बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
-'मजाज़' लखनवी
बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बादल,
बिजली, रैन अंधियारी,
दुख
की मारी परजा सारी
बूढ़े़,
बच्चे सब दुखिया हैं,
दुखिया नर हैं, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है,
सब बनिये हैं सब व्यापारी
बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
कलजुग में जग के रखवाले
चांदी वाले
सोने वाले,
देसी हों या परदेसी हों,
नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन
करते ढूंढे
हैं मकड़ी के जाले,
बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
क्या अफरंगी,
क्या तातारी,
आँख बची और बरछी मारी!
कब तक जनता की बेचैनी,
कब तक जनता की बेजारी,
कब तक सरमाए के धंदे,
कब तक यह सरमायादारी,
बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
नामी और मशहूर नहीं हम,
लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोखा और मज़दूरों को दें,
ऐसे तो मज़बूर नहीं हम,
मंज़िल अपने पाँव के नीचे,
मंज़िल से अब दूर नहीं हम,
बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
बोल कि तेरी खिदमत की है,
बोल कि तेरा काम किया है,
बोल कि तेरे फल खाये हैं,
बोल कि तेरा दूध पिया है,
बोल कि हमने हश्र उठाया,
बोल कि हमसे हश्र उठा है,
बोल कि हमसे जागी दुनिया
बोल कि हमसे जागी धरती
बोल! अरी,
ओ धरती बोल!
राज सिंहासन डाँवाडोल!
1 comment:
आज के सन्दर्भ में बेहद सटीक कविता.
Post a Comment