Friday, April 4, 2014

मैं तुम्हारी भाषा में अपना अनुवाद होना चाहता हूं.


गंगोलीहाट, ज़िला पिथौरागढ़ के रहने वाले छब्बीस साल के उमेश पन्त दिल्ली में कुछ मीडिया वगैरह से वाबस्ता हैं. उनसे मुलाक़ात कोई हफ्ते भर और एक ‘ओल्ड कास्क’ रम की बोतल पुरानी है. उनकी ये कवितायेँ बहुत भरोसा दिलाती हैं कि इस मुश्किल, असंभव समय में भी प्रेम संभव है, कि लड़कपन और नई जवानी की मासूमियत बरकरार है और अपने लफ़्ज़ों से आपको गुदगुदा सकने की उसकी ताब में कोई कमी नहीं आई है. शुक्रिया उमेश बाबू इन कविताओं को कबाड़खाने पर भेजने के लिए-  


इफ़रात


काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए.
कुछ बनने की शर्त को 
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में.
और निश्चिंत होकर
लगाता, 
सूरज में रोशनी का अनुमान.


रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाई पर
और देखता उसे
सुनहला होते.


हवा के बीच कहीं ढ़ूंढ़ता फिरता
बेफिक्र अपने गुनगुनाये गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए.


मैं आइने में खुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है 
मन माफिक.
आइने में सिमट जाता
ओस की बूंदों सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में. 
 

मेरी आंख बंद होती

मुठठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में 
इफ़रात से.

 

तुम्हारा ख़याल

 

तुम्हारा ख्याल

गर्मियों में सूखते गले को
तर करते ठंडे पानी-सा
उतर आया ज़हन में.
और लगा
जैसे गर्म रेत के बीच
बर्फ की सीली की परत
ज़मीन पर उग आई हो.

सपने,
गीली माटी जैसे
धूप में चटक जाती है
वैसे टूट रहे थे ज़र्रा-ज़र्रा
तुम्हारा खयाल
जब गूंथने चला आया मिट्टी को
सपने महल बनकर छूने लगे आसमान.


तुम उगी
कनेर से सूखे मेरे खयालों के बीच
और एक सूरजमुखी
हवा को सूंघने लायक बनाता
खिलने लगा खयालों में.


पर खयाल-खयाल होते हैं.
तुम जैसे थी ही नहीं
न ही पानी, न मिट्टी, न महक.
गला सूखता सा रहा.
धूप में चटकती रही मिट्टी.
कनेर सिकुड़ते रहे
जलाती रेत के दरमियान.
और खयाल ... ?

औंधे मुंह लेटा मैं
आंसुओं से बतियाता हूं
और बूंद दर बूंद
समझाते हैं आंसू
के संभाल के रखना
जेबों में भरे खूबसूरत खयाल
घूमते हैं यहां जेबकतरे.


अनुवाद



यूं तो सब कुछ 
अनकहा ही अच्छा है 

फिर भी,
तुम सुनना चाहती हो तो सुनो 

मैं एक ऐसी बात होना चाहता हूं
जो तुम्हारे लहज़े में कही जाय

या फिर ये, कि

मैं तुम्हारी भाषा में 
अपना अनुवाद होना चाहता हूं.

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

चिन्तन की परतें उधाड़ती कविता।

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !