Saturday, November 9, 2013

सरकार को विरोध बर्दाश्त नहीं

सरकार को बरेली बड़ा बाईपास का विरोध बर्दाश्त नहीं

- कुशल प्रताप सिंह

बरेली जिले में बड़े बाइपास का मुद्दा एक बड़े किसान संघर्ष के रूप में उभरा है. बाइपास का निर्माण बरेली की आवश्यकता है ताकि शहर को भारी ट्रैफिक से मुक्ति मिले. इसके लिए किसानों से ज़मीन ली जानी थी. जनहित कार्य के लिए किसानों को अपनी पुश्तैनी जमीन देने से गुरेज़ नहीं है, वे उचित मुआवज़े कि मांग कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं. उचित मुआवज़ा किसानों का अधिकार है. वे इसी कारण आंदोलित हैं. प्रशासन हठयोग कि मुद्रा में है, वो जोर दे रहा है किसान उसे स्वीकार करें और अपनी पुश्तैनी जमीनें छोड़ दें. इन्हीं बातों का नतीजा रही 22 अक्टूबर की भूड़ा गांव की घटना जिसमें किसानों और पुलिस के बीच संघर्ष हुआ.

बरेली जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 24 के मुरादाबाद-बरेली सेक्शन तक के भूखंड के निर्माण (चौड़ा करने/चार लेन का बनाने, बाइपास बनाने आदि) का कार्य चल रहा है. बरेली में बनने वाले 29 किलोमीटर के इस बाइपास में 33 गाँव आते हैं. इस कार्य के लिए जमीनों का अधिग्रहण दो अधिनियमों के अंतर्गत किया गया है. पहला भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 और दूसरा राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम 1956.

मुख्यतः जो किसान आंदोलित हैं उनकी भूमि का अधिग्रहण भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के आशय कि अधिसूचना दिनांक 20.12.2003 को उक्त अधिनियम कि धारा 4 (1) के अंतर्गत की गयी थी. दिनांक 09.12.2004 को अधिनियम कि धारा 6 के अंतर्गत एक और अधिसूचना जारी की गयी जिसमें कहा गया कि धारा 11 के अंतर्गत अभी किसी अवार्ड कि घोषणा नहीं की गयी है और अधिनियम की धारा 17 (1) के अत्यवाश्यकता खंड के अंतर्गत भूमि का अधिग्रहण किया जा सकेगा. 

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने नेशनल हाइवे डेवलपमेंट प्रोग्राम फेज III के अंतर्गत राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 24 (मुरादाबाद-बरेली) के 121 किलोमीटर खंड के निर्माण (चौड़ा करने/चार लेन का बनाने, बाइपास बनाने आदि) का कार्य दिसम्बर 2009 से प्रारम्भ किया था. दिनांक 16.02.2010 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बाइपास निर्माण का कार्य भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को हस्तांतरित कर दिया गया.

2003 से 2010 तक उत्तर प्रदेश लोक निर्माण विभाग द्वारा कोई निर्माण कार्य प्रारम्भ नहीं किया गया. जमीन किसानों के पास ही रही और वे पूर्व कि भांति खेती करते रहे. इस दौरान भूमि अधिग्रहण का कार्य पूरा नहीं हो पाया था और बाइपास का निर्माण सरकारी फाइलों में ही हो रहा था.

निर्माण कार्य राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के पास पहुँचने के बाद इस पूरे मामले में तेजी आई और प्रशासन ने भूमि अधिग्रहण का कार्य तेज कर दिया. भूमि अधिग्रहण 1894 के अधिनियम और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाई गई करार नियमावली-1997 के तहत किया गया. करार नियमावली कहती है कि करार अर्जन निकाय और किसानों के मध्य होना चाहिए. यहाँ अर्जन निकाय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण है अतः समझौता प्राधिकरण और किसानों के मध्य होना चाहिए था जिसमें मुआवज़ा, अन्य लाभ व विस्थापन से जुड़ी बातें आपसी सहमति से तय होनी थी. किसानों का आरोप है कि करार नियमावली-1997 की अवहेलना कर किसानों के साथ प्राधिकरण का समझौता न करा कर जिलाधिकारी बरेली ने अपने नेतृत्व में प्रतिकार निर्धारण समिति बनाकर एक तरफा ढंग से मुआवज़े कि राशि तय कर दी. इस प्रकार किसानों को मिल सकने वाले अन्य लाभों से वंचित कर दिया गया. 

प्रतिकार निर्धारण समिति का गठन की व्यवस्था किसानों के हित के लिए है. यदि मुआवज़े की दर कम रहती है या किसान संतुष्ट नहीं होते तो ये समिति किसानों और अर्जन निकाय से बात कर के मुआवज़े कि दर इस तरह तय करवाये कि किसान संतुष्ट हो सके. स्पष्ट है कि प्रशासन द्वारा नियमों का उल्लंघन किया गया है. अभी भी किसानों की मूल मांग यही है कि अर्जन निकाय के साथ हमारे करार, मुआवज़े की दर, विस्थापन की दरें आदि तय करायी जायें. 

