Saturday, August 31, 2013

राहुल द्रविड़ में वह दूसरी बात है


वरिष्ठ पत्रकार कुमार प्रशांत का यह आलेख बीती २० अगस्त को ‘अमर उजाला’ के सम्पादकीय पन्ने पर छपा था. कबाड़ख़ाना के पाठकों के लिए इस ज़रूरी आर्टिकल को यहाँ लगा रहा हूँ –

राहुल द्रविड़ की सुनो!

राहुल द्रविड़ जब तक अपना बल्ला उठाए क्रिकेट मैदान में खडे़ थे, दुनिया भर के बॉलर उनकी सुनते थे! अब जब उन्होंने बल्ला धर दिया है और क्रिकेट के माध्यम से कई तरह के सवालों पर अपनी बात कहने लगे हैं, तो दुनिया उन्हें सुन रही है. वह जिस संजीदगी से खेलते थे, उसी संजीदगी से अपनी बातें भी कहते हैं. संजीदगी एक ऐसा गुण है, जिसके मुरीद कम ही होते हैं, लेकिन संजीदगी आपको ऐसी ताकत देती है कि कम ही आपको हलके में लेते हैं. इसलिए राहुल की संजीदगी को भले ही सचिन जैसा प्रचार नहीं मिला, लेकिन आज भी आंकड़े बताते हैं कि राहुल और सचिन एक ही स्तर के क्रिकेटर थे. राहुल शायद ज्यादा बड़े थे, क्योंकि उन्होंने टीम की हर जरूरत को पूरा करने में जिस तरह खुद को झोंक दिया, वैसा करने वाले खिलाड़ी गिनती के भी नहीं हैं हमारे यहां.

आज राहुल जिस भूमिका में दिखाई दे रहे हैं, वैसी भूमिका निभाते हमने दूसरे किसी खिलाड़ी को नहीं देखा. इसलिए जब उन्होंने कहा कि क्रिकेट के भारतीय प्रशासकों को भूलना नहीं चाहिए कि विश्वसनीयता खोकर वे रुपया भले ही कमा लें, क्रिकेट के लिए सम्मान नहीं कमा सकेंगे, तो सब ओर खामोशी छा गई. वह आगे बोले, ... और स्टेडियम में बैठा या टीवी/ रेडियो से चिपका हुआ यह जो आम दर्शक है हमारा, अगर उसने खिलाड़ियों-अधिकारियों पर से विश्वास खो दिया, तो न हम कहीं के रहेंगे और न क्रिकेट! राहुल की बात ठीक वैसे ही निशाने पर लगी, जैसे उनके लेग-कट लगते थे- दिखी भी नहीं और बॉल बाउंड्री पार!

राहुल ने जो कहा, उसका ताजा संदर्भ आईपीएल का वह सारा घपला है, जिसने हमें और सारे क्रिकेट को शर्मसार कर छोड़ा है. यह और भी ध्यान देने की बात है कि मैच-फिक्सिंग के सारे अपराधी आईपीएल की उसी टीम के थे, जिसकी कप्तानी राहुल द्रविड़ कर रहे थे. मतलब उन्होंने जो कहा, उसमें उनकी निजी पीड़ा भी शामिल है! राहुल की बातों का दूसरा संदर्भ था, हमारे क्रिकेट की सबसे बड़ी रसूख वाली संस्था बीसीसीआई के भीतर मची अंधेरगर्दी. भारतीय क्रिकेट टीम के मायावी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी, बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन, उनके दामाद गुरुनाथ मैयप्पन और उनकी बंधुआ मजदूर सी कमेटी ने पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट के साथ जैसा शर्मनाक व्यवहार किया, उसके बाद राहुल जैसे कद वाले किसी खिलाड़ी का कुछ कहना बहुत जरूरी था. मगर सचिन, सौरव या कुंबले ने इस पर कभी कुछ नहीं कहा. अच्छा या फिर बहुत अच्छा खिलाड़ी होना एक बात है और एक अच्छा, मजबूत इन्सान होना दूसरी बात. राहुल में यह दूसरी बात है.

