Monday, March 24, 2014

किसका है ये मीडिया, किस काम का

भाई शिवप्रसाद जोशी ने यह लेख मुझे कुछ समय पहले भेजा था. कतिपय कारणों से इसे पोस्ट करने में मुझे देरी हो गयी. उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.


किसका है ये मीडिया, किस काम का

- शिवप्रसाद जोशी

इधर राजनीति में जो अकुलाहट, अनैतिकता और अधीरता आई है उसमें मीडिया वालों को ये समझा दिया कि वे तो वाकई शक्तिशाली हैं, कुछ भी कर या दिखा सकते हैं. मीडिया की दबंगई पर बोलने वाले राजनीति में रहे नहीं. कॉरपोरेट मालिकों की क्रॉस ओनरशिप्स और वर्टिकल और हॉरिजेंटल इंटीग्रेशन की मुनाफ़ाकांक्षी रणनीति ने मीडिया को तो और शेर बना दिया. लेकिन सारा मीडिया, वे ही कुछ चंद लोग, हाईआरकी में ऊपर पदासीन. दो तीन परतें. बस और उनके साथ मालिक मैनेजमेंट और पीआर एजेंसियां. ये कुछ लोगों का सत्ता रिंग राजनीति के सत्ता घेरे से बड़ा है. उसे कवर करता है. सरकार का घेरा और अंदर धीरे धीरे घूमता है बाहरी दो घेरों के प्रताप से संचालित.

ऐसे में अपना छल्ला इस चक्र के भीतर चक्र की गति में उछालकर इस मगन चक्कर को अटकाने का काम अरविंद केजरीवाल ने किया है. ज़ाहिर है घेरेवालों के लिए ये नाक़ाबिलेबर्दाश्त है. बदतमीज़ी है. उनके मुताबिक केजरीवाल उनके ही बनाए हुए हैं. और वो अपनी निर्मिति के मंच भूल गए. अरविंद केजरीवाल अपने पत्ते ख़ूब चल रहे हैं. उन्होंने मीडिया की बांह ऐसे समय मरोड़ी है जब वो मोदी के पीछे लहालोट हुआ जा रहा है. और सब, जैसा समयांतर में दरबारी लाल ने लिखा है, इस यज्ञ में अपनी आहुति देने के लिए होड़ में हैं.

टीवी मीडिया के कुछ सूरमा ऐसे विचलित हुए घूम रहे हैं जैसे सरेराह किसी ने उनके कपड़े उतार लिए हों. सब अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ समवेत निंदा फटकार में खड़े हैं. आप गंदा काम करेंगे, जनता से दूर भागेंगे, कॉरपोरेट हितों के नाम पर अपने एथिक्स और अपने विवेक से समझौता कर लेंगे और कहेंगे हम टीवी कर रहे हैं हम समाचार कर रहे हैं, ऐसा कहां होता है.

पहले भी ये सवाल पूछे गए थे, लेखक और एक्टिविस्ट बिरादरी सत्ता और पूंजी के इन गठजोड़ों पर सवाल उठाती रही है- वे ज्ञात अज्ञात लोग हैं- हिंदी और विभिन्न भाषाओं में सक्रिय ब्लॉगर बिरादरी हैं, लेखक, रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, आंदोलनकारी हैं- वे सच्चे और बेचैन युवा हैं- ये सारा ताप, सारा होमवर्क अरविंद तक गया है. कोई माने या न माने. अरविंद भी न मानें तो भी. यही जनता की उत्कट आकांक्षा का उभार है जो लेखन में और अन्य बेचैनियों में उछाड़पछाड़ करता रहा है. वाम दलों से अपेक्षा थी कि वो इस थरथराहट को अपने हाथ में लेते. वे दूर रहे. और अधमियों की आग  निगलने आती रहीं.

बेशक अरविंद केजरीवाल ने मीडिया से सवाल अपनी रणनीति का सही वक़्त आ जाने पर ही पूछे हैं लेकिन हमारी तसल्ली यही है कि वोटों की इस अखिल भारतीय लड़ाई में ये जोखिम मोल तो लिया. कुछ जेनुइन पूछा तो सही. आख़िर इतने लंबे समय के सवालों को इकट्ठा कर मंच से मीडिया की ओर फेंकने का साहस तो किसी ने किया. लेकिन संघर्ष और प्रतिरोध की उस ख़ामोश बिरादरी को सैल्यूट करना न भूलें. 

इसलिए मीडिया से हम यही कहते हैं उलटे सवाल मत पूछिए, उसका आपको हक़ नहीं रहा. ये बताइये कि आपकी ये आक्रामकता आपके ये तेवर नरेंद्र मोदी तक आते आते कैसे हिरन हो जाते हैं. आप पड़ोसी के खेत में चरकर लौटी गायों की तरह क्यों बिहेव करते हैं जो अपने को खूंटों में बांधे जाने के लिए आवाज़ लगा रही हैं. क्या मीडिया किसी के खूंटे से बंधी गाय होता है.

और वो सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल आज के चुनाव का, इस होली के बाद का और जब तक वोट नहीं पड़ जाते नई सत्ता दिल्ली नहीं आ जाती तब तक का, ये सवाल कि आख़िर आज़ादी के बाद के सबसे बड़े झूठों में से एक और 2002 के बाद एकछत्र झूठ - गुजरात मॉडल - को किसने पोसा किसने संवारा किसने हवा दी. इस मॉडल की सच्चाई जनता को बताने से परहेज़ क्यों किया. और जो बताया टुकड़ों टुकड़ों में- कि सनसनी बन जाए संवेदना न बने कभी. एक मॉमेंटम कभी न बन पाए.

जैसे सबसे सवाल पूछे जा सकते हैं, मीडिया के लोगों से भी, मीडिया से भी सवाल पूछे जा सकते हैं. इस समय तो पूछना ही चाहिए. वो कौनसी पब्लिक डिस्कोर्स के बाहर की चीज़ है. कब से हो गई.



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