Thursday, November 7, 2013

जो मुंह में आए बोल जाएं, शब्दों के यहां दलिद्दर हैं


फ़िराक़ साहब ने किसी ज़माने में भारत की सांस्कृतिक और राजनैतिक दरिद्रता, खोखली देशभक्ति और भाषाप्रेम के साथ साथ अफ़सरशाही पर तंज़ कसते हुए यह नज़्म लिखी थी

राष्ट्र भाषा

-फ़िराक़ गोरखपुरी

सब जुमले टेढ़े मेढ़े हैं अलफ़ाज़ भी हैं रोड़े पत्थर
और इस पर तुर्रा यह है कि हम मीर-ओ-ग़ालिब से हैं बढ़कर
हम नाक काट लें 'सादी' की हम शेक्सपीयर के हैं हमसर
यह अहले-अदब ये अहले-क़लम किस बोली के हैं छूमन्तर
ये क़ौमी ज़बां के मोजिद हैं साहित्यरत्न, विद्यासागर
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बन्दे मातरम

सुनने वालों के होश उड़ें वह पढ़ के मारते अन्छर हैं
जो मुंह में आए बोल जाएं, शब्दों के यहां दलिद्दर हैं
इस ऊबड़ खाबड़ बोली में, वो झक्कड़ और बवंडर हैं
मतलब ही जड़ से उखड़ जाए वो चलते हुए चलित्तर हैं
हम 'हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान' लिख लोढ़ा हैं पढ़ पत्थर हैं
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बन्दे मातरम

क्या हम को समझ रखा है तुमने हम कांग्रेसिये लीडर हैं
हो भैंस चराने की न लियाक़त, पार्लिमेंट के मेम्बर हैं
हम नरक बना दें भारत को, यानी हम लोग मिनिस्टर हैं
मालिक हैं सफ़ेद-ओ-सियाह के हम, हम हिन्दुस्तां के मुकद्दर हैं
भारत की दुखती छाती पर भारी से भारी पत्थर हैं
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बन्दे मातरम

हम गांधियत के नख़रे, गांधियत के नाज़-ए-बेज़ा हैं
जनता को पयामे-ए-मर्ग हैं हम, भारत के गले का फ़न्दा हैं
हम हिन्द की मिटी उमीदें हैं, जम्हूर का ख़ून-ए-तमन्ना हैं
हैं सत्य अहिंसा की मूरत क्या तुमको बताएं हम क्या हैं
सब लोग हमारी जय बोलें, हम राजा हैं, हम परजा हैं
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बन्दे मातरम

3 comments:

azdak said...

वंदे मातरम..

सुशील कुमार जोशी said...

वंदे मातरम ! (वो वाला नहीं जो चलता है ये वाला फ़िराक जी वाला )

मुनीश ( munish ) said...

लगता है फ़िराक़ ब्राह्ण रहे होंगे । ऐसा सिर्फ़ लगता है बाक़ी आप बताएँ ।