Wednesday, October 2, 2013

साम्प्रदायिकता का कोई ताल्लुक हमारी विरासत से नहीं है

नवें सफ़दर हाशमी स्मृति व्याख्यान में दिया गया महान रंगकर्मी हबीब तनवीर का यह महत्वपूर्ण वक्तव्य इस ‘हमने हबीब को देखा है’ से साभार -

संस्कृति और सांप्रदायिकता - १
हबीब तनवीर

दोस्तों ‘संस्कृति और सांप्रदायिकता’  -  इस टाइटल में मैं थोड़ा तरमीम कर दूं  -  संस्कृति और धर्म. इस तरह अगरचे सोचें, तो हमारे जितने भी धार्मिक संस्कार हैं वो हमारी संस्कृति भी हैं.
संस्कृति का धर्म से बहुत गहरा ताल्लुक है. और हमारा कोई संस्कार ऐसा नहीं है, कल्चर का कोई भी शोबा, जिसमें कहीं न कहीं धर्म का कोई ताल्लुक न हो. जितनी रवायतें हैं, जितनी हमारी परम्परा है, वो सब इससे जुड़ी हुई हैं. मुहर्रम, ईद, बक़राईद, शब्बेरात की पूरनपोली जो हिन्दुओं में बंटती और दीवाली की मिठाई जो हम तक आती रही है हमेशा, और अब भी आती है. हमारी परम्परा रामलीला की, जिसमें रामलीला के मुखौटे जो मुसलमान बनाते हैं, वही मुहर्रम के ताज़िये भी बनाते हैं - वो सब हमारे कल्चर से जुड़े हुए हैं. करबला का किस्सा अनीस और दबीर की ज़बान से आप सुनते और वो लोग जहां करबला का वाक़या हुआ था. हसन, हुसैन की मौत हुई थी. एक को ज़हर दिया गया था और दूसरे को प्यासा मार दिया गया था, सारे खानदान को खत्म कर दिया. तो वो एक रौंगटे खड़े कर देने वाले निज़ाम फ़ासियत से भरा हुआ, बेरहमी से भरा हुआ वो था. उसके मरसिए जब अनीस और दबीर और दूसरों ने लिखे तो एहतशाम हुसैन ने अपनी तहक़ीक़ से उस पर तनक़ीद लिखी, उसकी आलोचना लिखी तो उन्होंने कहा कि जितने हिन्दू संस्कार हैं वो इसके अंदर आ गए हैं. फ़ातिमा का बैन करना अब्बास की मौत पे, या बच्चों, या ज़ैनब की मौत पे - उन सब के अन्दर वो तमाम तरीक़े बैन के मौजूद हैं, जिनका ताल्लुक हिन्दुस्तान की ज़मीन से हैं. वहां जहां पे कर्बला हुआ था वहां पैशन प्ले की शक्ल में मुहर्रम के ज़माने से एक बिल्कुल दूसरी किस्म की पद्धति चलती आई है. यहां जो मुहर्रम के शेर नाचते हैं, हमारे यहां रायपुर में, दक्कन में, बस्तर में, जगदलपुर में, चारों तरफ साउथ में, शेरे अली के नाम से उसके अंदर हिन्दू संस्कार बहुत से मिलते हैं. और मुहर्रम में जो बग़ैर बाजों के सोज़ पढ़ा जाता है, उसको ‘गाया जाता है’, नहीं कह सकते. कहना मायूब भी समझा जाता है. उसमें कोई साज़ नहीं होता मगर बड़ी खुली पाटदार आवाज़ में अच्छा सोज़ पढ़ने वाले, बड़े अच्छे सुर में टीप की आवाज़ में सुनाते हैं. उस में दख़ल नहीं है, मुसलमान कौन है और कौन हिन्दू है, सबकी आंखों में आंसू आ जाते हैं. यह सब हमारे संस्कार और घुले - मिले संस्कार जिनका बहुत गहरा ताल्लुक धर्म से, मज़हब से हैं. एक दूसरे पर जो असरअंदाज़ हुए हैं हमारे मज़ाहिब, उनसे भी इसका ताल्लुक रहा है. जब उर्दू शायरी में गालिब यह कहते हैं :  
वफ़ादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले ईमां है.
मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को 
हिन्दुस्तान का शायर ही इस तरह की बात कह सकता था. इस कल्चर से वो वाकिफ है. ब्राह्मण की वो तारीफ़ कर रहे हैं कि अगर उसमें वफ़ादारी, उस्तवारी है, कन्सिसटैंसी है दुर्योधन की तरह की - सुई के नोक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा - सौ भाई मरवा दिये, कटवा दिये, आखिर तक नहीं माना, नतीजतन हार गया. लेकिन जब पांडव सिधारे और वहां पहुंचे तो देखकर दंग थे कि दुर्योधन को स्वर्ग में जगह मिली है. पर जवाब मिला कि आदमी में वफादारी थी, इन्टिग्रिटी थी, कन्सिस्टैंसी थी, एक बात पर अड़ा रहा तो आखिर तक अड़ा रहा. तो ग़ालिब भी यही कह रहे हैं कि अग्रर ब्राह्मण पैदा हुआ है बुतखाने में, सनम की पूजा करते हुए, बुतपरस्ती करते हुए, काफ़िर है, कुफ्र पर आखिर तक, मरते दम तक कायम हैं. बीच में एक कड़ी गायब करके ग़ालिब ने कहा है :
 वफादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले इमां है.
मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बिरहमन को.
 द क्विन्टेसेंस ऑफ़ फ़ेथ इज़ कन्डीशंड बाए कन्सिस्टैंसी, इफ़ दैट प्रीमाइस इज़ करैक्ट, दैन - मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बिरहमन को. तो पैदा तो बुतख़ाने में हुआ, कुफ़्र की भूमिका में, उसकी फ़िज़ाओं में पैदा हुआ, पला, बीच में छोड़ा नहीं. उन्होंने सिर्फ़ मरने का ज़िक्र किया है. तो ईमान का तो पक्का था. इसलिए कि अगर ईमान का मूल रूप उसका सत्य है, उस्तवारी है, कन्सिसटैंसी है -  उसको उन्होंने पहले डिफ़ाइन कर दिया है - वफ़ादारी - फ़ेथफुलनैस कन्डीशंड बाए कन्सिस्टैंसी इज़ द क्विन्टेसेंस ऑफ फ़ेथ. अगर ये सच है तो फिर उसको वहां ले जाओ और बड़े ताम - झाम से, एहतमाम से काबे में उसको गाढ़ो. तो खै़र काबे में तो कोई ब्राह्मण नहीं जायेगा गढ़ने के लिए. लेकिन कहने के लिए उन्होंने ये कहा कि वह क़ाबिल - ए - एहतराम है, उतना ही जितना कोई भी ईमानदार आदमी हो सकता है. 
फिर सुब्बह और ज़ुन्नार का हमारे यहां उर्दू शायरी में आप को बार - बार ज़िक्र मिलेगा. सुब्बह और ज़ुन्नार का मतलब जनेऊ और जाप की माला. ये प्रतीक, सिंबल्स बन जाते हैं. तो संस्कृति कहां - कहां से फूट के निकली है, कैसे वो पनपी है और कहां तक पहुंची है. मोमिन जब कहते हैं :
 उम्र सारी तो कटी इश्क़े बुतां में मोमिन.
आख़री वक्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे..
तो लफ्ज़े बुत से फ़ायदा उठा के, बुत यानी माशूक, अल्लाह के सिवा किसी और की परस्तिश इस्लाम में नाजायज़ है, वो वाहिद है, इनडिविज़बल है, एक है. ‘दुई’ को वो बरदाश्त नहीं करता है. उसके पास अल्लाह के अलावा कोई और नहीं है जिसकी परस्तिश की जाए. और मैं हसीनाओं की परस्तिश करता रहा हूं उतनी ही शायद ज़्यादा बनिस्बत अल्लाह के, तो मैं क़ाफ़िर हुआ. अब मैं आखि़री वक़्त में मुसलमान क्या खा़क होऊंगा. किस बैकग्राउन्ड से शेर कहा गया है, इस पर गौर करें. बुतपरस्ती, बुतशिकनी इनकी आपको हज़ार मिसालें मिलेंगी. मीर तक़ी मीर कहते हैं : 
मीर के दीनो मज़हब को पूछते क्या हो के उन्ने तो.
कश्का खैंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया..

तो मीर साहब ने तो तिलक लगा ली थी, मंदिर में बैठ गए. इस्लाम तो इजाज़त नहीं देता इन चीज़ों की. मगर वो वहां बुतख़ाने में बैठा. उसका भी इशारा बुतों के इश्क़ से है, हसीनाओं की मुहब्बत से है. उस किस्म की वालिहाना मुहब्बत जो कि जायज़ है खुदा के लिए. पर अगर वो इन्सान के लिए बरती जा रही है तो वो काफिर है. तो ये किस मुल्क का शायर कह सकता है सिवाय हिन्दुस्तान के? हिन्दू मज़हब तो और कहीं नहीं है. फ़ारसी की जो ग़ज़लें हैं उसके अंदर ये मिसालें आपको नहीं मिल सकतीं, हालांकि उर्दू की गज़ल के ऊपर बड़ा गहरा असर फ़ारसी की रवायतों का है. लेकिन इसके बावजूद ये सिर्फ हिन्दुस्तान का शायर कह सकता था. जिसकी मैंने आप को मिसालें दीं.

यास यगाना चंगेज़ी लखनवी बड़े अच्छे शायर थे, अभी हाल ही में उनका इन्तक़ाल हुआ. उनकी सोहबत से हमें भी बड़ा फ़ायदा हुआ. उनकी बातें भी बहुत पुरलुत्फ़ थीं और शेर बहुत अच्छे. बहुत ख़राब शेर भी कहते थे. ग़ालिब दुश्मनी में उन्होंने बहुत से उल्टे - सीधे शेर भी कहे हैं. लेकिन जो सरदार जाफ़री ने उनको छांट के, बुखारी के हुक्म पे छोटा सा इन्तखा़ब निकाला है, उसमें से आप एक मिसरा भी नहीं हटा सकते, सब का सब पूरा शाहकार है, मास्टरपीस. मुरसां ग़ज़लें हैं, मतले से लेकर मक़्ते तक. लखनऊ के बारे में उन्होंने कहा है - उसमें एक शेर है : 
सब तेरे सिवा काफ़िर आखिर इसका मतलब क्या.
सर फिरा दे इन्सां का, ऐसा  ख़ब्ते मज़हब क्या..

बहुत पुरलुत्फ़ शायर थे.

मूज़ीयों के मूज़ी को पड़ चुके बहुत पाले, डस चुके बहुत काले
मूज़ीयों के मूज़ी का फ़िक्रे नेशे अक़रब क्या.
सर फिरा दे इंसां का ऐसा ख़ब्ते मज़हब क्या
सब तेरे सिवा काफ़िर आखि़र इसका मतलब क्या.

शेख़ जी के मुखा़तिब है, ज़ाहिर है मुल्ला से कट्टरपन के खिलाफ़. मुल्लापन के खि़लाफ़ उर्दू शोअरा की पूरी सफ़ खड़ी है. 
ऐ मोहतसिब न फ़ेंक, अरे मोहतसिब न फ़ेंक
ज़ालिम शराब है, अरे ज़ालिम शराब है.

जिगर मुरादाबादी का शेर है. मोहतसिब यानी सैंसर करने वाला कौन हो सकता है सिवाय शासन के और मुल्ला के. और ‘‘मस्जिद के ज़ेरे साया ख़राबात चाहिए’’ 
टोटली अण्डरमाइनिंग ऑल फ़ंडामैंटलिज़्म, के मस्जिद के पास ही अगर शराबख़ाना भी हो तो दोनों चीज़ें कर लेंगे. शराब भी पी लेंगे और नमाज़ भी पढ़ आयेंगे. दोनों चीज़ों से बेफ़िक्री. मैं उर्दू शायरी की रवायतों से निकला हूं तो चुनांचे ये मिसालें ज़्यादा दे रहा हूं. हज़ारों चीज़ें आपको दूसरी जगहों से मिल जायेंगी. चाहे वो महादेवी वर्मा हों, मुक्तिबोध हों, निराला हों, और शुअरा हों, रघुपति सहाय फ़िराक हों, पंडित दयाशंकर नसीम हों, पुराने लोगों में अकबर इलाहाबादी हों. इन तमाम के अन्दर ये हमारी विरासत, ये हमारा विरसा, हैरिटेज रहा है. चुनांचे धर्म का बड़ा ज़बरदस्त कंट्रीब्यूशन कल्चर की तरफ रहा है. नज़ीर अकबराबादी का नाम मैं भूल गया : 
ज़ोर बलदेव जी का मेला है
ज़र अशर्फ़ी है, पैसा धेला है
वाह क्या - क्या वो खेल खेला है
भीड़ है, ख़ल्क़तों का मेला है
मोतिया है, चमेली, बेला है
ज़ोर बलदेव जी का मेला है

