दिल्ली में रहने
वाले मानस भट्टाचार्य कवि हैं और राजनीति विज्ञान के अध्येता. उनकी कवितायेँ
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की पत्रिकाओं और संग्रहों में छपी हैं और उनका पहला संग्रह ‘ग़ालिब
का मकबरा और अन्य कवितायेँ’ नवम्बर २०१३ में ‘द लन्दन मैगज़ीन’ से प्रकाशित हुआ है.
उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है.
अनुवाद की हरेक कमी और गलती का पूरा ज़िम्मा मेरा है.
१.
दिल्ली में बारिश
शहर का अतीत दुबका
रहता है बारिश में
वह गिरती है बगैर
छत के खंडहरों के ऊपर
गयी रात स्नान
करती हैं टूटी मूर्तियाँ
घुलती है शहर की
हवा
सारे परकोटे भीगे
हुए हैं गूंजों से
ज़रा सुनो तो सही
आँगन को
और कान धरो बादशाहों
को अपनी शिकस्तें गिनते
अजनबी लगती थीं
दिल्ली की बारिशें बाबर को
फ़तह की खुशबू
नहीं
जब बारिश ढंकती
है साम्राज्यों को
शायर तरजीह देता
है शराब को बनिस्बत पांसे के
जिस तरह सफ़ेद
पत्थर के किनारे कर दिया लाल वालों को
बंट जाया करती हैं बारिश की प्रतिबद्धताएं
बंट जाया करती हैं बारिश की प्रतिबद्धताएं
मल्हार डुबो लेता
है उस्ताद की आवाज़ को
वह गिरता है
इतिहास के रंध्रों पर
बारिश थपेड़े
मारती है १९८४ की स्मृतियों पर
एक विशाल पेड़
गिरता है हज़ार जानों पर
विस्मृति के
इन्द्रधनुष बरसते हैं
नए अपराध धो देते
हैं पुरानों को
गुजरते वक़्त की छत पर गिरती
है बारिश
बारिश गिरती है विष्ठा के
ढेर वाली धरती पर
दिल्ली मामूली बारिश के दो सूखे
हुरूफ़
गर्द साफ़ करती अपने पपड़ाये
अतीत की
२.
महमूद दरवेश की याद में
मैंने तुम्हारी कविताओं से सीखा
किस तरह इंतज़ार किया जाए मौत का
और किस तरह इंतज़ार एक खेल होता है
मौत की तरह दगाबाज़.
मैंने तुमसे सीखा किस तरह इंतज़ार की जड़
जकड़ी होती है हताशा में
और उम्मीद से ज़्यादा धोखेबाज़
कोई हताशा नहीं होती.
इंतज़ार ने तुम्हारी मदद की उन गुलाबों को इकठ्ठा
करने में
जो उन राहों पर सिर्फ उन मुसाफिरों के लिए उगते
हैं
जो सफ़र करते हैं सबसे अकेली राह पर.
तुमने उन गुलाबों को संजो कर रखा उन रातों की
निशानियों की मानिंद जब गोलियों की आवाज़
तुम्हें याद दिलाती थी कितना मुश्किल होता है
चन्द्रमा के नीचे प्रेम करना.
जब तुम लादे चल रहे थे अपने कंधों पर लैंडस्केप
और खोज रहे थे अपना पता
दुश्मन हँसता था बादलों में से.
उन्होंने सोचा था कि बेघर हो चुकने की उन्हीं सतरों को
दोहराते तुम उकता ही जाओगे
मगर वे नहीं जानते थे जिनके पास घर नहीं होता
हमेशा लालसा रहती है स्मृतियों की उन्हें.
(यह कविता ‘द पैलेस्टीन क्रोनिकल’ के १५ फरवरी २०१३ के अंक में
प्रकाशित हुई थी.)
३.
