Sunday, September 1, 2013

विभाजन और मंटो और साहिर और ... महिंद्रा की विलिस



... पिछले कुछ सालों में मंटो ने वह इज़्ज़त प्राप्त कर ली है जिस से उन्हें जान बूझ कर तब महरूम रखा गया था जब वे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से लाहौर में बिखर रहे थे – उस मृतलोक में जो बम्बई की उस अनैतिक और जघन्य दुनिया से इतना मिलता-जुलता था जिसके बारे में उन्होंने बहुत लिखा था.

तिरालीसवीं सालगिरह से पहले ही मंटो की मौत हो गयी थी. अल्कोहोलिज्म ने उन्हें उतना ही तबाह इंसान बना दिया था जितना ग़रीबी ने और अश्लीलता के उन मुकद्दमों ने जो पाकिस्तान की नई सरकार के दकियानूसी और प्रतिहिंसक एस्टैब्लिश्मेंट ने उन पर थोप रखे थे. सच तो यह है कि ब्रिटिश भारत में भी उन पर ऐसे ही मुकद्दमे चले थे हालांकि हरेक बार उनकी रिहाई बड़ी कीमतों पर हुई थी ख़ास कर आख़िरी मुकद्दमों में.  

पाकिस्तान जाने से पहले और बाद के मंटो के काम की पिकासो के पिंक और ब्लू पीरियड्स से समानता नज़र आती है. मंटो का पिंक पीरियड १९४० के दशक के बंबई में था जबकि ब्लू पीरियड पाकिस्तान में जब उन्होंने “तीखे ब्लेड जैसे चुभने वाले कंटीले” विभाजन की पाशविक छवियों को काग़ज़ पर उतारा था.

जहां अब तक यह माना जाता रहा था कि मंटो अपनी महबूब नगरी बम्बई को आसन्न साम्प्रदायिक दंगों की संभावना के कारण छोड़ने पर मजबूर हुए थे, उनकी पोती मशहूर इतिहासकार आयशा जलाल ने उनकी नवीनतम जीवनकथा में स्पष्ट किया है कि ऐसा नहीं था. युवावस्था के अविवेक और मुश्किल सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण मंटो ने सदा के लिए लाहौर में बसने का मन बना लिया था. जलाल का मानना है कि अपने प्रोजेक्ट्स के मुकाबले कमाल अमरोही और शाहिद लतीफ़ की फिल्मों को हिमांशु रॉय के पौराणिक बन चुके बॉम्बे टॉकीज़ में वरीयता दिया जाना उन्हें कतई पसंद नहीं आया था.

जैसा कि आयशा पुष्टि करती हैं ऐसा असामान्य नहीं था. उपेन्द्रनाथ अश्क से हुए एक विवाद के कारण मंटो ने ऑल इण्डिया रेडियो की अपनी नौकरी छोड़ दी थी और “अपना टाइपराइटर लेकर वहां से निकल गए थे.” बम्बई में स्क्रीन-राइटर का उभरता हुआ करियर त्याग कर मंटो १९४८ में पाकिस्तान चले गए थे.

जिस लाहौर में मंटो पहुंचे वहां पहले से ही लुधियाने की एक प्रतिभा का जलवा चल रहा था – वामपंथी शायर साहिर लुधियानवी, जिन्हें कॉलेज से इस अपराध पर निकाल दिया गया था कि वे प्रिंसीपल के बगीचे में एक सहपाठिनी के साथ बैठे थे, और जिन्हें इस बात ने खासी प्रसिद्धि दिला दी थी. साहिर १९४३ में लाहौर गए थे जहाँ वे उर्दू शायरी की एक असाधारण पहचान बनते जा रहे थे. १९४९ में जब ‘सवेरा’ में “भड़काऊ कम्यूनिस्ट लेखन” के कारण उन के नाम वारंट निकला वे भाग कर नई सरहद पार दिल्ली आ पहुंचे. एक बार बंबई आ चुकने के बाद उन्होंने हिन्दी फिल्मों के गीतकार के बतौर बाकायदा राज किया.

