वरिष्ठ पत्रकार कुमार
प्रशांत का यह आलेख बीती २० अगस्त को ‘अमर उजाला’ के सम्पादकीय पन्ने पर छपा था.
कबाड़ख़ाना के पाठकों के लिए इस ज़रूरी आर्टिकल को यहाँ लगा रहा हूँ –
राहुल द्रविड़ की सुनो!
राहुल द्रविड़ जब तक अपना
बल्ला उठाए क्रिकेट मैदान में खडे़ थे, दुनिया भर के बॉलर उनकी सुनते थे! अब जब उन्होंने बल्ला धर
दिया है और क्रिकेट के माध्यम से कई तरह के सवालों पर अपनी बात कहने लगे हैं,
तो दुनिया उन्हें सुन रही है. वह जिस संजीदगी से खेलते थे, उसी संजीदगी से अपनी बातें भी कहते हैं. संजीदगी एक ऐसा गुण है, जिसके मुरीद कम ही होते हैं, लेकिन संजीदगी आपको ऐसी
ताकत देती है कि कम ही आपको हलके में लेते हैं. इसलिए राहुल की संजीदगी को भले ही
सचिन जैसा प्रचार नहीं मिला, लेकिन आज भी आंकड़े बताते हैं कि
राहुल और सचिन एक ही स्तर के क्रिकेटर थे. राहुल शायद ज्यादा बड़े थे, क्योंकि उन्होंने टीम की हर जरूरत को पूरा करने में जिस तरह खुद को झोंक
दिया, वैसा करने वाले खिलाड़ी गिनती के भी नहीं हैं हमारे
यहां.
आज राहुल जिस भूमिका में
दिखाई दे रहे हैं, वैसी भूमिका
निभाते हमने दूसरे किसी खिलाड़ी को नहीं देखा. इसलिए जब उन्होंने कहा कि क्रिकेट
के भारतीय प्रशासकों को भूलना नहीं चाहिए कि विश्वसनीयता खोकर वे रुपया भले ही कमा
लें, क्रिकेट के लिए सम्मान नहीं कमा सकेंगे, तो सब ओर खामोशी छा गई. वह आगे बोले, ... और
स्टेडियम में बैठा या टीवी/ रेडियो से चिपका हुआ यह जो आम दर्शक है हमारा, अगर उसने खिलाड़ियों-अधिकारियों पर से विश्वास खो दिया, तो न हम कहीं के रहेंगे और न क्रिकेट! राहुल की बात ठीक वैसे ही निशाने पर
लगी, जैसे उनके लेग-कट लगते थे- दिखी भी नहीं और बॉल बाउंड्री
पार!
राहुल ने जो कहा, उसका ताजा संदर्भ आईपीएल का वह
सारा घपला है, जिसने हमें और सारे क्रिकेट को शर्मसार कर
छोड़ा है. यह और भी ध्यान देने की बात है कि मैच-फिक्सिंग के सारे अपराधी आईपीएल
की उसी टीम के थे, जिसकी कप्तानी राहुल द्रविड़ कर रहे थे.
मतलब उन्होंने जो कहा, उसमें उनकी निजी पीड़ा भी शामिल है!
राहुल की बातों का दूसरा संदर्भ था, हमारे क्रिकेट की सबसे
बड़ी रसूख वाली संस्था बीसीसीआई के भीतर मची अंधेरगर्दी. भारतीय क्रिकेट टीम के
मायावी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी, बीसीसीआई के अध्यक्ष एन
श्रीनिवासन, उनके दामाद गुरुनाथ मैयप्पन और उनकी बंधुआ मजदूर
सी कमेटी ने पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट के साथ जैसा शर्मनाक व्यवहार किया,
उसके बाद राहुल जैसे कद वाले किसी खिलाड़ी का कुछ कहना बहुत जरूरी
था. मगर सचिन, सौरव या कुंबले ने इस पर कभी कुछ नहीं कहा.
अच्छा या फिर बहुत अच्छा खिलाड़ी होना एक बात है और एक अच्छा, मजबूत इन्सान होना दूसरी बात. राहुल में यह दूसरी बात है.