होली
राधा का दिल लिए
कृष्ण लौटे खुसरो बन कर
एक तोते की अभिलाषा में फंसा हुआ
नीली शरारतों वाला ग्वाला
प्रणय की निगाहों वाला देवता
एक निज़ाम के आगे अँधा हो जाता हुआ
कभी उसकी बांसुरी सुनकर थम जाते थे पैर
अब उसका तबला आज़ाद कर देता है घुंघरुओं को
ब्रज के मदहोश रंग
उनके कपड़ों पर पुत जाते हैं फारसी में
माशूकों की अगिन आँखें
अब एक माशूका की अनंत दीठ
प्रेम नहीं गाता बहाली की बाबत
डूब के राग की लय में
अगर दिल के चेहरे का फकत एक रंग होता है
तो उसकी आँखें, बकौल ख़ुसरो, कई सारी होती हैं
४.
बल्लीमारान की सैर
अब नहीं वो गली
कभी ख़त्म न होने वाले मनबहलावों की
चौपड़ की बाज़ी को थाम देने वाला
न अब वो शे’र
एक ख़याल को उसकी मंजिल तक पहुंचाने
अब नहीं वह क़दमों की ठिठक
लफ़्ज़ों को पतंगों में तब्दील करती
वह प्रेरणा नहीं अब.
बिक्री के वास्ते टंगे जूतों की
एक मसरूफ़ धार है बल्लीमारान.
न टापों की आवाजें
न पालकियों के नज़ारे
हुक्म चलाते हुए रिआया पर.
जूते-चप्पलों का रंग
और गाड़ियों के हॉर्न
बताते हैं नागरिकों की तबीयत की बाबत.
एक आदमी से पूछता हूँ “किस तरफ पड़ेगा
ग़ालिब का घर?”
उसकी भंवें टेढ़ी हो जाती हैं, “आप ने उनसे पता क्यूँ नहीं पूछा? ख़ाली
नाम से काम नहीं चलता.”
मैं लगता हूँ अपनी राह, बतलाता हुआ
ग़ालिब के प्रेत को “अपना पता खो चुका
है तुम्हारा नाम, तुम्हारा पता
उसकी पड़ोस. क्या यूं
फतह करता है कोई संसार को?”
नीली पोशाक वाला संतरी
पत्थर के भी ज़्यादा थका हुआ है. वह ले जाता है
मुझे
भीतर उस पुराने आँगन में
जिसे बनाया गया है चाक-चौबंद.
बच्चों को बेवकूफ बनाने को
मंच पर की गयी जालसाजी को घूरता हूँ. किसी की
उपेक्षित अनुपस्थिति को ढँक सकना
आसान नहीं होता.
टेलीफोन बूथ
फोन करने वालों की नीरस हड़बड़ी
का एक नेपथ्य है. पुराने समय से बेहतर नहीं तराशता
कोई
एक मुहाविरे को सम्पूर्णता में बदलता.
मैं सोचने लगता हूँ. अब कोई नहीं करता
आशीर्वादों की गिनती शराब से. कोई नहीं
करता ईश्वर की नाफ़रमानी विडम्बना के साथ. कोई
नहीं गूंथता रात को शे’रों में.
जब डूबने लगती है रोशनी भीतर चली आती है एक लड़की
ग़ालिब के दिल की दुविधाओं को पढ़ने. अज़ान
उसकी तन्मय आँखों का ध्यान तोड़ती है. वह
अपने दुपट्टे में एक रहस्य तहाए हुए चली जाती है.
घर जाने का वक़्त हुआ. क़ासिम जान में
जो कुछ भी बच रहा है ग़ालिब का
उसे छोड़ कर जाने का वक़्त हुआ. छोड़ कर
जाने का वक़्त उसे जो क़ासिम जान
का बच रहा है बल्लीमारान में.
नाम जो वाबस्ता हैं
एक दूसरे ही ज़माने से जब हवा
शायरी की सांस लेती थी. और एक शे’र भारी होता था
जूतों की एक जोड़ी से.
(बल्लीमारान पुरानी दिल्ली का इलाक़ा है जहां मिर्ज़ा ग़ालिब रहा करते
थे.)
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नोट- मानस के संग्रह को पाने के लिए आवश्यक सूचना निम्नवत है:
प्रकाशक – द लन्दन मैगज़ीन, लन्दन, यू.के.
कीमत - २.९९ पाउंड/ ३०४ रूपये (किंडल संस्करण). अमेज़न पर उपलब्ध.
पेपरबैक संस्करण प्रतीक्षित है.
2 comments:
Behad shandar!
उम्दा। पहली और तीसरी कविता सबसे अच्छी लगी।
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