वो अपनी ही कविता के एक लुटेपिटे हैरान से थकान से चूर खून और गर्द से भरे चेहरे वाले आदमी सरीखे हैं
-शिवप्रसाद जोशी
हिंदी के
युवा कवि प्रमोद कौंसवाल का पहला कविता संग्रह 90 के दशक में
आया था. उसका नाम था अपनी ही तरह का आदमी. आसमानी नीले रंग के कवर
वाली इस किताब पर अंगूठे की छाप सजाई गई थी, पीछे के फ़्लैप
पर कवि परिचय के साथ कवि का एक स्केच था जो ऊबड़खाबड़ सा था और उसमें बाल चश्मा
चेहरा अलग अलग ज्यामितियां बनाते थे. संग्रह के नाम और इस फ़ोटो में कुछ संगति सी
दिखती थी.
1991 में आई उन कविताओं ने उस दौरान हिंदी में बड़ा ध्यान खींचा. वे एक अलग
स्वाद की कविताएं थीं और उनमें मुक्तिबोध, धूमिल, राजकमल चौधरी, ज्ञानरंजन, रघुबीर
सहाय, विष्णु खरे की आवाजाही दिखती थी. ताज्जुब न करें कि
उनकी ताज़गी की महक क़ायम है.
प्रमोद
कौंसवाल की कविताएं हिंदी में जितनी तीव्रता से याद की गईं कमोबेश उतनी ही तेज़ी
से उन्हें भुलाने के उपक्रम भी हुए. रुपिन
सूपिन के साथ फिर
वो सामने आए लेकिन उस समय हिंदी की दुनिया उनका वैसा स्वागत करने के लिए तैयार
नहीं जान पड़ी. ऐसा क्यों हुआ इसकी भी छानबीन की ज़रूरत है.
बहरहाल
कहना ये है कि प्रमोद की कविता धूल गुबार उड़ाने वाली, चुभने वाली, फटकार, संशय और
संताप से भरी हुई और चीख वाली कविता रही है.
इसी ब्लॉग
में एक लेख है जिसमें मंगलेश डबराल ने रघुबीर सहाय की कविता के हवाले से नोट किया
है कि ताक़त ही ताक़त के ख़िलाफ़ सामर्थ्य से बोलने वाली आवाज़ें एक यथास्थितिवादी
ख़ामोशी में सिमट गई हैं. “रघुवीर सहाय की कविता में व्यक्त ‘ताकत ही ताकत’
पिछले डेढ़ दशक में कहीं अधिक व्यापक रूप ले चुकी है और हम उसके
ख़िलाफ़ चीखना भूल रहे हैं.”
प्रमोद
कौंसवाल लेट एटीज़ या नब्बे के दशक की शुरुआत की उसी जमात के कवि हैं जहां इस तरह
की चीखें आ रही थीं. और ये महज़ चीखने के लिए चीखना जैसा नहीं था.
यही वो दौर
था जब मुक्त बाज़ार का दानव बढ़ा चला आ रहा था और भारत की सत्ता राजनीति उसकी छाया
के नीचे आधे नमन आधी दहशत में हिचकोले सी खाती हुई खड़ी थी. मध्यवर्गीय समाज के
नलों से उपयोगितावाद बहने लगा था और जैसा कि प्रमोद की कविता में है कि हिंदू
हिंदू कहना चिल्लाना हो गया था.
अब मेरा
संशय है कि प्रमोद कौंसवाल हिंदी की युवा कविता में जिस स्वर के प्रतिनिधि हैं उसे
अवांगार्द कहना चाहिए या नहीं. अवांगार्द के लिए अवांगार्द होना करना तो ठीक नहीं
होगा. अगर अवांगार्दिज़्म के पैमाने पर उन्हें परखें तो क्या वो अवांगार्द
अवांगार्द होते होते निकलेंगें या वो कोई और ही धज होगी. उन्होंने अपनी ही तरह का
एक बीहड़ जीवन बिताया है जिसमें धूल धिक्कार प्रताड़ना तारीफ़ सम्मान बहक दुर्घटना
नौकरी सबकुछ शामिल है. टिहरी दिल्ली मेरठ चंडीगढ़ फिर दिल्ली नोएडा की खाक छानी
है. वो अपनी ही कविता के एक लुटेपिटे हैरान से थकान से चूर खून और गर्द से भरे
चेहरे वाले आदमी सरीखे हैं.
मैं इसी
बेवक़्त कहे जाने वाले समय का ग़वाह बना
और आप जानते ही हैं
दृश्य में दिखा भी नहीं.
