मतदाता
-संजय चतुर्वेदी
मैं टैगोर के बारे में कुछ विचार
रखता था
लेकिन अब नहीं रखता
क्योंकि इससे बंगालियों की भावनाओं
को ठेस पहुंचती
ईसाई दुनिया में इतने मजबूत और
खाते-पीते थे
कि बिना ठेस के भी चोट कर सकते
थे
इसलिए ईसा के बारे में सोचना बंद
कर दिया
मुहम्मद साहब इस्लाम के अलावा
एक ऐतिहासिक व्यक्ति भी थे
लेकिन मुसलमान उनपर इस कदर काबिज़
थे
कि मुहम्मद साहब के बारे में सोचना
बंद कर दिया
मैं सोचना चाहता था
लेकिन मैं नहीं सोचता था
मैं सोचता था कि सोचना और जीना
एक चीज है
लेकिन सोचने से जीवन को ठेस पहुंचने
की संभावना थी
मैं वर्ण व्यवस्था के बारे में
सोचना चाहता था
मैं सभी संतों को ब्राह्मण,
द्रष्टाओं को ऋषि
कारीगरों,
कलावंतों, मेहनतकशों को द्विज मानता था
लेकिन ब्राह्मणों के नाम पर ऐसे
बहुत से कलंक थे
जिन्हें इन बातों से ठेस पहुंचती
मैं अंबेडकर के बारे में सोचना
चाहता था
लेकिन उनकी मूर्तियों के बारे में
भी
और उन जमीनों के बारे में भी जिन
पर वे स्थित थीं
मैं खुशवंत सिंह और शोभा डे जैसी
फ़ितरतों के बारे में
कुछ निश्चित विचार रखता था
लेकिन ऐसे लोग भी दुनिया में काफ़ी
थे
और ठेस लग सकती थी
मैं संजय गांधी और संजय सिंह जैसे
लोगों के बारे में भी
कभी-कभी सोचता था
लेकिन इससे युवक कांग्रेस
और इसी तरह के अन्य तत्वों को ठेस
पहुंचती
मैं दस्युरानियों,
दस्युराजाओं
और उनके द्वारा मारे गए लोगों की
आत्माओं के बारे में सोचता था
मैं हत्यारों और उनके कलादलालों
के बारे में सोचना चाहता था
लेकिन इससे कला की स्वायत्तता को
ठेस पहुंचती
मैं प्रॉपर्टी डीलर्स के बारे में
सोचता था जो इस देश के हाकिम थे
मैं असरदार लोगों के बारे में सोचता
कभी उनके मानव अधिकारों
कभी उनकी अग्रिम ज़मानतों के बारे
में
जैसे असरदार होना
आजीवन पाप की अग्रिम ज़मानत हो
लेकिन मैं किस-किस के बारे में
सोचता
मैं हिटलर और नागासाकी के बारे
में एक साथ सोचना चाहता था
स्तालिन और निक्सन के बारे में
भी
लेकिन मैं जानता था
जो हिटलर के बारे में सोचते हैं
वे नागासाकी के बारे में नहीं सोचते
हालांकि मैं यह भी जानता था
नागासाकी या विएतनाम
अमेरिका के निजी मामले नहीं थे
और यह भी कि दोनों जगह
गिनती को बेमतलब कर देने वाली तादाद
में
निर्दोष नागरिकों को मारा गया
धीरे-धीरे सभी महत्वपूर्ण विषयों
पर
लफंगों का कब्जा होता जा रहा था
यह अपराधियों के बारे में सोचने
का समय था
हरामकारों के बारे में
हम उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा
सकते थे
और वे हमारी ज़िन्दगी को ठेस पहुंचा
रहे थे
मैं वोट देना चाहता था
लेकिन किसी निशान पर मुहर लगा देने
से
मेरे मत का पता नहीं चलता
मैं हुल्लड़,
कीर्तन, रतजगों और सपनों में ख़लल देती अज़ानों से
तंग आ चुका था
मैं चाहता था सोचूं
और नहीं सोचता था
सोचना और बोलना एक चीज़ होती
मैं हिंदू जीवन जीने की कोशिश करता
था
लेकिन उससे किसी हिंदू परिषद को
कोई तकलीफ़ हो सकती थी
बस समाज में अभी जगह थी
कि मैं कालिदास और सूरदास के बारे
में सोच सकता था
पीपल,
यमुना और हिमालय के बारे में
अपने विचार रख सकता था
और गैलीलियो पर स्वतंत्र रूप से
बोल सकता था
उससे किसी भड़ुए को कोई मतलब नहीं
था
मैं संविधान और न्यायपालिका के
बारे में सोचना चाहता था
लेकिन मैं नहीं सोचता था
मैं राजनैतिक रूप से सही होना चाहता
था
लेकिन मैं पाता था कि ऐसा करते-करते
मैं इंसानी रूप से ग़लत होता जा
रहा हूं.
(इण्डिया टुडे की साहित्य वार्षिकी १९९५ में प्रकाशित)
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