जब लॉर्ड्स के क्रिकेट अधिकारियों ने अपने विशेष आख्यान के लिए राहुल को वहां बुलाया था, तब भी उन्होंने जो कुछ कहा था, उसका लब्बोलुआब यही था कि क्रिकेट को बाजारू बनाकर लोकप्रिय बनाने से अच्छा होगा कि हम इसे खेल ही रहने दें. हम जानते हैं कि कोई सुनील गावस्कर या रवि शास्त्री नहीं आएंगे राहुल द्रविड़ के समर्थन में, क्योंकि क्रिकेट हर बाजारू संस्करणों से पैसा कमाने की कला इन्हें आती है. लेकिन राहुल ने चुप्पी नहीं साधी और मैच फिक्सिंग के आरोपियों के खिलाफ सारी कार्रवाइयों में अधिकारियों का साथ दिया. उनकी टीम में यह सब हो रहा था और कप्तान राहुल को इसकी भनक तक नहीं लगी, यह उनकी विफलता थी. इसलिए राहुल ने उसकी जिम्मेदारी ली और अदालत में गवाही देने को भी तैयार रहे.

मगर धोनी ने क्या किया? श्रीनिवासन-प्रकरण के तुरंत बाद चैंपियंस ट्रॉफी के लिए जाती भारतीय टीम की प्रेस कांफ्रेंस में वह गूंगे पुतले की तरह बैठे रहे! धोनी जितना नाम और नामा कमा लें और भारत के कप्तान बने रहें, लेकिन वह कभी इसलिए याद नहीं किए जाएंगे कि उन्होंने भारतीय क्रिकेट में नैतिकता के स्तर को संभालने का काम भी किया. राहुल को इसका श्रेय मिलेगा. वह जब यह कहते हैं कि क्रिकेट ने उन्हें बेहतर इन्सान बनाया, तब वह इसी तरफ हमारा ध्यान खींच रहे थे कि खेल का मतलब खुद्दारी से खेलना और जीना तथा खुद्दारी से खेले गए खेल के बाद का खेल खेलना भी होता है.
खेल में पैसा हो या पैसों का खेल हो? सवाल बहुत उलझ जाता है जब आप यह भूल जाते हैं कि खेल आनंद उठाने की आदमी की वह स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जिसका कोई मोल नहीं. अनमोल है वह. आज हम जिसका मोल लगाते हैं, वह खेल नहीं, खेल से बनाया गया वह बाजार है, जो हर चीज की कीमत तो लगाता है, पर मूल्य किसी का भी नहीं जानता. इसलिए टूर द फ्रांस का आर्मस्ट्रांग इतनी जीतों के बाद बताता है कि उसका सारा कमाल उत्तेजक दवाओं के बल पर था. टाइगर वुड्स के पतन की जड़ भी राहुल द्रविड़ की बातों में खोजी जा सकती है. अभी फॉर्मूला वन के मालिक एक्लेस्टॉन को 4.4 करोड़ डॉलर की घूस खिलाने के आरोप में पकड़ा गया है. टेनिस की दुनिया की कितनी ही कहानियां हमने सुनी हैं. आईपीएल के साथ क्रिकेट के मैदान में कितने ऐसे लोग उतर आए हैं, जिनका खेल से नहीं, बल्कि उससे होने वाली कमाई से रिश्ता होता है. इस तरह खेल अपनी आत्मा खोते जाते हैं और अंतत: ड्रग्स, फिक्सिंग, बेईमानी, सेक्स और नशे की अंधेरी दुनिया में खो जाते हैं.

खेलों के व्यापार का यह भयावह चेहरा है, जिसकी तरफ राहुल द्रविड़ ने हमारा ध्यान खींचा है. हम राहुल के चेहरे में अपना चेहरा खोजें, तो शायद आदमी बनने के करीब पहुंच सकेंगे.

आज राहुल जिस भूमिका में दिखाई दे रहे हैं, वैसी भूमिका निभाते हमने दूसरे किसी खिलाड़ी को नहीं देखा. इसलिए जब उन्होंने कहा कि क्रिकेट के भारतीय प्रशासकों को भूलना नहीं चाहिए कि विश्वसनीयता खोकर वे रुपया भले ही कमा लें, क्रिकेट के लिए सम्मान नहीं कमा सकेंगे, तो सब ओर खामोशी छा गई.

