आदरणीय अग्रज श्री अफ़लातून
ने डॉ दाभोलकर की हत्या की सिहरन को महसूस करते हुए अपने ब्लॉग पर पांच साल पहले
लगाई गयी एक महत्वपूर्ण कविता की याद अपनी फेसबुक वॉल पर दी. उसे यहाँ पोस्ट करना
आवश्यक लगा मुझे. अफ़लातून जी का आभार. -
बामियान में बुद्ध
-राजेन्द्र राजन
निश्चिन्त होकर वे जा चुके
थे उस सुनसान जगह से
अपनी बंदूकों , तोपों , बचे हुए विस्फोटकों
और अट्टहासों के साथ
अपनी समझ और हुकूमत के बीच
कि उनके मुल्क की ज़मीन पर
उसके इतिहास में
अब कहीं नहीं हैं बुद्ध
जहाँ वे खड़े थे सबसे ज्यादा
मज़बूती से
वहां से भी मिटा दिए गए उनके
नामोनिशान
अब कोई नहीं था उस सुनसान
जगह में
जहां पत्थर भी कुछ कहते जान
पड़ते थे
वहां हर शब्द था डरा हुआ
हर चीज़ खा़मोश थी दहशत से
दबी हुई
बस हवा में एक सामूहिक
अट्टहास था बेखौ़फ़
जो बामियान के पहाड़ों को
रह-रह कर सुनाई देता था
तप रही थी ज़मीन तप रहा था
आसमान
पहाड़ के टूटने की आवाज़
धरती की दरारों में समा गयी
थी
हवा में भर गयी बारूद की गंध
सब दिशाओं में फैल गयी थी
तीन दिन बाद जब वहां कोई
नहीं था
हर तरफ़ डरावना सन्नाटा था
वहां नमूदार हुआ
लंबी नाक और चौड़ी टोड़ी वाला
एक पठान
वह तपती ज़मीन पर नंगे पांव
बढ़ा उस तरफ़
तीन दिन पहले जहां पर्वताकार
बुद्ध थे
और अब एक बड़ा-सा शून्य था
उस ख़ाली अंधेरी जगह के पास
जाकर वह रुक गया
कुछ पल खामोश रह कर उसने सिर
झुका कर कहा-
क्षमा करें भगवन् ! हमें
क्षमा करें !
बुद्ध ने आवाज़ पहचानी
यह ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां
होंगे
फिर वे अपनी कोमल संयत गंभीर
आवाज़ में बोले-
आप अवश्य आएंगे , मैं जानता था भंते !
कृपया इधर चले आएं इधर छाया
में
आपके पांव जल रहे होंगे
सकुचाए लज्जित-से ख़ान अब्दुल
गफ़्फ़ार ख़ां
बुद्ध के और निकट गए
फिर सुना
किसी क्षमा करने का अधिकारी
मैं नहीं
जो क्षमा कर सकते थे अब नहीं
हैं
वे विलुप्त पथिक अक्षय शांति
के खोजी
जिनकी खोज और साधना के
स्मारक नष्ट किए गए
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां की
आवाज़ अब भी नम थी :
यहां जो हुआ उससे पीड़ा हुई
होगी भगवन !
पीड़ा नहीं
दुख हुआ है भंते
जब कोई सृजन विध्वंस के
उन्माद का शिकार होता है
दुख होता है
पर पीड़ा का प्रश्न नहीं
जब मैं शरीर में था एक दिन
अंगुलिमाल गरजा था :
रुक जाओ भिक्षुक
वहीं रुक जाओ
पर मैं रुका नहीं
जैसे कुछ हुआ न हो मेरे कदम
आगे बढ़े निष्कंप
जो कंप सकता था वह मेरे भीतर
से विदा हो चुका था
अब तो वह शरीर भी नहीं
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां थोड़ा
सहज हुए
बुद्ध ने उनकी आंखों में
झांका :
यह क्या, आपकी आंखें गीली क्यों हैं भंते ?
मुल्क की हालत ठीक नहीं है
भगवन्
बरसों से हर तरफ़
ख़ून से सने हाथ दिखाई देते
हैं
मारकाट जैसे रोज़ का धन्धा है
सब किसी न किसी नशे में डूबे
हैं
होश का एक क़तरा भी खोजना
मुश्किल है
डर का ऐसा पहरा है कि कि कोई
कुछ बोलता नहीं
कोई कुछ सुनता नहीं
जो बोलते हैं मारे जाते हैं
अभी तीन रोज़ पहले यहां जो
हुआ उससे
इत्तिफ़ाक़ न रखने वाले चार
युवक पकड़ लिए गए
सुना है उन्हें सरेआम फांसी
पर लटकाया जाएगा
कुछ पल के लिए एक स्तब्ध मौन
मे डूब गए बुद्ध
जैसे ढाई हजार साल बाद
नए सिरे से हो रहा हो दुख से
सामना
फिर सोच में डूबा उनका
प्रश्न उभरा -
और , स्त्रियों की क्या दशा है भंते
उनका हाल बयान नहीं किया जा
सकता भगवन्
वे पशुओं से भी बदतर हालत
में जीती हैं
डर और गुलामी और सज़ा की नकेल
से बंधी हैं वे
बुद्ध असमंजस में डूबे रहे
कुछ पल
कि आगे कुछ पूछें या न पूछें
फिर उन्होंने पूछा :
और किसान किस हालत में हैं
भंते
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां की
अनुभव पकी आंखों में
गांवों के रोजमर्रा चित्र
तैर गए :
फसलें सूख रही हैं भगवन्
किसानों की कोई नहीं सुनता
फ़ाक़ाकशी की छाया लोटती है
मेहनतकश घरों में
हुक्मरान हथियार खरीदने के
अलावा और कुछ नहीं करते
बुद्ध और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार
ख़ान के बीच एक सन्नाटा
खिंच गया
बुद्ध को चिंतित देख शर्म की
ज़मीन पर खड़े बूढ़े पठान ने कहा :
भारत आपके लिए ठीक जगह है
भगवन्
नहीं भंते
हथियारों के पीछे पागल हैं
वहां के शासक भी
बहुत छद्म और पाखंड है वहां
मानवता के संहार का उपाय कर
वे कहते हैं : मैं मुस्करा
रहा हूं
इसके बाद ख़ामोश रहे दो दुख
सहसा ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां
का ध्यान हटा
उन्होंने सूखे आसमान की तरफ़
नज़र फ़िराई
लगा जैसे किसी बाज के
फड़फड़ाने की आवाज़ आई हो
मगर चुँधियाती धूप में कुछ
दिखाई नहीं पड़ा
फिर उनका ध्यान लौटा उस जगह
जो तीन दिन पहले हमेशा के
लिए ख़ाली हो गई थी
वहां न बुद्ध के होने का
स्वप्न था न उनके शब्दों का अर्थ
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां खड़े
थे अकेले
बामियान के पथरीले सन्नाटे
में.
1 comment:
'कबाड़खाना' में राजेन्द्र राजन की कविता साझा करने के लिए आभार ,अशोक जी।
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