और आप जानते ही हैं
दृश्य में दिखा भी नहीं.
गुस्सा ऊब
चिढ़ ये सब क्यों नहीं है कविता में, ये उन्होंने अपनी
एक कविता में पूछा भी था. उनके चेहरे पर पहाड़ और मैदान का उबड़खाबड़पन है,
कहने को बड़ा सौम्य कमसिन चेहरा उनका रहा है. वो एक नंबर के ज़िद्दी
हैं. उनमें रूसी उपन्यासों के नायकों जैसी अजीबोग़रीब फ़ितरत है. यानी एक फ़लसफ़ाई
बेचैनी, संदेहवाद, आशंका, अंतर्द्वंद्व, विरोधाभास, झक्कीपना,
असहमति, दो टूक सा रवैया.
और एक
ललकार या एक हुंकार भी वहां है जो भीतर तड़कती है और वहीं गिर जाती है. कविता में
उसके तपते हुए छींटे गिरते रहते हैं. तारों का जैसा विस्फोट भौतिकी में नुमायां
होता है वैसा प्रमोद कौंसवाल की कविता में आया है.
मैंने दलित
को दलित नहीं
काफी ग़रीब और कुचला हुआ कहा
मैंने भारत की संसद के बाहर जाकर
खाक़ उड़ाई और हिंदू-हिंदू कहता हुआ
अपने को ही गालियां देकर
शर्म की पोटली लेकर
लौट आया.
काफी ग़रीब और कुचला हुआ कहा
मैंने भारत की संसद के बाहर जाकर
खाक़ उड़ाई और हिंदू-हिंदू कहता हुआ
अपने को ही गालियां देकर
शर्म की पोटली लेकर
लौट आया.
यूं तो कोई
अवांगार्द कहलाना पसंद न करे या ख़ुश हो, लेकिन कुछ अलग
क़िस्म का रच देने वाले विरल मौकों पर शायद अवांगार्दिज़्म का बड़ा योगदान है. अलग
और महत्त्वपूर्ण. असद ज़ैदी के कहे मुताबिक संगीत के दुर्लभ मक़ाम को हासिल कर
लेने वाला क्षण.
तो इस
लिहाज़ से जो अवांगार्द नहीं भी है वो अपनी कहन और अपनी रचना से ऐसा हो सकता है या
ऐसी धारा को रिप्रज़ेंट करता हुआ दिख सकता है. ये वही बात है कि मुख्यधारा से
अवांगार्दिज़्म फूटे और फिर उसी में धीरे धीरे समाने लगे. टकराते हुए आए और टकराता
हुआ लौटे. अवांगार्दिज़्म की मानो यही ख़ूबी है कि वो मंच बनाता सजाता है और फिर
उस मंच की सीमाएं तोड़ देता है. वो मंच से नीचे उतर आता है.
खैर. हम
प्रमोद कौंसवाल की कविता की चर्चा कर रहे थे. क्या ये उनका अवांगार्दिज़्म ही है
जो सीना ठोंककर कहता है,
मै क्यों आत्ममुग्ध.
मैं मुग्ध
हूं अपने पर
नहीं हो पाया मोहमंग मुझसे ही मेरा
नहीं हो पाया मोहमंग मुझसे ही मेरा
कोई सुनना
पसंद नहीं करता ऐसा कवि मैं
कोई नौकरी नहीं देना चाहता ऐसा नौकर
बात नहीं करना चाहता ऐसा वार्ताकार
आंखें नहीं मिलाना चाहता इस तरह का मिलनसार
मेरे सच पर यकीन नहीं करना चाहता
सुनना नहीं चाहता मुझे कोई ऐसा पुजारी
कोई नौकरी नहीं देना चाहता ऐसा नौकर
बात नहीं करना चाहता ऐसा वार्ताकार
आंखें नहीं मिलाना चाहता इस तरह का मिलनसार
मेरे सच पर यकीन नहीं करना चाहता
सुनना नहीं चाहता मुझे कोई ऐसा पुजारी
अब इस
आत्मफटकार या इस दुख भरी आत्ममुग्धता को आप अवांगार्दिज़्म का एक विकट संकट कहिए
या कवि के हवाले से उसका अपना या उसके समाज का संकट. आप ये भी पूछ सकते हैं कि भला
इसे अवांगार्दिज़्म कहें ही क्यों. एक सवाल ये है कि हिंदी कविता में अगर कुछ
सच्चे अवांगार्द सरीखा है तो उसकी सबसे ज़्यादा “चहलपहल”कौन से दौर में है. कौन सी पीढ़ी में है.
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