Tuesday, July 9, 2013

अवाम का तो कुछ भी क्या इसमें बिगड़ना है


साहित्य अकादमी की कशमकश

-संजय चतुर्वेदी

सभी प्रकार के ग़ैर मार्क्सवादी काम करने के लिए
साहित्य के प्रभुदलालों को
बीच-बीच में मार्क्सवाद की ज़रुरत पड़ती थी
अज़ीम विचार और अज़ीम शख्सियत की आड़ में
करना चाहते थे गड़बड़

जो सोते भी वहीं थे
वे फेंके जाने लगे अटरिया से
उखड़ने लगा जब उनका लश्कर
ख़तरा बढ़ा बस इतना
कि जो ग़ैर मार्क्सवादी और ग़ैर साहित्यिक काम
मार्क्सवादी सोज़ोगुदाज़ के पीछे चल रहे थे
वे अब तो हाय शायद
अगियार के हाथों से
कुछ ज़्यादा भी बेहूदा
कुछ ज़्यादा ही भद्दे हों

अपना तो सोचना है
अवाम का तो कुछ भी
क्या इसमें बिगड़ना है
तिड़बिड़ जो हुआ लश्कर 
तो उनको लगी ठोकर
अपने प्रपंच को जो,
संघर्ष का इमामा 
पहनाना चाहते हैं.

('कल के लिए' के अक्टूबर २००४-मार्च २००५ अंक में प्रकाशित)

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