फिर से गैरी लार्सन - ७












मैं तो पिया से नैना लगाय आई रे


पंजाब के अमृतसर ज़िले के गाँव गुरु दी वडाली से निकले वडाली बंधुओं – पूरनचन्द और प्यारेलाल - से सुनिए यह मशहूर रचना –

पटियाला से इतना किराया लगाकर नाक काटने इधर कोई नहीं आएगा


दो नाक वाले लोग

- हरिशंकर परसाई

मैं उन्हें समझा रहा था कि लड़की की शादी में टीमटाम में व्यर्थ खर्च मत करो.

पर वे बुजुर्ग कह रहे थे - आप ठीक कहते हैं, मगर रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी.

नाक उनकी काफी लंबी थी. मेरा ख्याल है, नाक की हिफाजत सबसे ज्यादा इसी देश में होती है. और या तो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा बहुत तेज, जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है. छोटे आदमी की नाक बहुत नाजुक होती है. यह छोटा आदमी नाक को छिपाकर क्यों नहीं रखता?

कुछ बड़े आदमी, जिनकी हैसियत है, इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े का रंग चढ़वा लेते हैं. कालाबाजार में जेल हो आए हैं औरत खुलेआम दूसरे के साथ 'बाक्स' में सिनेमा देखती है, लड़की का सार्वजनिक गर्भपात हो चुका है. लोग उस्तरा लिए नाक काटने को घूम रहे हैं. मगर काटें कैसे? नाक तो स्टील की है. चेहरे पर पहले जैसी ही फिट है और शोभा बढ़ा रही है.

स्मगलिंग में पकड़े गए हैं. हथकड़ी पड़ी है. बाजार में से ले जाए जा रहे हैं. लोग नाक काटने को उत्सुक हैं. पर वे नाक को तिजोड़ी मे रखकर स्मगलिंग करने गए थे. पुलिस को खिला-पिलाकर बरी होकर लौटेंगे और फिर नाक पहन लेंगे.

जो बहुत होशियार हैं, वे नाक को तलवे में रखते हैं. तुम सारे शरीर में ढूँढ़ो, नाक ही नहीं मिलती. नातिन की उम्र की दो लड़कियों से बलात्कार कर चुके हैं. जालसाजी और बैंक को धोखा देने में पकड़े जा चुके हैं. लोग नाक काटने को उतावले हैं, पर नाक मिलती ही नहीं. वह तो तलवे में है. कोई जीवशास्त्री अगर नाक की तलाश भी कर दे तो तलवे की नाक काटने से क्या होता है? नाक तो चेहरे पर की कटे, तो कुछ मतलब होता है.

और जो लोग नाक रखते ही नहीं हैं, उन्हें तो कोई डर ही नहीं है. दो छेद हैं, जिनसे साँस ले लेते हैं.

कुछ नाकें गुलाब के पौधे की तरह होती हैं. कलम कर दो तो और अच्छी शाखा बढ़ती है और फूल भी बढ़िया लगते हैं. मैंने ऐसी फूलवाली खुशबूदार नाकें बहुत देखीं हैं. जब खुशबू कम होने लगती है, ये फिर कलम करा लेते हैं, जैसे किसी औरत को छेड़ दिया और जूते खा गए.

'जूते खा गए' अजब मुहावरा है. जूते तो मारे जाते हैं. वे खाए कैसे जाते हैं? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा जाता है.

नाक और तरह से भी बढ़ती है. एक दिन एक सज्जन आए. बड़े दुखी थे. कहने लगे - हमारी तो नाक कट गई. लड़की ने भागकर एक विजातीय से शादी कर ली. हम ब्राह्मण और लड़का कलाल! नाक कट गई.

मैंने उन्हें समझाया कि कटी नहीं है, कलम हुई है. तीन-चार महीनों में और लंबी बढ़ जाएगी.

