Friday, February 7, 2014

क्या-क्या बसन्त आकर उस वक़्त जगमगाई


नज़ीर अकबराबादी साहेब की बसन्त सीरीज़ से एक और बेमिसाल नज़्म

मिलकर सनम से अपने हंगाम दिलकुशाई
हंसकर कहा ये हमने ए जां! बसन्त आई
सुनते ही उस परी ने गुल गुल शगुफ़्ता हो कर
पोशाक ज़रफ़िशानी अपनी वोही रंगाई
जब रंग के आई उसकी पोशाक पुर नज़ाकत
एक पंखुड़ी उठाकर नाज़ुक सी उंगलियों में
रंगत फिर उसकी अपनी पोशाक से मिलाई
जिस दम किया मुक़ाबिल कसवत से अपने उसको
देखा तो उसकी रंगत उस पर हुई सवाई
फिर तो बसद मुसर्रत और सौ नज़ाकतों से
नाज़ुक बदन पे अपने पोशाक वह खपाई
चम्पे का इत्र मल के मोती से फिर खुशी हो
सीमी कलाइयों में डाले कड़े तिलाई
बन ठन के इस तरह से फिर राह ली चमन की
देखी बहार गुलशन बहरे तरब फ़िज़ाई
जिस जिस रविश के ऊपर आकर हुआ नुमायां
किस किस रविश से अपनी आनो अदा दिखाई
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन चमन में
वह ज़र्द पोशी उसकी वह तर्ज़े दिलरुबाई
सदबर्ग ने सिफ़त की नरगिस से बेतअम्मुल
लिखने को वस्फ़ उसका अपनी कलम उठाई
फिए सहन में चमन के आया बहुस्नो ख़ूबी
और तरफ़ा तर बसन्ती एक अंजुमन बनाई
उस अन्जुमन में बैठा जब नाज़ो तमकनत से
गुलदस्ता उसके आगे हंस हंस बसन्त लाई
की मुतरिबों ने ख़ुश ख़ुश आग़ाज़े नग़्मा साज़ी
साक़ी ने जामे ज़र्रीं भर भर के मै पिलाई
देख उसको और महफ़िल उसकी नज़ीरहरदम
क्या-क्या बसन्त आकर उस वक़्त जगमगाई

4 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना शनिवार 08/02/2014 को लिंक की जाएगी............... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
कृपया पधारें ....धन्यवाद!

आपका अख्तर खान अकेला said...

kya baat hai jnaab velentaain abhii se

abcd said...

"आग़ाज़े नग़्मा साज़ी" है ये बसंत की .

बसंत की दस्तक तो हो जाती है हर साल ,लेकिन नज़ीर को पढ़े बगैर दिल मे नही उतारता ,अब पढ़ लिया ,अब ठीक है |

abcd said...


सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता