-लीलाधर जगूड़ी
उस जगह को याद रखे हुए जिसे छोड़ आया हूँ
पहाड़ की चोटी पर
श्रम और पूँजी और विनिमय के बीच में
गमछे भर आधी करवट लेटने की जगह ढूँढ़ता हूँ मैं
शहर के कूड़े से बने रपटे में
सैकड़ों दिन की कड़ी मेहनत कठिन बचत से
उलझे हुए अपार जगत व्यापार में क्या-क्या पा सकता हूँ मैं
एक तो तिरछा ढाल जिस पर से मेढ़क भी गिर पड़े
चिड़िया भी रपट जाए
मैंने एक बिछौने भर समतल काट कर उभारा
कि एक दिन यह कोठरी भर बड़ा हो जाएगा
इतनी भर जगह मैंने ग्लोब पर हथिया ली
ग्लोब पर रपटा और रपटे पर छोटा सा-समतल
रपटे पर घनी घास उग आई
यहाँ घास जैसे पैर चाहिए जमने के लिए
पता नहीं सँभालता है कौन बोता कौन है
धतूरा और अरंड सहित बहुत सारी चीजों का घर हो गया
जहाँ अभी मेरा घर होना दूर है अंड-बंड पौधों के बीच
अब मैं सोचता हूँ गमछे भर जगह जब घर भर बढ़ी होगी
जिसमें अगर लेटूँ तो किधर होगा सिरहाना
उधर जिधर एक गुमड़ा-सा है
जहाँ बरसाती पानी ने चीरा लगाकर
मिट्टी के पथरीले दिल को चमका दिया है
ऐसा अंधेर तो नहीं होगा कि कोई आएगा
और इस जगह को मेरी नहीं बताएगा
तो ढाल पर काट कर निकाली गई गमछे भर जगह
राष्ट्रीय धरती पर बिछौने भर घर-द्वार
सब भूल जाएँगे पूँजी के बाजार में पूरी मेहनत से
मेरा भाड़ झोंकना
एक चूल्हा हासिल करने के लिए
बिछौने तक आने की जीवन यात्रा में
मेरा रोज एक जलूस निकलना है
मुझे सारा शहर ढोना है इस खुशी में
कि रपटे पर यह कोना मेरा है
छत की जगह फैलानी है मुझे एक रंगीन पॉलीथीन.
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