जब लॉर्ड्स के क्रिकेट
अधिकारियों ने अपने विशेष आख्यान के लिए राहुल को वहां बुलाया था, तब भी उन्होंने जो कुछ कहा था,
उसका लब्बोलुआब यही था कि क्रिकेट को बाजारू बनाकर लोकप्रिय बनाने
से अच्छा होगा कि हम इसे खेल ही रहने दें. हम जानते हैं कि कोई सुनील गावस्कर या
रवि शास्त्री नहीं आएंगे राहुल द्रविड़ के समर्थन में, क्योंकि
क्रिकेट हर बाजारू संस्करणों से पैसा कमाने की कला इन्हें आती है. लेकिन राहुल ने
चुप्पी नहीं साधी और मैच फिक्सिंग के आरोपियों के खिलाफ सारी कार्रवाइयों में
अधिकारियों का साथ दिया. उनकी टीम में यह सब हो रहा था और कप्तान राहुल को इसकी
भनक तक नहीं लगी, यह उनकी विफलता थी. इसलिए राहुल ने उसकी
जिम्मेदारी ली और अदालत में गवाही देने को भी तैयार रहे.
मगर धोनी ने क्या किया? श्रीनिवासन-प्रकरण के तुरंत
बाद चैंपियंस ट्रॉफी के लिए जाती भारतीय टीम की प्रेस कांफ्रेंस में वह गूंगे
पुतले की तरह बैठे रहे! धोनी जितना नाम और नामा कमा लें और भारत के कप्तान बने
रहें, लेकिन वह कभी इसलिए याद नहीं किए जाएंगे कि उन्होंने
भारतीय क्रिकेट में नैतिकता के स्तर को संभालने का काम भी किया. राहुल को इसका
श्रेय मिलेगा. वह जब यह कहते हैं कि क्रिकेट ने उन्हें बेहतर इन्सान बनाया,
तब वह इसी तरफ हमारा ध्यान खींच रहे थे कि खेल का मतलब खुद्दारी से
खेलना और जीना तथा खुद्दारी से खेले गए खेल के बाद का खेल खेलना भी होता है.
खेल में पैसा हो या पैसों का
खेल हो? सवाल बहुत
उलझ जाता है जब आप यह भूल जाते हैं कि खेल आनंद उठाने की आदमी की वह स्वाभाविक
प्रवृत्ति है, जिसका कोई मोल नहीं. अनमोल है वह. आज हम जिसका
मोल लगाते हैं, वह खेल नहीं, खेल से
बनाया गया वह बाजार है, जो हर चीज की कीमत तो लगाता है,
पर मूल्य किसी का भी नहीं जानता. इसलिए टूर द फ्रांस का
आर्मस्ट्रांग इतनी जीतों के बाद बताता है कि उसका सारा कमाल उत्तेजक दवाओं के बल
पर था. टाइगर वुड्स के पतन की जड़ भी राहुल द्रविड़ की बातों में खोजी जा सकती है.
अभी फॉर्मूला वन के मालिक एक्लेस्टॉन को 4.4 करोड़ डॉलर की
घूस खिलाने के आरोप में पकड़ा गया है. टेनिस की दुनिया की कितनी ही कहानियां हमने
सुनी हैं. आईपीएल के साथ क्रिकेट के मैदान में कितने ऐसे लोग उतर आए हैं, जिनका खेल से नहीं, बल्कि उससे होने वाली कमाई से
रिश्ता होता है. इस तरह खेल अपनी आत्मा खोते जाते हैं और अंतत: ड्रग्स, फिक्सिंग, बेईमानी, सेक्स और
नशे की अंधेरी दुनिया में खो जाते हैं.
खेलों के व्यापार का यह
भयावह चेहरा है, जिसकी तरफ
राहुल द्रविड़ ने हमारा ध्यान खींचा है. हम राहुल के चेहरे में अपना चेहरा खोजें,
तो शायद आदमी बनने के करीब पहुंच सकेंगे.
आज राहुल जिस भूमिका में
दिखाई दे रहे हैं, वैसी भूमिका
निभाते हमने दूसरे किसी खिलाड़ी को नहीं देखा. इसलिए जब उन्होंने कहा कि क्रिकेट
के भारतीय प्रशासकों को भूलना नहीं चाहिए कि विश्वसनीयता खोकर वे रुपया भले ही कमा
लें, क्रिकेट के लिए सम्मान नहीं कमा सकेंगे, तो सब ओर खामोशी छा गई.