Wednesday, August 14, 2013

खोलने कॉलिज चले, आटे की चक्की खुल गयी

श्रीलाल शुक्ल जी की याद और उर्दू कविता

राग दरबारी से एक टुकड़ा

उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है . इसलिए बम्बई और कलकत्ता मे भी वे अपने गाँव या कस्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते है और उसे खटखटा नही समझते. अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बम्बई के कूप-मण्डूक लोगों को इशारे से समझाते है कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही मे सीमित नही है. जहाँ बम्बई है, वहाँ गोंडा भी है.
एक प्रकार से यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि जन्मभूमि के प्रेम से ही देश-प्रेम पैदा होता है . जिसे अपने को बम्बई मे 'संडीलवी' कहते हुए शरम नही आती, वहीं कुरता-पायजामा पहनकर और मुँह मे चार पान और चार लिटर थूक भरकर न्यूयार्क के फुटपाथों पर अपने देश की सभ्यता का झण्डा खड़ा कर सकता है . जो कलकत्ता मे अपने को बाराबंकवी कहते हुए हिचकता है, वह यकीनन विलायत मे अपने को हिन्दुस्तानी कहते हुए हिचकेगा.

इसी सिद्धान्त के अनुसार रामाधीन कलकत्ता मे अपने दोस्तो के बीच बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी के नाम से मशहूर हो गये थे.

यह सब दानिश टाँडवी की सोहबत मे हुआ था. वे टाँडवी की देखा-देखी उर्दू कविता मे दिलचस्पी लेने लगे और चूँकि कविता मे दिलचस्पी लेने की शुरुवात कविता लिखने से होती है, इसलिए दूसरों के देखते-देखते हुन्होने एक दिन एक शेर लिख डाला. जब उसे टाँडवी साहब ने सुना तो, जैसा कि एक शायर को दूसरे शायर के लिए कहना चाहिए, कहा, "अच्छा शेर कहा है ."

रामाधीन ने कहा, " मैने तो शेर लिखा है, कहा नही है ."

वे बोले, "गलत बात है . शेर लिखा नही जा सकता . "

"पर मै तो लिख चुका हूँ."

" नही, तुमने शेर कहा है . शेर कहा जाता है . यही मुहाविरा है ." उन्होने रामाधीन को शेर कहने की कुछ आवश्यक तरकीबे समझायी. उनमे एक यह थी कि शायरी मुहाविरे के हिसाब से होती है, मुहाविरा शायरी के हिसाब से नही होता. दूसरी बात शायर के उपनाम की थी. टाँडवी ने उन्हे सुझाया कि तुम अपना उपनाम ईमान शिवपालगंजी रखो. पर ईमान से तो उन्हे यह एतराज था कि उन्हे इसका मतलब नही मालूम; 'शिवपालगंजी' इसलिए ख़ारिज हुआ कि उनके असली गाँव का नाम भीखमखेड़ा था और उपनाम से ही उन्हे इसलिए ऐतराज हुआ कि अफ़ीम के कारोबार मे उनके कई उपनाम चलते थे और उन्हे कोई नया उपनाम पालने का शौंक न था. परिणाम यह हुआ कि वे शायरी के क्षेत्र मे बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी बनकर रह गये.

'कलूटी लड़कियाँ हर शाम मुझको छेड़ जाती है . " - इस मिसरे से शुरु होने वाली एक कविता उन्होने अफ़ीम की डिबियों पर लिखी थी.

पर शायरी की बात सिर्फ़ दानिश टाँडवी की सोहबत तक रही. जेल जाने पर उनसे आशा की जाती थी कि दूसरे महान साहित्यकारों और कवियों की तरह अपने जेल-जीवन के दिनो मे वे अपनी कोई महान कलाकृति रचेंगे और बाद मे एक लम्बी भूमिका के साथ उसे जनता को पेश करेंगे; पर वे दो साल जेल के खाने की शिकायत और कैदियों से हँसी-मजाक करने, वार्डरो की गालियाँ सुनने और भविष्य के सपने देखने मे बीत गये.

शिवपालगंज मे आकर गँजहा लोगो के सामने अपनी वरिष्टता दिखाने के लिए उन्होने फिर से अपने नाम के साथ भीखमखेड़वी का खटखटा बाँधा. बाद मे जब बिना किसी कारण के, सिर्फ़ गाँव की या पूरे भारत की सभ्यता के असर से वे गुटबन्दी के शिकार हो गये, तो उन्होने एकाध शेर लिखकर यह भी साबित किया कि भीखमखेड़वी सिर्फ़ भूगोल का ही नही, कविता का भी शब्द है .

कुछ दिन हुए, बद्री पहलवान ने शिवपालगंज से दस मील आगे एक दूसरे गाँव मे आटाचक्की की मशीन लगायी थी. चक्की ठाठ से चली और वैद्यजी के विरोधियों ने कहना शुरु कर दिया कि उसका सम्बंध कॉलिज के बजट से है . इस जन-भावना को रामाधीन ने अपनी इस अमर कविता द्वारा प्रकट किया था :

क्या करिश्मा है कि ऐ रामाधीन भीखमखेड़वी,
खोलने कॉलिज चले, आटे की चक्की खुल गयी!

गाँव के बाहर बद्री पहलवान का किसी ने रिक्शा रोका. कुछ अँधेरा हो गया था और रोकने वाले का चेहरा दूर से साफ नही दिख रहा था. बद्री पहलवान ने कहा, "कौन है बे?"


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