Saturday, August 3, 2013

एक है ज़ोहरा - ३


(पिछली क़िस्त से आगे)

मेरी यादों में मां की छवि एक कोमल, गोरी और भरवां बदन वाली महिला की है जिनके लंबे काले बाल उनकी कमर तक पहुंचते थे, हमेशा हंसती, गाती हुई. मुझे वह रात याद है जब उनकी मौत हुई थी. उन्होंने हम सब को अपने बिस्तर के पास बुलाया और मेरी बड़ी बहन से कहा कि अब से हमारी देखभाल उन्हें करनी होगी क्योंकि वो खुद हमारे बीच नहीं रहेंगी. वो बहुत निस्तेज और बीमार दिख रही थी. उनके खूबसूरत बाल तकिए पर आभामंडल बनाते हुए से फैले थे. उन्हें खोने का दर्द भरा अहसास मेरी युवावस्था तक हमेशा बना रहा जब तक कि मैं खुद जिंदगी में पहली बार पूरी शिद्दत के साथ प्यार में डूब नहीं गई.

शुरू के उन सालों में मेरे पिता थोड़े अलग-थलग रहते थे जिनसे हमें डर सा लगता था. हमारी स्कूली पढ़ाई खत्म होने के बाद उनके तेवरों में ढिलाई आई और फिर हमने ऐसे शानदार पिता को पाया जिन्हें हम प्यार करते थे और जिन पर हमें गर्व था. उनके व्यक्तित्व की खास विशेषता थे उनके हाथ. प्राकृतिक चमक लिए नाखूनों के साथ लंबी, मजबूत अंगुलियों वाले वो हाथ बहुत सक्षम और सुरक्षा का अहसास दिलाते थे. लेकिन उनके बारे में बाकी बातें बाद में.

बचपन में मेरे हीरो हुआ करते थे मेरे मामा, डॉ. साहेबज़ादा सैद्दुज़्ज़फर खान. हमारे परिवार को पश्चिमी तौर-तरीकों से परिचित कराने का श्रेय उन्हीं को जाता है, क्योंकि उन्होंने एडिनबर्ग में सर्ज़री की पढ़ाई की थी. संपन्न होने की वजह से वह बिल्कुल नवाबी अंदाज में रहा करते थे. देहरादून में बड़े से बगीचे वाला उनका घर फ़ारसी कालीनों, चीन के बने चीनी मिट्टी से बने चाय के बर्तनों और गोल्डफिश से भरे एक तालाब से सुसज्जित था. वास्तव में अगर 1957 में हुए सैन्य विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अगर उनके दादा की हत्या नहीं की होती तो नजीबाबाद की रियासत विरासत में मामा जी को ही मिलती.

रंग-रूप, कद-काठी, पहनावा हो या उनका हंसी-मज़ाक, हर चीज़ में मामू साहेब हमारे आर्दश थे. वह जब भी हमारे घर आते थे हमारे लिए उत्सव का मौका होता था क्योंकि वो नायाब खिलौने लाते  थे, उनके चुटकुले हमें हंसा-हंसा कर लोटपोट कर दिया करते थे. लखनऊ मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल बनने वाले वह पहले भारतीय थे, बाद के सालों में मैं जितने भी सर्जनों से मिली वो मामू साहेब के छात्र रह चुके थे. मेरे लिए वह बहुत बड़े प्रेरणा स्रोत थे. उनके उदाहरण और प्रोत्साहन की वजह से ही स्कूली पढ़ाई खत्म करने के बाद जल्दी शादी करने की बजाय मैंने लिए अपने लिए एक कैरियर चुनने का फैसला किया.  मेरी पीढ़ी की सभी लड़कियों के लिए स्कूल के बाद शादी पहले से ही तय भाग्य हुआ करता था.

अपनी बेटियों की पढ़ाई को ले कर मेरे मां-बाप की दूरदर्शिता तारीफ के काबिल थी. उन दिनों मुस्लिम परिवारों के सभी लड़कों को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भेजा जाता था, लेकिन लड़कियों को स्कूल भेजने की बात कोई सपने में भी नहीं सोचता था, बोर्डिंग स्कूल भेजना तो असंभव ही था. इसके बावजूद, हमें घर से मीलों दूर लाहौर के क्वीन मैरीज कॉलेज में भेजा गया जो दूसरे प्रांत में था. उन दिनों यह एक दूसरे देश में जाने जैसी बात थी. जब मेरी मां की मृत्यु हुई तो वो साफ-साफ निर्देश छोड़ कर गईं थी कि उनकी संपत्ति से मिलने वाले पैसों का उपयोग उनके बच्चों, खासतौर पर उनकी बेटियों की पढ़ाई के लिए किया जाय.

क्वीन मैरीज की स्थापना 1908 में मिस वेस्टर्न ने उत्तरी भारत के 'संभ्रांत घरानों की लड़कियों' के लिए की थी.  इसकी कुछ खासियतों में से एक यह थी कि इसमें किसी भी ईसाई या आम परिवारों की लड़कियों को बोर्डिंग में दाखिला नहीं दिया जाता था. कम से कम मिस कोक्स के प्रिंसिपल बनने तक तो यह नियम लागू था. मिस कोक्स मेरे स्कूल छोड़ने से पहले अंतिम प्रिंसीपल थीं, जिन्होंने स्कूल के मौजूदा कायदे-कानून में काफी बदलाव किए. एक बिल्डिंग ठेकेदार की बेटी को स्कूल में दाखिला दिए जाने से चिढ़ कर हम किस तरह अपनी नाराजगी फुसफुसाहटों और व्यंग्य के जरिए निकालते थे, मुझे आज भी याद है. बाद में कई बार अपने मामा के घर पर उस लड़की के माता-पिता से मेरी मुलाकात हुई. उसके पिता देहरादून के जाने-माने लोगों में से एक थे, उन्होंने अंग्रेजों से मसूरी में एक बड़ा होटल खरीदा था.


(जारी)

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचक कथायात्रा..