जो बम्बई मंटो छोड़ गए थे, वह साहिर को कामयाब बनाने को तैयार बैठी थी. बम्बई में अपनी एंट्री के पहली ही साल वे फ़िल्मी परदे पर गानों के क्रेडिट में अपना नाम डलवा सकने में कामयाब हुए, अलबत्ता उनका जुनून बंगाली जीनियस संगीतकार एस. डी. बर्मन के साथ महेश कॉल की ‘नौजवान’ और गुरुदत्त की ‘बाज़ी’ के बाद चढ़ना शुरू हुआ. कालिख़ भरे संसार में वंचितों के दृष्टिकोण से सहानुभूति रखने वाले गुरुदत्त के विचारों और उन्हें बेहद ख़ूबसूरती के साथ उतारने वाले दत्त के प्रिय सिनेमेटोग्राफ़र वी. के. मूर्ति को साहिर के रूप में एक उपयुक्त गीतकार मिला.

इन्होने मिलकर हिन्दी सिनेमा के मास्टरपीसेज़ बनाए और समाजवादी भारत की अस्तित्ववादी धारणा की सबसे यादगार छवियाँ भी. मंटो और साहिर द्वारा की गयी इन दो सरहदी यात्राओं का दिलचस्प पहलू उन रास्तों में दिखता है जहाँ इनके रचनात्मक करियर्स इन्हें लेकर गए. मंटो का करियर डगमगा गया था – उन्हें शराब की ज़रुरत पूरी करने के लिए संपादकों के केबिनों में जाकर ऑन-द-स्पॉट कहानियां लिखते देखा जाने लगा था.

साहिर की प्रसिद्धि लगातार बढ़ती गयी. १९५० के दशक में वे इतने शक्तिशाली बन गए थे कि संगीत-निर्देशकों की नियति तक तय कर सकते थे. जब उन्होंने जोर देकर कहा कि राज कपूर स्टारर रमेश सहगल की ‘फिर सुबह होगी’ के लिए लिखे उनके गानों को संगीत वही आदमी देगा जिसने दोस्तोवस्की का ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ पढ़ रखा हो (फ़िल्म उसी पर आधारित थी), तो निर्माताओं ने शंकर-जयकिशन को हटा कर खैय्याम को लिया. इस तरह ‘फिर सुबह होगी’ ने हिन्दी फ़िल्म संगीत को खैय्याम के रूप में एक असाधारण जीनियस अता फ़रमाया.  

संयोगवश, खैय्याम ने, जो ख़ुद एक पंजाबी थे, जब संगीत निर्देशक के रूप में अपना करियर प्रारम्भ किया था तो वे शर्माजी-वर्माजी नामक एक जोड़ी के हिस्सेदार थे. इस जोड़ी के दूसरे पार्टनर रहमान वर्मा के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले जाने के बाद खैय्याम सोलो संगीत निर्देशक बन गए.

ठीक ऐसा ही काम विभाजन पूर्व की महिंद्रा-मोहम्मद जोड़ी ‘महिंद्रा एंड मोहम्मद’ के साथ हुआ था जब महिंद्रा भाइयों को छोड़ गुलाम मोहम्मद पकिस्तान चले गए थे. अकेले छूट गए महिंद्रा बंधुओं ने तब अपनी ऑटो कम्पनी पर ज़्यादा ध्यान दिया जिसके परिणामस्वरूप भारतीय लाइसेंस लेकर विलिस जीप बनाने वाली महिंद्रा एंड महिंद्रा कम्पनी अस्तित्व में आई. गुलाम मोहम्मद पाकिस्तान के पहले वित्तमंत्री बने.


( हरीश नाम्बियार का एक आलेख पिछले महीने की १८ तारीख़ को ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ में छपा था. उस के चुने हुए हिस्सों का हिन्दी अनुवाद  है यह पोस्ट.) 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

इतिहास के रोचक तथ्य