उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान की यह
क़व्वाली का एक कैसेट हुआ करता था मेरे पास. अब न वह बचा न उसे कारआमद बनाने वाला टू-इन-वन.
तीन चार दिनों से लगातार यह क़व्वाली
मेरे जेहन में लगातार लगातार गूँज रही थी. आज सुबह पहला काम यह किया कि इसे इंटरनेट
पर खोज-बीन कर डाउनलोड किया, दो दफ़ा चैन से सुना और आपके वास्ते पेश कर रहा हूँ.
आनंद लीजिये-
1 comment:
कैस्टों का वो ज़माना ...क्या याद दिला दिया । बाबा का ये अलबेला अंदाज़ ओह मरहबा ज़बरजंग झन्नाटे के बाद का सन्नाटा । शुक्रिया सुनवाने का । बहुत ही सुन्दर ।
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