फ़ारूख़
शेख़ से जब मुकाक़ात हुई थी तो पूछा कि आप एक आला दर्जा अदाकार हैं फिर भी आप जैसे
क़ाबिल और हुनरमंद लोगों को उनका ड्यू क्यों नहीं मिलता. फ़ारूख़ भाई ने बड़ी विनम्रता
से कहा था कि यदि आपका सवाल (जो कि था) सिनेमा के हवाले से है तो मैं यह कहूँगा
मूलत: सिनेमा निर्देशक का माध्यम है ... उसका ड्यू उसे ही मिलना चाहिये ... कलाकार
को उसका ड्यू उसकी क़िस्मत से मिलता है ... न भी मिले तो ठीक क्योंकि सच्चा कलाकार
को सिर्फ़ अपने काम से वास्ता रखना चाहिये शोहरत और क़ामयाबी से नहीं.
आज उस बात को याद कर रहा हूँ तो फ़ारूख़ शेख़ की साफ़गोई और सादादिली के लिये श्रद्धा से मन भर उठा है ... क्या आपको नहीं लगता कि किसी के जीते-जी हम उसके प्रति उतनी मुहब्बत नहीं जताते जितनी जाने के बाद ...
आज उस बात को याद कर रहा हूँ तो फ़ारूख़ शेख़ की साफ़गोई और सादादिली के लिये श्रद्धा से मन भर उठा है ... क्या आपको नहीं लगता कि किसी के जीते-जी हम उसके प्रति उतनी मुहब्बत नहीं जताते जितनी जाने के बाद ...
2 comments:
सही बात आदमी का पता सुना है मरने के बाद ही लिखा जाता है :)
असल में जीते जी वो हमारा कंपीटीटर होता है कायनात की ऑक्सीजन सोखने में ,तो हम सोचते हैं कि कल जता लेंगे मोहब्बत । फ़ारूख एक शानदार अदाकार थे और वो हमारे दिलों में तब तक रहेंगे जब तक कि वो धड़कना बन्द होकर उन्हीं के दिल की तरह खाक में नहीं मिल जाते ।
Post a Comment