बहुत दिन हुए जब किसी ने पूछा था
-येहूदा आमीखाई
बहुत दिन हुए जब किसी ने पूछा था
कौन रहता था इन मकानों में, और कौन
बोला था यहाँ आख़िरी बार; कौन
भूल गया था अपना ओवरकोट इन मकानों
में
और कौन यहीं रह गया था. (क्यों
नहीं गया वह यहाँ से?)
कोंपलों वाले पेड़ों के बीच एक मरा हुआ
पेड़ खड़ा है,
मरा हुआ एक पेड़.
यह एक पुरानी गलती है, जिसे कभी
समझा नहीं गया,
और मुल्क के एक छोर पर; किसी और के
समय की
शुरुआत. एक नन्ही खामोशी.
और देह और नर्क का पागलपन.
और एक अंत का अंत जो फुसफुसाहटों
में टहला करता है,
हवा गुजरी थी इस जगह से होकर
और एक गम्भीर कुत्ते ने देखा था आदमियों
को हंसते.
1 comment:
पुराना ओवरकोट ही नहीं बल्कि पनीर का टुकड़ा , कॉफ़ी के प्याले का निशान, पुराने अखबार में लिपटे रस्क या फ़ेन, कुनीन की चौथाई गोली, शहद की शीशी का कॉर्क, हल्के बुखार की हरारत,सर में जमा कफ़, सीला हुआ तंबाकू, कमीज़ की जेब से धुलने के बाद निकला इस्तेमालशुदा रेल का टिकट, सेब के सूखे छिलके, गले सेब की गन्ध, पेंसिल को चाबने से पैदा रस यानि वो तमाम अहसासात जो मुझे महसूसते हैं ये साहित्य पढ़ते हुए ।
Post a Comment