मैक्सिकी कवि, निबंधकार और राजनैतिक विचारक
ओक्तावियो पाज़ (३१ मार्च, १९१४ - १९ अप्रैल १९९८) के काम में तमाम प्रभाव नज़र आते हैं जिनका विस्तृत फलक अपने भीतर
मुख्यतः मार्क्सवाद, अतियथार्थवाद और अज़तेक गाथाओं को समाहित किये हुए है.
मैक्सिको सिटी में जन्मे पाज़ ने नेशनल
यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैक्सिको में पढाई की लेकिन १९३६ में उन्होंने सब कुछ छोड़ छाड़ कर
गरीब बच्चों की सेवा करने के लिए ग्रामीण यूताकान का रुख किया. १९३७ के स्पानी गृह
युद्ध में उन्होंने हिस्सा लिया था. बाद में कुछ समय तक एक वामपंथी पत्रकार और
मैक्सिकी कूटनीतिक के तौर पर काम करने के बाद उन्होंने लेखन पर ध्यान केन्द्रित
किया.
उनकी किताब ‘एल लाबेरिन्तो दे ला सोलेदाद’ जिसने
उन्हें संसार भर में ख्याति प्रदान की, मैक्सिको की धरोहर की पड़ताल करने वाला
अनूठा दस्तावेज़ है. उनकी लम्बी कविता ‘पीयेद्रा देल सोल’ (सूर्य शिला) में
विरोधाभासी छवियों का इस्तेमाल हुआ है जो अज़तेक सभ्यता के कैलेण्डर के इर्द गिर्द
घूमती हैं और व्यक्तियों के निजी एकाकीपन और दूसरों के साथ मिलने की उनकी इच्छाओं
को रेखांकित करती हैं.
१९९० में उन्हें साहित्य का नोबेल मिला.
१९६२ में वे भारत में मैक्सिकी राजदूत बनाए गए.
लेकिन ओलिम्पिक खेलों के ठीक पहले मैक्सिकी सरकार द्वारा प्रदर्शन कर रहे २००
छात्रों की हत्या किये जाने के विरोध में उन्होंने १९६८ में इस पद से त्यागपत्र दे
दिया. १९७१ में उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘प्लूरल’ (जिसका नाम बाद में वूएल्ता
कर दिया गया) का प्रकाशन शुरू किया. समाजवाद और स्वतंत्रता की पैरवी करती यह
पत्रिका मैक्सिकी जनता को कम्यूनिस्ट और अमेरिकी प्रभाव से बाहर आने का आह्वान
करती थी.
उनकी एक छोटी कविता -
पुल
अभी और अभी के दरम्यान
मैं हूँ और तुम हो के दरम्यान
शब्दों का पुल.
उस पर प्रवेश करते हुए
तुम प्रविष्ट होते हो अपने भीतर
संसार जुड़ता है
और बंद होता है किसी अंगूठी की मानिंद
एक किनारे से दूसरे तक
एक देह पसरी रहती है
हमेशा:
एक इन्द्रधनुष
मैं सोऊंगा उसकी मेहराबों के तले.
1 comment:
वाह छोटी सी कहाँ है ?
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