कोई तीन साल पहले कबाड़खाने में बाबा नजीर अकबराबादी की वसंत
छाई हुई थी. आज वसंत पंचमी के अवसर पर उसी वसंत को दोबारा लगा रहा हूँ इस उम्मीद
के साथ कि यह ब्लॉग अब एक नई ऊर्जा से दुबारा खड़ा होगा.
आमीन.
आलम
में जब बहार की लगन्त हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लगन्त हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़न्त हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
मैदां हो सब्ज साफ चमकती रेत हो
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग
महबूब दुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी और मुंहचंग
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों
पर्दे पड़े हों जर्द सुनहरी मकान हों
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
कसरत से तायफो की मची हो उलटपुलट
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट
बैठे हों बनके नाजनी पारियों के गट के गट
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लगन्त हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़न्त हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
मैदां हो सब्ज साफ चमकती रेत हो
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग
महबूब दुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी और मुंहचंग
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों
पर्दे पड़े हों जर्द सुनहरी मकान हों
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
कसरत से तायफो की मची हो उलटपुलट
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट
बैठे हों बनके नाजनी पारियों के गट के गट
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
2 comments:
"ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग
महबूब दुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग"
kay baat hai,kya baat hai,kya baat hai!!!
आमीन !!...मगर ...
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तन्ग गालियों औ' रेगिस्तानो मे उसका अपना सफर है ,
काफिले मोहताज नही रेहगुज़ारों मुसाफिरों के ||
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कबाड़खाना अपने पैरो पर हमेशा था और इंशा अल्लाह ...रहेगा
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