महादेव का ब्याह, या सब मिलकर अरदास करो और सब जन बोलो वाहे गुरु. तो धर्म से ताने - बाने हमारे कल्चर के इतनी गहराई से मिले हुए हैं कि उनको अलग नहीं किया जा सकता. 
साम्प्रदायिकता को क्या धर्म का लाज़मी अंश माना जा सकता है? क्या हम अगर अपने - अपने धर्म का पालन करते हैं और कल्चर उसका इतना फ़ायदा उठाता है, तो क्या हम ये कहेंगे कि दुनिया के सभी मज़हबों में सबसे अच्छा इस्लाम है या हिन्दू मज़हब है और जो ब़ाकी लोग हैं वो निकम्मे हैं, घटिया, कमतर हैं. वो ब्लू आईड आर्यन्स, जिनको हिटलर ने कहा था, वो नहीं हैं. ये काले बाल, काली आंखों वाले यहूदी हैं, जिनको खत्म कर देना ऐन सबाब का काम है; ये तो किसी मज़हब में आपको नहीं मिलेगा. तो साम्प्रदायिकता का कोई ताल्लुक कल्चर से नहीं है. धर्म का मगर है. साम्प्रदायिकता का संबंध क्या धर्म से है? नहीं है. संस्कृति का धर्म, मज़हब से बहुत गहरा ताल्लुक है. लेकिन साम्प्रदायिकता का न कल्चर से ताल्लुक है न धर्म से. ये बात आप और हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि ये कोई और चीज़ है, इस चिड़िया का कुछ और ही नाम है. इसके पॉलिटिकल कॉम्पलीकेशन हैं, ये पैदा की गई हैं, पहले नहीं थी. अंग्रेजों ने इसे पाला - पोसा, बढ़ाया, पनपाया. जनम का निहायत उम्दा नाटक, चटगाँव पर मैंने कल देखा. उसमें बहुत भड़काने की कोशिश की गई कि मुसलमानों को मार रहे हैं हिन्दू -  निकलो बाहर ताकि उनको मारा जाए और फ़साद शुरू किया जाए -  लेकिन वो नहीं निकले. हैदर अली और टीपू सुल्तान जो मैसूर में थे और आसिफ़दौला और निज़ाम - उल - मुल्क हैदराबाद में थे. मराठों के साथ अंग्रेजों की साज़ - बाज़ थी कि कुछ कांट - छांट करें. सारी हिस्ट्री इस से भरी हुई है. 
बहुत दूर अगर न जायें तो साम्प्रदायिकता की इमीडियेट इब्तिदा, कि कहां से शुरू हुई तो हमको 200 साल के अन्दर की ये हिस्ट्री मिलती है; गद्दारों की हिस्ट्री. इक़बाल कहते हैं :
‘‘जाफ़र अज़ बंगाला सादिक़ अज़ दकन
नंगे मिल्लत, नंगे दीन, नंगे वतन’’

बंगाल से उठे जाफ़र और मैसूर (दकन) से उठे सादिक और ये मिल्लत, यानी कम्युनिटी के नाम पर लानत थे, मज़हब के नाम पर लानत थे, और वतन के नाम पर लानत थे. तो उसमें नंगे मिल्लत, नंगे दीन, दीन का मतलब मज़हब़, नंगे वतन. इस पर एक जाफ़री ने जो लाहौर के हुआ करते थे और मज़ाहिया और तनज़िया शायरी बड़ी अच्छी करते थे, जैसे उन्होंने आज़ाद नज़्म का व्यंग्य लिखा था :
एक मिसरा फीले ब़े ज़ंजीर का मानिंद 
लम्बा चौड़ा वो मिसरा था. हाथी के पांव की लम्बी सी ज़ंजीर की तरह का मिसरा. दूसरा उशतुर की दुम, ऊंट की दुम. इस तरह की शायरी करते थे. इक़बाल के शेर पे मज़ाक उड़ाते हैं :
गांधी अज़ गुजरातो
भावे अज़ दक्कन
नंगे पांव, नंगे सर, नंगे बदन. 
नंगे का मतलब ही बदल दिया उन्होंने. नंग का मतलब लानत है. तो यह हमारी कल्चरल हैरीटेज है. साम्प्रदायिकता का कोई ताल्लुक हमारी विरासत से नहीं है. ये कुछ अंग्रेजों की देन है, कुछ हिटलर महोदय की देन है. साम्प्रदायिकता और फ़ासिज़्म में बहुत कम फ़र्क़ बाक़ी रह गया है. 
(जारी- अगली किस्त में समाप्त)

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