-वीरेन डंगवाल
एक.
पिछले साल मेरी उम्र ६५ की थी
तब मैं तकरीबन पचास साल का रहा होऊंगा
इस साल मैं ६५ का हूँ
मगर आ गया हूँ गोया ७६ के लपेटे में.
ये शरीर की एक और शरारत है.
पर ये दिल, मेरा ये कमबख्त दिल
डाक्टर कहते हैं कि ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस
फीसद पर काम कर रहा है
मगर ये कूदता है, भागता है, शामी कबाब और
आइसक्रीम खाता है
शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता
है इन्कलाब जिंदाबाद कहते हुए
या कोई उम्दा कविता पढ़ते हुए अभी भी भर लाता
है इन दुर्बल आखों में आंसू
दोस्तों – साथियों मुझे छोड़ना मत कभी
कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूँगा प्यार से
दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा.
दो.
शरणार्थियों की तरह कहीं भी
अपनी पोटली खोलकर खा लेते हैं हम रोटी
हम चले सिवार में दलदल में रेते में गन्ने
के धारदार खेतों में चले हम
अपने बच्चों के साथ शरद की भयानक रातों में
उनके कोमल पैर लहूलुहान महीनों चले हम
पैसे देकर भी हमने धक्के खाये
तमाम अस्पतालों में
हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया
सिला गया भूंजा गया झुलसाया गया
तोड़ डाली गईं हमारी हड्डियां
और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजेहद
हमें हिफाजत से रखने की थीं.
हमलावर चढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से
पंजर दबता जाता है उनके बोझे से
मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए
ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया
कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ
तुमसे मैं .
4 comments:
जी भर के
जी रही है
जिंदगी
उसके साथ
उसकी कविताऐं
भी जैसे।
अच्छी कविता। वीरेन दा का बधाई
sharad ki rate bhayanak kahan hoti hai aine sabhi ashok,poos ki hoti hai.masudhar b to kiye the sanje k saathine sabhi kavitaon me kuch
हमेशा की तरह प्यारी कविता,
सादर
सुषमा
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