Monday, December 23, 2013

रहम खाते सितारे दहकाते हैं दिनों को और भूल जाते हैं खुद को

सीरियाई महाकवि अदूनिस के संग्रह 'दिन और रात के सफ़े' से आज प्रस्तुत कर रहा हूँ तीन महत्वपूर्ण कवितायेँ. पहली तो संग्रह की शीर्षक कविता है जबकि एक और 'खालिदा के लिए एक आईना' अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बना चुकी है. कहना न होगा मैं इस पूरे संग्रह को क्रमशः यहाँ लगाना चाहता हूँ.


दिन और रात के सफ़े

दिन के वक्त से पहले – मैं होता हूँ.
सूरज के तिलिस्म के पहले – जलता हूँ मैं.
पेड़ मेरा पीछा करते हैं.
कोंपलें टहलती हैं मेरी परछाई में.
लेकिन तो भी आने वाला कल
मेरे चेहरे पर निर्माण करता है  
जज़ीरों पर पाए जाने वाले ख़ामोशी के ऐसे
क़िलों का जिनमें प्रवेश करने को
शब्दों को नहीं मिल पाता कोई दरवाज़ा.
रहम खाते सितारे दहकाते हैं
दिनों को और भूल जाते हैं खुद को
मेरे बिस्तर के भीतर.
मेरे सीने के भीतर के स्रोत  
बंद हो रहे हैं जैसे कलियों
होती हैं चन्द्रमा के सामने.
उनके पानी मेरी निगाह को
निर्मलता के आईने में नहला देते हैं
जैसे ख़ामोशी करती है जब मैं जगता हूँ नींद के भीतर.



एक दरख़्त

मेरे पास नहीं कोई तलवार.
मैंने कभी नहीं गढ़ा किसी सिर को.
गर्मियों और सर्दियों में
मैं एक परिंदा होता हूँ
बच भागता हुआ
मूसलाधार भूख से
एक ख़ाली घोंसले के भीतर.
पानी की एक सड़क है
मेरी सल्तनत.
मैं मौजूद हरेक नामौजूदगी में.
दर्द में, पशेमानी में,
बारिश में, रूखेपन में,
दूर या नज़दीक –
मैं स्वामी हूँ हरेक चीज़ के प्रकाश का.
और जाता हुआ,
अपने पीछे बंद कर जाता हूँ
धरती का दरवाज़ा.



खालिदा के लिए एक आईना
१.    लहर
खालिदा
टहनियों के लिए पत्ते बाँधने को एक शाखा

खालिदा
एक सफ़र जो डुबो लेता है मुझे
आँखों के पानी में
एक लहर जिसने मुझे सिखाया

कि तारों की रोशनी
बादलों का चेहरा
धूल की कराह
एक ही फूल हैं सारे के सारे ...

२.    पानी के नीचे

हम सोये रात के कत्थई से
बुने हुए एक कपड़े के भीतर – निहारिकाओं की आँतों की रात
रक्त का उत्साह, किसी झांझ की ताल
पानी के नीचे सूर्यों की बिजली.
गर्भवान थी रात ...

३.    गुम

... एक दफ़ा
मैं गुम हो गया था तुम्हारे हाथों में, मेरे होंठ थे
एक किला
विचित्र विजयों की कामना करते
प्रेम की घेराबंदी के बीच
तुम आईं
तुम्हारी कमर एक सुलतान,
तुम्हारे हाथ सेनाओं का नेतृत्व करती टुकड़ियां,
तुम्हारी आँखें छिपने के वास्ते एक जगह और एक दोस्त.
हम जकड़े रहे एक दूसरे को, उड़ते हुए हमने प्रवेश किया
आग के जंगल में – मैं उकेरता हूँ पहला कदम
तुम खोलती हो रास्ते को.

४.    थकान

वह पुरानी थकान, मेरी जान
खिल रही है घर की बगल में
उसके पास एक दराज़ है अब,
और एक खिड़की.
वह अपनी झोपड़ियों में सोया करती है, और ग़ायब हो जाती है.

उफ़, कितनी फ़िक्र करते थे हम उसकी भटकन की, हम दौड़े
हर जगह,
सवाल पूछते, तांकझांक करते
हम उसे देखते हैं और चीखते हैं : कैसे, और कहाँ?
आ चुकी
हरेक हवा
हरेक टहनी

बस तुम नहीं ...

५.    मृत्यु

तब भोर होना शुरू होती है
दुबारा से घटते हैं कदम और सड़कें
फिर तबाह होना शुरू होते हैं मकान
पलंग बुझाता है अपने दिनों की आग और मर जाता है

यही करता है तकिया भी.

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह एक से बढ़कर एक !