कविता की कला
उस बड़े घर में जिसका मैं हूँ
सिर्फ़ एक मेज़ बच रही है , अथाह
दलदल से घिरी हुई
अलग -अलग कोनों से मुझ पर चमकता है चाँद
कंकाल का भुरभुरा सपना अब भी बचा हुआ है
दूर कहीं ध्वस्त कर दिए गए किसी चबूतरे की तरह,
और सादे पन्ने पर हैं कीचभरे पैरों के निशान
कई वर्षों तक खाना दिया गया था जिस लोमड़ी को
अपनी गुस्सैल फ़र के झटके से मुझे मनाती है और घायल करती है
और वहां हैं आप , ज़ाहिर है, अब भी मेरे सामने
खुशनुमा मौसम की बिजली जो दमकती है आपकी हथेली में
बदलती है लकड़ी में बदलती है राख में
1 comment:
बहुत सुंदर !
नववर्ष शुभ हो मंगलमय हो !
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