए
एक
लाख लोग
साम्यवादी
चीन से भागे
एक
लाख लोगों को लगा था
यह
लड़ाई तो अंतिम लड़ाई है
एक
लाख लोग
खोज
और अन्वेषण में लापता हो गए
एक
लाख लोगों को
ईश्वर
के दर्शन हुए
एक
लाख लोग
मार्लिन
मुनरो से शादी करना चाहते थे
स्तालिन
के निर्माण में
एक
लाख लोग काम आए
निक्सन
के बाज़ार में
एक
लाख लोग ख़र्च हुए
एक
लाख लोगों के नाम की सूची इसलिए खो गयी
कि
उनके कोई राजनीतिक विचार नहीं थे
एक
लाख लोग बाबरी मस्जिद को
बर्बर
आक्रमण का प्रतीक मानते थे
एक
लाख लोग
उसे
गिराए जाने को ऐसा मानते हैं
एक
लाख लोग
जातिगत
आरक्षण को प्रगतिशीलता मानते हैं
एक
लाख लोग
उसे
समाप्त करने को ऐसा मानेंगे
एक
लाख लोगों ने
अमेज़न
के जंगल काटे
एक
लाख लोग
उनसे
पहले वहां रहते थे
एक
लाख लोग ज़िंदा हैं
और
अपने खोजे जाने का इंतज़ार कर रहे हैं
एक
लाख लोग
पोलियो
से लंगड़ाते हैं
एक
लाख लोगों की
दाढ़ी
में तिनका
एक
लाख लोगों ने
गणतंत्र
दिवस की परेड देखी
एक
लाख लोग
बिना
कारण बीस साल से जेल में हैं
एक
लाख लोग
अपनी
बीवी-बच्चों से दूर हैं
एक
लाख लोग
इस
महीने रिटायर हो जाएंगे
एक
लाख लोगों का
दुनिया
में कोई नहीं
एक
लाख लोगों ने
अपनी
आँखों के सामने अपने सपने तोड़ दिए
एक
लाख लोग
ज़मीन
पर अपना हक़ लेना चाहते थे
एक
लाख लोग
समुद्रों
के रास्ते से पहुंचे
एक
लाख लोगों ने
एक
लाख लोगों पर हमला किया
एक
लाख लोगों ने
एक
लाख लोगों को मारा.
(प्रकाशन
– जनसत्ता में, १९९१)
8 comments:
मुझे लगता है की मैंने आज तक ऐसी कविता नहीं पढ़ी . कल ही हॉस्पिटल से आया , आज करीब दो महीने बाद कुछ खोजने चला तो ये कविता मिली. कबाडखाना हमेशा से ही मेरा प्रिय ब्लॉग रहा है . लेकिन आज इस कविता ने मन हिलाकर रखा दिया ... सोचता हूँ. मैं भी एक पंक्ति लिख दूं. एक लाख लोग जीने से पहले ही मर गए . एक लाख लोगो ने दुसरे एक लाख लोगो का हक छीना . और अंत में हमेशा से ही एक लाख लोगो ने कई लाख लोगो पर हुकूमत की. एक लाख बच्चे दुसरे एक लाख लोगो को पिज़्ज़ा खाते हुए देखते है ... बहुत कुछ लिखने का मन हो रहा है .. बहुत कुछ दबा हुआ है ..मन में . आत्मा में .. इस कविता ने मानो शब्द दे दिए .. एक लाख विजय दफ़न है मेरे एक अकेले में ....अंत नहीं नहीं इस कविता का . ..
सलाम काबुल करे.
विजय
यही तो होता आया है और होता रहेगा..
कमाल की कवितायेँ हैं संजय चतुर्वेदी जी की ..इनसे परिचय इसी ब्लॉग द्वारा हुआ है ...अपनी तरह की अकेली कवितायेँ ....
कमाल की कवितायेँ हैं संजय चतुर्वेदी जी की ...इनसे परिचय इसी ब्लॉग द्वारा हुआ है ...अपनी तरह की अकेली कवितायेँ..
ek bindu per dhyan akarshit karunga.. is kavita ka rachnakal warsh 1991 bataya h.. jabki kavita me babri maszid k giraye jane ka sandarbh h yani 1992.. so plz check if the publishing year is right..
ध्यान दिलाने का शुक्रिया भास्कर जी. प्रकाशन का वर्ष भी सही है और बाबरी मस्ज़िद के तोड़े जाने की इमेज भी. इस बारे में कवि श्री संजय चतुर्वेदी से मेरी बातचीत हुई है. वे जल्द ही इस पर आपको अपने विचार बताएंगे.
प्रतिकृया का आभार भास्कर जी। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से ही बाबरी मस्जिद पर यह बहस हमारे सार्वजानिक जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। 1990 में उसे लगभग गिरा ही दिया गया था। सभी संभावनाओं पर हर तरह के शोर से माहौल भर गया था। वही सन्दर्भ एक जगह कविता में आता है। इस लम्बी कविता का आंशिक रूप जनसत्ता 1991 में छपा था।
. संजय चतुर्वेदी
प्रतिकृया का आभार भास्कर जी। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से ही बाबरी मस्जिद पर यह बहस हमारे सार्वजानिक जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। 1990 में उसे लगभग गिरा ही दिया गया था। सभी संभावनाओं पर हर तरह के शोर से माहौल भर गया था। वही सन्दर्भ एक जगह कविता में आता है। इस लम्बी कविता का आंशिक रूप जनसत्ता 1991 में छपा था।
. संजय चतुर्वेदी
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