तीन-चार महीने बाद वे मिले तो खुश थे. नाक भी पहले से लंबी हो गई थी. मैंने कहा - नाक तो पहले से लंबी मालूम होती है.

वे बोले - हाँ, कुछ बढ़ गई है. काफी लोग कहते हैं, आपने बड़ा क्रांतिकारी काम किया. कुछ बिरादरीवाले भी कहते हैं. इसलिए नाक बढ़ गई है.

कुछ लोग मैंने देखे हैं जो कई साल अपने शहर की नाक रहे हैं. उनकी नाक अगर कट जाए तो सारे शहर की नाक कट जाती है. अगर उन्हें संसद का टिकिट न मिले, तो सारा शहर नकटा हो जाता है. पर अभी मैं एक शहर गया तो लोगों ने पूछा - फलाँ साहब के क्या हाल हैं? वे इस शहर की नाक हैं. तभी एक मसखरे ने कहा - हाँ साहब, वे अभी भी शहर की नाक हैं, मगर छिनकी हुई. (यह वीभत्स रस है. रस सिद्धांत प्रेमियों को अच्छा लगेगा.)

मगर बात मैं उन सज्जन की कर रहा था जो मेरे सामने बैठे थे और लड़की की शादी पुराने ठाठ से ही करना चाहते थे. पहले वे रईस थे - याने मध्यम हैसियत के रईस. अब गरीब थे. बिगड़ा रईस और बिगड़ा घोड़ा एक तरह के होते हैं - दोनों बौखला जाते हैं. किससे उधार लेकर खा जाएँ, ठिकाना नहीं. उधर बिगड़ा घोड़ा किसे कुचल दे, ठिकाना नहीं. आदमी को बिगड़े रईस और बिगड़े घोड़े, दोनों से दूर रहना चाहिए. मैं भरसक कोशिश करता हूँ. मैं तो मस्ती से डोलते आते साँड़ को देखकर भी सड़क के किनारे की इमारत के बरामदे में चढ़ जाता हूँ - बड़े भाई साहब आ रहे हैं. इनका आदर करना चाहिए.

तो जो भूतपूर्व संपन्न बुजुर्ग मेरे सामने बैठे थे, वे प्रगतिशील थे. लड़की का अंतरजातीय विवाह कर रहे थे. वे खत्री और लड़का शुद्ध कान्यकुब्ज. वे खुशी से शादी कर रहे थे. पर उसमें विरोधाभास यह था कि शादी ठाठ से करना चाहते थे. बहुत लोग एक परंपरा से छुटकारा पा लेते हैं, पर दूसरी से बँधे रहते हैं. रात को शराब की पार्टी से किसी ईसाई दोस्त के घर आ रहे हैं, मगर रास्ते में हनुमान का मंदिर दिख जाए तो थोड़ा तिलक भी सिंदूर का लगा लेंगे. मेरा एक घोर नास्तिक मित्र था. हम घूमने निकलते तो रास्ते में मंदिर देखकर वे कह उठते - हरे राम! बाद में पछताते भी थे.

तो मैं उन बुजुर्ग को समझा रहा था - आपके पास रुपए हैं नहीं. आप कर्ज लेकर शादी का ठाठ बनाएँगे. पर कर्ज चुकाएँगे कहाँ से? जब आपने इतना नया कदम उठाया है, कि अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, तो विवाह भी नए ढंग से कीजिए. लड़का कान्यकुब्ज का है. बिरादरी में शादी करता तो कई हजार उसे मिलते. लड़के शादी के बाजार में मवेशी की तरह बिकते हैं. अच्छा मालवी बैल और हरयाणा की भैंस ऊँची कीमत पर बिकती हैं. लड़का इतना त्याग तो लड़की के प्रेम के लिए कर चुका. फिर भी वह कहता है - अदालत जाकर शादी कर लेते हैं. बाद में एक पार्टी कर देंगे. आप आर्य-समाजी हैं. घंटे भर में रास्ते में आर्यसमाज मंदिर में वैदिक रीति से शादी कर डालिए. फिर तीन-चार सौ रुपयों की एक पार्टी दे डालिए. लड़के को एक पैसा भी नहीं चाहिए. लड़की के कपड़े वगैरह मिलाकर शादी हजार में हो जाएगी.

