Friday, August 9, 2013

माँ की गोदी ऐसी लागे जैसे मुन्दरिन मां नगिनवा


अगर पाकिस्तान में क़व्वाली की परम्परा को बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नुसरत फ़तेह अली खान ने नई ऊंचाइयां दी थीं तो भारत में इसे आगे ले जाने का काम उतने ही प्रतिभावान क़व्वाल ज़फ़र हुसैन खां बदायूँनी ने किया. हजरत अमीर खुसरो और बाबा बुल्लेशाह की रचनाओं को एक अलग अंदाज़ में गाने वाले ज़फ़र हुसैन खां के पोते वजाहत हुसैन खां ने इस साल मार्च के महीने में दिल्ली में सूफ़ी कत्थक फाउन्डेशन सिम्पोज़ियम द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘अंडरस्टैंडिंग क़व्वाली’ अपनी प्रस्तुति दी थी. इस मौक़े पर उन्होंने अपनी विरासत और शैली पर कुछ बढ़िया बातें ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के साथ की गयी बातचीत में की थीं.

आपके नाना उस्ताद ज़फ़र हुसैन खां बदायूँनी ने आपको बहुत छोटी उम्र में अपना शागिर्द बना लिया था. हमें बताइये कि उस ज़माने में क़व्वाली कैसे सिखाई जाती थी और उसे कितनी लोकप्रियता हासिल थी.

क़व्वाली गाने की परम्परा खानकाहों से निकली थी. मेरे नानाजान ने मशहूर क्लासिकल गायक उस्ताद राशिद खां को सिखाया था. सो इस लिहाज़ से क्लासिकल म्यूजिक हमारे परिवार में बहुत अहम जगह रखता था. मैंने उन्हें बदायूँ में परफ़ॉर्मेंस देते देखा था और तभी तय कर लिया था कि मुझे भी यही करना है. मैं उनके साथ रहने लगा और उनकी संगत करने लगा. वे बड़ी मेहनत से मुझे बताते थे कि किसी शेर के कैसे पढ़ा जाना है, ऑडीएंस के साथ कैसे सम्बन्ध बनाना है, कुछ शब्दों पर कैसे जोर देना है और कैसे रागों को आपस में मिलाना है. उस ज़माने में क़व्वाली रूहानी आनन्द के लिए गाई जाती थी और सुनने वाले उसे उसी तरह सुना करते थे. शास्त्रीय संगीत की जड़ें क़व्वाली में पाई जाती हैं सो उसे खासी पेट्रोनेज हासिल हुई और लोकप्रियता भी.

आपकी गायन शैली ज़फ़र साहब से काफ़ी मिलती है ...

मैं उनके जैसा कभी नहीं गा सकता. हां मैं उनकी नक़ल करता हूँ. और इस बारे में मैं बिलकुल ईमानदार हूँ. मैं ने हमेशा उनकी तरह गाने की कोशिश की है, वैसी ही आवाज़ और वैसी ही मिठास पैदा करने की.

आपके हिसाब से आज क़व्वाली किस जगह खड़ी है?

वो ज़माना लद गया जब क़व्वाली रूहानी अहसास पाने के लिए गाई-सुनी जाती थी. बॉलीवुड और रियलिटी शोज़ जैसी जगहों पर पहुँच जाने के बाद इस विधा के मूल्य में ह्रास हुआ है. तमाम कल्चरल सोसाइटियाँ इसे बचाने में लगी हुई हैं पर जिस तरह इसे खानकाहों में गाया जाता था वह चीज़ अब देखने में नहीं आती.

उस स्तर को वापस लाने के लिए क्या करना होगा?

मैं चाहता हूँ कि लोग समझें क़व्वाली फ़ोक म्यूजिक नहीं है. और यह अपने आप में एक गंभीर और मुकम्मल विधा है जिसके लिए कड़ी मेहनत और ट्रेनिंग की ज़रुरत होती है. बॉलीवुड को इस बात की ज़रुरत है कि वह थोडा समझदारी दिखाए और लोकप्रिय क़व्वालियों को ऐसे ही उठा कर पैसे के वास्ते तबाह करना बंद करे.

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अग्रज-कवि नीलाभ जी ने अपनी फेसबुक वॉल पर ज़फ़र हुसैन खां बदायूँनी क़व्वाल की एक शानदार कम्पोज़ीशन लगा कर बहुत पुरानी यादें ताज़ा कर दीं. आप के साथ बांटने का मन हुआ.  



साथ ही यही रचना अपने एक और प्रिय क़व्वाल बहाउद्दीन खां की आवाज़ में भी-

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