Monday, July 29, 2013

वाकई ये शर्म का पर्दा है या डर का

क्या ज़मीर ही मार गिराया
   
-शिवप्रसाद जोशी

बटला हाउस एनकाउंटर फ़र्ज़ी नहीं था. दिल्ली की एक अदालत ने कह दिया है. उसके बाद हिंदी बेल्ट के अखबारों ने समवेत गर्जना के साथ हमें बता दिया है कि देखो कुछ भी फ़र्ज़ी  नहीं था.

किसने कहा फ़र्ज़ी था सब कुछ. मौतें तो वास्तविक थीं. पकड़े भी वास्तविक लोग ही गए, साबुत जीते जागते इंसान. यातनाएं वास्तविक थीं और अब जो क्षोभ भय, सन्नाटे और आशंका के साथ जामियानगर और लोगों के ज़ेहन में है वो भी वास्तविक है. क्या वे सब लोग जो घटना के दूसरे पहलू के बारे में सोच रहे हैं और ये मानने को तैयार नहीं हो पा रहे हैं कि बटला का सच आ चुका, क्या वे सब झूठे और फ़र्ज़ी और देश और क़ौम के गद्दार हैं.   

दाद देनी होगी जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के उन अध्यापकों की जिन्होंने एक आंदोलन की शक्ल देते हुए इस कांड से जुड़े कई सवाल खड़े किए और बताया कि पकड़े गए नौजवान क्यों बेक़सूर हैं. मनीषा सेठी इस आंदोलन को लीड कर रही हैं. जामिया के शिक्षक एकजुट हैं. और देरसबेर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में वर्षों की नाइंसाफ़ी का कोई जवाब मिल ही जाना है. क्या अभूतपूर्व आंदोलन है. लेकिन मीडिया को न जाने ये अनयूज़्अल स्टोरीज़ क्यों नहीं दिखती. उसका काम शायद सतह की हरकतों से चल जाता है. अंडर करेंट्स हमेशा से कितनी तीव्र बहती रही हैं.

उस धैर्य और उस इंतज़ार और उस हौसले की दाद देनी चाहिए जो कोर्टों से जेनुइन फ़ैसला आने की राह देखता है. उस समय तक क़ायम रहता है. जर्जर हो जाता है लेकिन धूल में नहीं मिल जाता. वो न जाने किस मिट्टी की किस क़िस्म की बुलंदी में हिलता रहता है. गिरता नहीं. हालांकि ये भी क्या कम बड़ा दर्द नहीं कि कोर्ट की एक बहुत लंबी और जटिल प्रक्रिया में धकेल दिया जाना हो ही रहा है. कई बार तो वो मौक़ा भी नहीं आता.  

दाद लखनऊ के रिहाई मंच के उस आंदोलन की भी देनी होगी जो अनथक संघर्ष और लगभग साधना की तरह बेगुनाहों के लिए डटा हुआ है और जिसे अब मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्ल और सोशल शूरवीरों का समर्थन भी मिल रहा है.

एक टीवी चैनल में डे प्लैन बनाने वालों को इधर एक प्रस्तावित रिपोर्ट का विचार कुछ यूं आया कि एक मुसलमान नेता आईएम को 2002 के दंगों से जोड़ता है. दूसरा मुसलमान नेता कहता है आईएम है भी या नहीं कोई नहीं जानता, तीसरा मुसलमान नेता कहता है आईएम आईबी की सामरिक उपज है, उसी की रणनीति का हिस्सा है. इस पर ख़बर करनी चाहिए कि आख़िर आईएम का रहस्य क्या है.

बिल्कुल करनी चाहिए. लेकिन ख़बर के लिए ये बात आप मुसलमान नेताओं से क्यों कहलवा रहे हैं. वे ही क्यों बोल रहे हैं. बाकी लोग कहां गए. ख़बर ये भी करनी चाहिए. ख़बर, तहलका में 2008 में हुई वरिष्ठ पत्रकार अजीत शाही की रिपोर्टिंग को आगे बढ़ाती हुई बेशक की जानी चाहिए. पर कितनों को याद हैं वे थरथरा देने वाली रिपोर्टें. अब सिमी के बदले आईएम क्यों हैं. अजीत शाही ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो सोशल एक्टिविस्ट नहीं है, उनका काम है सच को सामने लाना. छानबीन करना. वही उन्होंने किया. कितने टीवी और अखबारी रिपोर्टर ये कर पा रहे हैं. उन्हें किसने रोका है. वे रुके ही क्यों हैं. 

अब जबकि दूसरी कई मुठभेड़ों की सच्चाइयां सामने आने लगी हैं. अचानक एक उजाला फूट गया है और जांच एजेंसी को अपनी धूल झाड़ने की याद हो आई है, जिस भी वजह से जैसे भी, लेकिन जिन्हें नहीं पता था वे हैरत और अफ़सोस और सवाल के साथ देख तो पा रहे हैं. चिंहुक कर उठ बैठे भी कई लोग हैं. निर्दोषों के लिए लड़ने और संदिग्ध गिरफ़्तारियों और आरोपों के बारे में अलग पक्ष रखने का जोखिम उठाने का काम रिहाई मंच, पीयूसीएल, कुछेक जनवादी संगठन तो भरसक करते ही आ रहे हैं, ये काम अब ज़रा हिंदी बेल्ट की अलग अलग बौद्धिक हरीतिमाओं में सक्रिय प्रगतिशीलों को भी करना पड़ेगा. वे इस बात से डरना बंद करें कि आलोचना ज़रा घर तक पहुंच जाएं तब करते हैं. देन एंड देयर की घड़ी है. आज नहीं आई है. वहीं थी. उसकी टिकटिक को अनसुना कर आना जाना कर रहे थे, बस. सेक्युलरिज़्म के लिए ये एक बहुत नाज़ुक और अलार्मिंग वक़्त है. उसे कथित बहसों और विवादों में घसीटने की कोशिश की जा रही है. उसका मखौल उड़ाया जाता है. उसे ऐसे चिंहित किया जाता है जैसे वो देशद्रोहनुमा हरकत हो या कोई आधुनिक फ़ैशन तरतीब. इस तरह मनुष्यता के लिए जगह कम की जा रही है. नाना ढंग से ये काम किया जा रहा है. घोषित अघोषित हिंसाओं से लेकर भाषणों, कविता कहानियों और फ़िल्मों तक. मुख्यधारा को क़ातिल रौंद रहे हैं. और हमारे प्रगतिशील किनारे किनारे बाट लगे हैं. उन पर वाकई ये शर्म का पर्दा है या डर का. या इसे नियति मान लिया गया है.