वे कहने लगे - बात आप ठीक कहते हैं. मगर रिश्तेदारों को तो बुलाना ही पड़ेगा. फिर जब वे आएँगे तो इज्जत के ख्याल से सजावट, खाना, भेंट वगैरह देनी होगी.

मैंने कहा - आपका यहाँ तो कोई रिश्तेदार है नहीं. वे हैं कहाँ?

उन्होंने जवाब दिया - वे पंजाब में हैं. पटियाला में ही तीन करीबी रिश्तेदार हैं. कुछ दिल्ली में हैं. आगरा में हैं.

मैंने कहा - जब पटियालावाले के पास आपका निमंत्रण-पत्र पहुँचेगा, तो पहले तो वह आपको दस गालियाँ देगा - मई का यह मौसम, इतनी गर्मी. लोग तड़ातड़ लू से मर रहे हैं. ऐसे में इतना खर्च लगाकर जबलपुर जाओ. कोई बीमार हो जाए तो और मुसीबत. पटियाला या दिल्लीवाला आपका निमंत्रण पाकर खुश नहीं दुखी होगा. निमंत्रण-पत्र न मिला तो वह खुश होगा और बाद में बात बनाएगा. कहेगा - आजकल जी, डाक की इतनी गड़बड़ी हो गई है कि निमंत्रण पत्र ही नहीं मिला. वरना ऐसा हो सकता था कि हम ना आते.

मैंने फिर कहा - मैं आपसे कहता हूँ कि दूर से रिश्तेदार का निमंत्रण पत्र मुझे मिलता है, तो मैं घबरा उठता हूँ.

सोचता हूँ - जो ब्राह्मण ग्यारह रुपए में शनि को उतार दे, पच्चीस रुपयों में सगोत्र विवाह करा दे, मंगली लड़की का मंगल पंद्रह रुपयों में उठाकर शुक्र के दायरे में फेंक दे, वह लग्न सितंबर से लेकर मार्च तक सीमित क्यों नहीं कर देता? मई और जून की भयंकर गर्मी की लग्नें गोल क्यों नहीं कर देता? वह कर सकता है. और फिर ईसाई और मुसलमानों में जब बिना लग्न शादी होती है, तो क्या वर-वधू मर जाते हैं. आठ प्रकार के विवाहों में जो 'गंधर्व विवाह' है वह क्या है? वह यही शादी है जो आज होने लगा है, कि लड़का-लड़की भागकर कहीं शादी कर लेते हैं. इधर लड़की का बाप गुस्से में पुलिस में रिपोर्ट करता है कि अमुक लड़का हमारी 'नाबालिग' लड़की को भगा ले गया है. मगर कुछ नहीं होता; क्योंकि लड़की मैट्रिक का सर्टिफिकेट साथ ले जाती है जिसमें जन्म-तारीख होती है.

वे कहने लगे - नहीं जी, रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी.

मैंने कहा - पटियाला से इतना किराया लगाकर नाक काटने इधर कोई नहीं आएगा. फिर पटियाला में कटी नाक को कौन इधर देखेगा. काट लें पटियाला में.

वे थोड़ी देर गुमसुम बैठे रहे.

मैंने कहा - देखिए जी, आप चाहें तो मैं पुरोहित हो जाता हूँ और घंटे भर में शादी करा देता हूँ.

वे चौंके. कहने लगे - आपको शादी कराने की विधि आती है?

मैंने कहा - हाँ, ब्राह्मण का बेटा हूँ. बुजुर्गों ने सोचा होगा कि लड़का नालायक निकल जाए और किसी काम-धंधे के लायक न रहे, तो इसे कम से कम सत्यनारायण की कथा और विवाह विधि सिखा दो. ये मैं बचपन में ही सीख गया था.

