Thursday, August 22, 2013

आज गिर्दा की पुण्यतिथि है. तीसरी!



आज गिर्दा की पुण्यतिथि है. तीसरी!

उस पर कुछ लिखने को मुझ से कई दफ़ा कई जगहों से बाकायदा आदेश जारी किये जाते रहे हैं. लेकिन उसकी बाबत सोचता हूँ तो लगता है न अभी नहीं अभी मेरा गिर्दा मरा नहीं है. मैं गिर्दा के बारे में यह सोच भी नहीं पाता कि वह अब इस दुनिया में नहीं है हालांकि नथुनों में रुई घुसाई गयी उसकी देह को मैंने पाइन्स के श्मशान तक ले जाया जाता देखा और वहीं भस्म होकर अदृश्य होते भी.

दरअसल वह इतनी बार इतने इतने रूपों रंगों में मेरे सपनों में आता रहता है कि उसकी कमी तक नहीं खलती. हां एक बार आधी रात को जस-तस खाई गयी उसके हाथ की बनाई दुनिया की सबसे बेस्वाद उड़द की खिचड़ी और हम दोनों को आँखें फाड़े देखता उसका तनिक बौना पालतू कुत्ता स्वर्गीय बोगो (स्वर्गीय बोगो जी के नाम पर एक बार संभवतः मसूरी के किसी भव्य आलीशान सरकारी वी आई पी गेस्ट हाउस में बुक कराये गए कमरे का क़िस्सा मैं अवश्य बहुत जल्द लिखूंगा) अक्सर मिलकर शिकायत करते हैं कि कुछ नहीं तो यार उसी दिन का पूरा क़िस्सा लिख डालो. लिखूंगा! ज़रूर लिखूंगा! पक्का वादा फ़िलहाल. बस!

अभी तो अपनी ही कुछ कवितायेँ सुन बब्बा!

मोरि कोसि हरै गे कोसि

जोड़ आम-बुबु सुणूँ छी

गदगदानी ऊँ छी
रामनङर पुजूँ छी
कौशिकै की कूँ छी
पिनाथ बै ऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
कौशिकै की कूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
क्या रोपै लगूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
क्या स्यारा छजूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
घट-कुला रिङू छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
कास माछा खऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
जतकाला नऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
पितर तरूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
पिनाथ बै ऊँछी मेरि कोसि हरै गे कोसि.
रामनङर पुजूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि..
जोड़ रामनङर पुजूँ छी,

आँचुई भर्यूँ छी, – (ऐ छू बात समझ में ? जो चेली पहाड़ बै रामनगर बेवई भै, उ कूँणै यो बात) -

पिनाथ बै ऊँ छी,
रामनगङर पुजूँ छी,
आँचुई भर्यूँ छी,
मैं मुखड़ि देखूँ छी,
छैल छुटी ऊँ छी,
भै मुखड़ि देखूँ छी,

अब कुचैलि है गे मेरि कोसि हरै गे कोसि.
तिरङुली जै रै गे मेरि कोसि हरै गे कोसि.
हाई पाँणी-पाणि है गे मेरि कोसि हरै गे कोसि.

(भावार्थ: दादा-दादी सुनाते थे कि किस तरह इठलाती हुई आती थी कोसी. रामनगर पहुँचाती थी, कौशिक ऋषि की कहलाती थी. अब जाने कहाँ खो गई मेरी वह कोसी ? क्या रोपाई लगाती थी, सेरे (खेत) सजाती थी, पनचक्की घुमाती थी. क्या मछली खिलाती थी वाह !….. आह ! वह कोसी कहाँ खो गई ? जतकालों को नहलाती थी (जच्चा प्रसूति की शुद्धि). पितरों को तारती थी. पिनाथ से आती थी, रामनगर पहुँचाती थी. रामनगर ब्याही पहाड़ की बेटी कह रही है कि कोसी का पानी अंचुरि में लेने के साथ ही छाया उतर आती थी अंचुरि में माँ-भाई के स्नेहिल चेहरे की. कहाँ खो गया कोसी का वह निर्मल स्वच्छ स्वरूप. अब तो मैली-कुचैली तिरङुगली (छोटी) अंगुली की तरह रह गई है एक रेखा मात्र. हाय, पानी पानी हो गई है. मेरी कोसी खो गई है.)

सियासी उलट बाँसी

पानी बिच मीन पियासी
खेतो में भूख उदासी
यह उलट बाँसियाँ नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी

पानी बिच मीन पियासी
लोहे का सर पाँव काठ के
बीस बरस में हुए साठ के
मेरे ग्राम निवासी कबीरा, झोपड़पट्टी वासी

पानी बिच मीन पियासी
सोया बच्चा गाये लोरी
पहरेदार करे है चोरी
जुर्म करे है न्याय निवारण, नयाय चढ़े है फाँसी

पानी बिच मीन पियासी
बंगले में जंगला लग जाये
जंगल में बंगला लग जाय
वन बिल ऐसा लागू होगा, मरे भले वनवासी

पानी बिच मीन पियासी
जो कमाय सो रहे फकीरा
बैठे ठाले भरें जखीरा
भेद यही गहरा है कबीरा, दीखे बात जरा सी

पानी बिच मीन पियासी


ओ दिगौ लाली


ओ हो रेऽऽऽऽ, आय हाय रेऽऽऽ,
ओ दिगौ लाली.
छानी-खरिक में धुआँ लगा है,
ओ हो रे, आय हाय रे,
ओ हो रेऽऽऽऽऽऽ, ओ दिगौ लाली.

ठंगुले की बाखली, किलै पंगुरै है,
द्वि-दाँ कै द्वि धार छूटी है.
और दुहने वाली का हिया भरा है,
ओ हो रेऽऽऽऽ आय हाय रेऽऽऽऽ
(देखिये! छाते से दूध बहने लगा है)

दुहने वाली का हिया भरा है,
ओ हो रे,
मन्दी धिनाली.

मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है..
(चौमासा का दिन छन, झड़ पड़ रई, लाकड़ा-पातड़ा सब भिज रई)

मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है,
गीली है लकड़ी, गीला धुंआ है,
साग क्या छौका कि पूरा गौं महका है,
ओ हो रे, आय हाय रेऽऽऽऽऽ
गन्ध निराली....

काँसे की थाली सा चाँद तका है,
ओ ईजाऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ ओ दिगौ लाली.
ओ हो रेऽऽऽऽऽ शाम निराली,
ओ हो रेऽऽऽऽऽऽऽऽ साँझ जून्याली.
जौयां मुरुली का शोर लगा है,
ओ हो रेऽऽऽऽऽ लागी कुत्क्याली.
ओ हो रेऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽओ दिगौ लाली...........!  

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वीरेन डंगवाल का यह संस्मरण भी आज ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए -

गिर्दा के लिए मरदूद का मातम

(गिर्दा और हेमा भाभी की शानदार ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीर नैनीताल में रहनेवाले मित्र प्रदीप पांडे की खींची हुई है. उनका आभार.)

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