प्रशासन द्वारा मुआवज़े की दर 2010 के सर्किल रेट को आधार मानकर तय की गयी है. किसानों का आरोप है कि रेट तय करने के बाद भी उनके साथ भेदभाव किया गया. उनका आरोप है कि 2010 में ट्यूलिया धन्तिया गांवों में, जो कि भाजपा के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के गाँव हैं, 28 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर सर्किल रेट था जिसका मुआवज़ा 61 और 65 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर कि दर से दिया गया. वहीं सैदपुर चुन्नीलाल का सर्किल रेट 25 लाख प्रति हेक्टेयर व मुड़िया अहमद नगर का 30 लाख प्रति हेक्टेयर से अधिक था फिर भी इन गांवों में मुआवज़ा 25 लाख प्रति हेक्टेयर की दर से दिया गया. प्रशासन कहता है कि ट्यूलिया गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग के निकट स्थित है इस कारण इसकी मुआवज़े की दर अधिक है जबकि किसानों का कहना है कि ट्यूलिया गाँव की दूरी राष्ट्रीय राजमार्ग से एक किलोमीटर से भी अधिक है. वहीं मुड़िए, अहमद नगर, बेलवा, नगरिया गोपालपुर, रजउपरसपुर तो राष्ट्रीय राजमार्ग पर ही स्थित हैं फिर इन गाँवों में मुआवज़े कि दर ट्यूलिया गाँव के बराबर क्यों नहीं है. 

तकरीबन 67 हेक्टेयर ज़मीन ऐसी थी जिसके मालिक किसानों ने करार नहीं किया था, वह दी जाने वाली दरों से संतुष्ट नहीं थे, इसलिए उन्होंने सामान्य की तरह अपनी ज़मीन पर धान गणना व अन्य फसलें बो रखी थीं. 21 अक्टूबर को इन गाँवों में आर..एफ. पहुँच गई. आर..एफ. को खेतों में देख कर किसान अचंभित हुए. किसानों का कहना है कि उन्हें बिना कोई मोहलत दिए उनकी करीब एक हज़ार बीघे में खड़ी फसलों पर जेसीबी और ग्रेडर मशीनें चला दी गईं उनके खेतों को रौंद दिया गया. इस प्रकार प्रशासन द्वारा बिना मुआवज़ा दिए उनकी पुश्तैनी ज़मीनों को जबरन कब्ज़ा लिया गया. प्रतिरोध करने पर किसानों, महिलाओं और बच्चों को बुरी तरह पीटा गया. 

अगले दिन 22 अक्टूबर को भूड़ा गाँव में ग़दर हो गया. वहाँ भी किसान जेसीबी और ग्रेडर मशीनों के आगे खड़े हो कर अपनी फसल काट लेने कि मोहलत मांग रहे थे, लेकिन प्रशासन ने उनकी एक नहीं सुनी. गांववालों को बेरहमी से पीटा गया. एक 80 साल के बुज़ुर्ग के पैर टूट गए. उस दिन कोई बचा नहीं. गाँव वालों से मिलने आये उनके रिश्तेदार, सड़क पर चलते राहगीर पुलिस प्रशासन का कहर सब पर सामान रूप से गिरा. अगले दिन अमर उजाला ने लिखा था कि क्राइम-ब्रांच कि टीम में शामिल नए सिपाहियों ने किसानो पर खूब डंडे बरसाए. पुलिस का कहना था कि गाँव वालों ने हथियारों से लैस हो कर उनपर हमला किया इस कारण उन्हें रक्षात्मक कार्यवाही करनी पड़ी. इस घटना में पुलिस कर्मी भी घायल हुए. 

बड़ा बाइपास किसान आंदोलन का समर्थन रुहेलखंड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ. इसरार खान कर रहे थे. भूड़ा गाँव की घटना के बाद पुलिस ने डॉ. इसरार खान समेत 40 लोगों के विरुद्ध नामज़द और 50-60 अज्ञात लोगों के विरुद्ध आईपीसी कि विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज़ किया था. पुलिस द्वारा 23 अक्टूबर को डॉ. इसरार खान को कुछ अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया था.


(भड़ास से साभार)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

मैंने महज़ सरसरी तौर पर पढ़ा है लेख क्योंकि समस्या को समझना कठिन नहीं है । मेरा मत इतना ही है कि मैंने हरियाणा में अस्सी-नब्बे के दशक से मुआवज़े मिलते देखे हैं और ये भी कि कैसे साइकल खींचने वाले किसान बालक तत्कालीन मारुति 1000 और एस्टीम में भैंस का चारा लाया करते थे लाद कर । बरेली की भूमि भी शस्य श्यामला उर्वरा है । बल्कि मैं अनुभव से कहता हूँ कि यूपी की धरती पंजाब और हरियाणा से अधिक उपजाऊ है तो क्यों नहीं उनको भी उचित मुआवज़ा दिया जाए ? मैं उन्हें फ़ॉक्स वैगन की पोलो में चारा-कुट्टी ले जाते देख कर हर्षित होऊँगा लेकिन इस विषय में धर्म की राजनीति नहीं होनी चाहिए जैसा कि पिछले लेख में देखा कि उनका नाम धर्म विशेष का है सो ऐसा हुआ आदि । ऐसी गंदी बातों से बचना चाहिए । मुआवज़ा तो खूब मिलना ही चाहिए ।