मैंने आगे कहा - और बात यह है कि आजकल कौन संस्कृत समझता है. और पंडित क्या कह रहा है, इसे भी कौन सुनता है. वे तो 'अम' और 'अह' इतना ही जानते हैं. मैं इस तरह मंगल-श्लोक पढ़ दूँ तो भी कोई ध्यान नहीं देगा -ओम जेक एंड विल वेंट अप दी हिल टु फेच ए पेल ऑफ वाटरम, ओम जेक फेल डाउन एंड ब्रोक हिज क्राउन एंड जिल केम ट्रंबलिंग आफ्टर कुर्यात् सदा मंगलम्... इसे लोग वैदिक मंत्र समझेंगे.

वे हँसने लगे.

मैंने कहा - लड़का उत्तर प्रदेश का कान्यकुब्ज और आप पंजाब के खत्री - एक दूसरे के रिश्तेदारों को कोई नहीं जानता. आप एक सलाह मेरी मानिए. इससे कम में भी निपट जाएगा और नाक भी कटने से बच जाएगी. लड़के के पिता की मृत्यु हो चुकी है. आप घंटे भर में शादी करवा दीजिए. फिर रिश्तेदारों को चिट्ठियाँ लिखिए - 'इधर लड़के के पिता को दिल का तेज दौरा पड़ा. डाक्टरों ने उम्मीद छोड़ दी थी. दो-तीन घंटे वे किसी तरह जी सकते थे. उन्होंने इच्छा प्रकट की कि मृत्यु के पहले ही लड़के की शादी हो जाए तो मेरी आत्मा को शांति मिल जाएगी. लिहाजा उनकी भावना को देखते हुए हमने फौरन शादी कर दी. लड़का-लड़की वर-वधू के रूप में उनके सामने आए. उनसे चरणों पर सिर रखे. उन्होंने इतना ही कहा - सुखी रहो. और उनके प्राण-पखेरू उड़ गए. आप माफ करेंगे कि इसी मजबूरी के कारण हम आपको शादी में नहीं बुला सके. कौन जानता है आपके रिश्तेदारों में कि लड़के के पिता की मृत्यु कब हुई?

उन्होंने सोचा. फिर बोले - तरकीब ठीक है! पर इस तरह की धोखाधड़ी मुझे पसंद नहीं.

खैर मैं उन्हें काम का आदमी लगा नहीं.

दूसरे दिन मुझे बाहर जाना पड़ा. दो-तीन महीने बाद लौटा तो लोगों ने बताया कि उन्होंने सामान और नकद लेकर शादी कर डाली.

तीन-चार दिन बाद से ही साहूकार सवेरे से तकादा करने आने लगे.

रोज उनकी नाक थोड़ी-थोड़ी कटने लगी.

मैंने पूछा - अब क्या हाल हैं?

लोग बोले - अब साहूकार आते हैं तो यह देखकर निराश लौट जाते हैं कि काटने को नाक ही नहीं बची.

मैंने मजाक में कहा - साहूकारों से कह दो कि इनकी दूसरी नाक पटियाला में पूरी रखी है. वहाँ जाकर काट लो.


Friday, August 30, 2013

फिर से गैरी लार्सन - ६











उसके मन में चाँद चमकता बादल करते रोर - शंकर शैलेन्द्र का स्मरण


आज गीतकार शंकर शैलेन्द्र की नब्बेवीं जयंती है. उन्हें स्मरण करते हुए वीरेन डंगवाल की एक कविता और शैलेन्द्र का लिखा एक अतिप्रिय गीत –

मिष्टू का मामला
शंकर शैलेन्द्र को याद करते

-वीरेन डंगवाल

मिष्टू प्यारी बच्ची थी
लगभग चन्दनबाड़ी थी.

          उसकी थी जगमग मुस्कान
          उसके सात रंग के होंठ
          अंडर-बंडर बातें उसकी नौ रंगों की
          छः नम्बर का उसका पैर
          मेरी कक्षा में पढ़ती थी अब तो खैर
          कहीं की कहीं को गयी भी.

पढ़ने-लिखने में मंदी थी पर अक्ल की काफ़ी तेज़.

          था मिष्टू में फूलों का वास
          उसके मन में चाँद चमकता बादल करते रोर
          तड़-तड़ कभी तड़कती बिजली
कभी नाचते मोर
कभी-कभी रिमझिम बारिश की
कभी हवा उत्तप्त कठोर
हां जी हां, मैं उससे प्यार करता था.

