Tuesday, July 9, 2013

पहन के जिस्म भटकतीं मजाज़ की नज़्में – ५ - शलभ श्रीराम सिंह

५.

पहन      के        जिस्म
भटकतीं मजाज़ की नज़्में
बता रही हैं बगावत ज़बान खोलेगी!
य’ जौर-ओ-ज़ुल्म-ओ-सितम जब्र-ओ-जिना की हद है
ज़मीर चुप न रहेंगे, ज़मीन डोलेगी!!

रहे-ख़िरद में दरिंदों की गश्त जारी है
लहू की राह सियासत को रास आने लगी!
सफ़ीर-ए-अमन-ओ-अहिंसा की झुक गयी आँखें
हयात मौत के दामन में सर छुपाने लगी!!

वनों की आह शह्र-शह्र चल रही है जो
उगी हुई है दिशाओं में तेज़ खंजर सी!
जिसे न ख़ुद की ख़बर है न दीन-दुनिया की
व’ ख़ुद में महव है ख़ुद ही खुदी के मंज़र सी!!

यही है तीसरी दुनिया का वह बुत-ए-तस्कीन
तलाश जिसको है तेरी कि उसका आब है तू!
खड़े हैं घेर के लाखों सवाल आज उसे
जवाब बन के खडा हो सही जवाब है तू!!

पहन      के        जिस्म
भटकतीं मजाज़ की नज़्में
कि जैस कुहरे के भीतर लवें दमकती हों!
कि जैसे नीम शब की तीरगी के आँचल में

बरसते नूर की बूँदें कहीं चमकती हों!!

3 comments:

shashi purwar said...

बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (10-07-2013) के .. !! निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....!१३०२ ,बुधवारीय चर्चा मंच अंक-१३०२ पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार

ANULATA RAJ NAIR said...

बेहद खूबसूरत....

शुक्रिया
अनु

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...