मीता मिष्टू उखड़ा-उखड़ा अपना तो बस वही हाल है
ऊपर से जीवन के रस्ते हुए कुछ अधिक दुर्गम-बीहड़
छूटे कितने संगी-साथी डवाँडोल हो रहे हौसले
और उम्र भी ज्यों मुस्काती बाँध रही तस्मे सैंडिल के
देह-धर्म भी धीरे-धीरे बदल रहे हैं.
फिर भी बांधे गाँठ-पोटली में जिन-जिन बातों की
जिनकी लेकर टेक बढ़ा जाता हूँ मैं अब भी आगे
उन्हीं बड़ी बढ़िया बातों में प्यारी मीता
तेरे भी कितने ही, कितने ही ख़याल हैं.

तुम इक गोरखधन्धा हो



लम्बे अरसे से मुझे बाबा नुसरत की गाई इस क़व्वाली का पूरा संस्करण नहीं मिल पा रहा था. मुराद पूरी होते ही आपके सामने रखने का मन हुआ. आधे घंटे की तयशुदा मस्ती की गारंटी –


डाउनलोड लिंक - 


जनता आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर का खेल देखना चाहती है. हम दिखा रहे हैं.


भारत को चाहिए जादूगर और साधु

- हरिशंकर परसाई

हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूँ कि साल-भर में कितने बढ़े. न सोचूँ तो भी काम चलेगा - बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा. सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं.

यह 26 जनवरी 1972 फिर आ गया. यह गणतंत्र दिवस है, मगर 'गण' टूट रहे हैं. हर गणतंत्र दिवस 'गण' के टूटने या नए 'गण' बनने के आंदोलन के साथ आता है. इस बार आंध्र और तेलंगाना हैं. अगले साल इसी पावन दिवस पर कोई और 'गण' संकट आएगा.

इस पूरे साल में मैंने दो चीजें देखीं. दो तरह के लोग बढ़े - जादूगर और साधु बढ़े. मेरा अंदाज था, सामान्य आदमी के जीवन के सुभीते बढ़ेंगे - मगर नहीं. बढ़े तो जादूगर और साधु-योगी. कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या ये जादूगर और साधु 'गरीबी हटाओ' प्रोग्राम के अंतर्गत ही आ रहे हैं! क्या इसमें कोई योजना है?

रोज अखबार उठाकर देखता हूँ. दो खबरें सामने आती हैं - कोई नया जादूगर और कोई नया साधु पैदा हो गया है. उसका विज्ञापन छपता है. जादूगर आँखों पर पट्टी बाँधकर स्कूटर चलाता है और 'गरीबी हटाओ' वाली जनता कामधाम छोड़कर, तीन-चार घंटे आँखों पर पट्टी बाँधे जादू्गर को देखती हजारों की संख्या में सड़क के दोनों तरफ खड़ी रहती है. ये छोटे जादूगर हैं. इस देश में बड़े बड़े जादूगर हैं, जो छब्बीस सालों से आँखों पर पट्टी बाँधे हैं. जब वे देखते हैं कि जनता अकुला रही है और कुछ करने पर उतारू है, तो वे फौरन जादू का खेल दिखाने लगते हैं. जनता देखती है, ताली पीटती है. मैं पूछता हूँ - जादूगर साहब, आँखों पर पट्टी बाँधे राजनैतिक स्कूटर पर किधर जा रहे हो? किस दिशा को जा रहे हो - समाजवाद? खुशहाली? गरीबी हटाओ? कौन सा गंतव्य है? वे कहते हैं - गंतव्य से क्या मतलब? जनता आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर का खेल देखना चाहती है. हम दिखा रहे हैं. जनता को और क्या चाहिए?

जनता को सचमुच कुछ नहीं चाहिए. उसे जादू के खेल चाहिए. मुझे लगता है, ये दो छोटे-छोटे जादूगर रोज खेल दिखा रहे हैं, इन्होंने प्रेरणा इस देश के राजनेताओं से ग्रहण की होगी. जो छब्बीस सालों से जनता को जादू के खेल दिखाकर खुश रखे हैं, उन्हें तीन-चार घंटे खुश रखना क्या कठिन है. इसलिए अखबार में रोज फोटो देखता हूँ, किसी शहर में नए विकसित किसी जादूगर की.

सोचता हूँ, जिस देश में एकदम से इतने जादूगर पैदा हो जाएँ, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों जादू से इतनी प्रभावित है? वह क्यों चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो राशन की दुकान पर लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता, वह लाइन छोड़कर जादू के खेल देखने क्यों खड़ी रहती है?

मुझे लगता है, छब्बीस सालों में देश की जनता की मानसिकता ऐसी बना दी गई है कि जादू देखो और ताली पीटो. चमत्कार देखो और खुश रहो.

बाकी काम हम पर छोड़ो.

भारत-पाक युद्ध ऐसा ही एक जादू था. जरा बड़े स्केल का जादू था, पर था जादू ही. जनता अभी तक ताली पीट रही है.

उधर राशन की दुकान पर लाइन बढ़ती जा रही है.

देशभक्त मुझे माफ करें. पर मेरा अंदाज है, जल्दी ही एक शिमला शिखर-वार्ता और होगी. भुट्टो कहेंगे - पाकिस्तान में मेरी हालत खस्ता. अलग-अलग राज्य बनना चाह रहे हैं. गरीबी बढ़ रही है. लोग भूखे मर रहे हैं.

हमारी प्रधानमंत्री कहेंगी - इधर भी गरीबी हट नहीं रही. कीमतें बढ़ती जा रही हैं. जनता में बड़ी बेचैनी है. बेकारी बढ़ती जा रही है.

तब दोनों तय करेंगे - क्यों न पंद्रह दिनों का एक और जादू हो जाए. चार-पाँच साल दोनों देशों की जनता इस जादू के असर में रहेगी. (देशभक्त माफ करें - मगर जरा सोंचें)

जब मैं इन शहरों के इन छोटे जादूगरों के करतब देखता हूँ तो कहता हूँ - बच्चों, तुमने बड़े जादू नहीं देखे. छोटे देखे हैं तो छोटे जादू ही सीखे हो.

दूसरा कमाल इस देश में साधु है. अगर जादू से नहीं मानते और राशन की दुकान पर लाइन लगातार बढ़ रही है, तो लो, साधु लो.

जैसे जादूगरों की बाढ़ आई है, वैसे ही साधुओं की बाढ़ आई है. इन दोनों में कोई संबंध जरूर है.

साधु कहता है - शरीर मिथ्या है. आत्मा को जगाओ. उसे विश्वात्मा से मिलाओ. अपने को भूलो. अपने सच्चे स्वरूप को पहचानो. तुम सत्-चित्-आनंद हो.

आनंद ही ब्रह्म है. राशन ब्रह्म नहीं. जिसने 'अन्नं ब्रह्म' कहा था, वह झूठा था. नौसिखिया था. अंत में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रह्म है.

पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक सा है? नहीं है तो ब्रह्म एक नहीं अनेक हुए. यह शास्त्रोक्त भी है - 'एको ब्रह्म बहुस्याम.' ब्रह्म एक है पर वह कई हो जाता है. एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है.

सब ब्रह्म ही ब्रह्म है.

शक्कर में पानी डालकर जो उसे वजनदार बनाकर बेचता है, वह भी ब्रह्म है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रह्म है.

ब्रह्म, ब्रह्म को धोखा दे रहा है.

साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रह्म की तरफ ले जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या.'

26 जनवरी आते आते मैं यही सोच रहा हूँ कि 'हटाओ गरीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भुखमरी को, क्या हुआ?

बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें - जादूगर और साधु.

ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे.

भारत-भाग्य विधाता. हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ाते जाएँ.

हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरूस्थल की रेत में न छिपे'(रवींद्रनाथ) वह तो छिप गई. इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए. तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो. (जिसमें जादू्गर और साधु जनता को खुश रखें).

यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से!