Sunday, April 27, 2014

मैं एक कवि था ...


मैं एक कवि हूँ. मुझे ‘कवि’ शब्द से डर लगता था और मैंने अपने पिताजी को इस बारे में कभी नहीं बतलाया. मेरे दिमाग में कभी आया ही नहीं कि उन्हें ऐसी बात बताई जानी चाहिए ... मैंने उनसे कभी नहीं कहा – “डैडी, ...मैं एक कवि हूँ ...” मैं नहीं जानता अगर मेरे पिताजी ने इन शब्दों पर ज़रा भी गौर किया होता. वे हमेशा की तरह कहीं दूर होते (अखबार पढ़ते, खाते, कपड़े पहनते, अपने जूते साफ़ करते ...) और मुझसे पूछते “... क्या कह रहे हो तादियो!” यह उनके लिए “बेवकूफी” की बात होती.

मैंने ‘पिता’ कविता १९५४ में लिखी थी. मैं नहीं जानता मेरे पिताजी ने वह कविता कभी पढ़ी या नहीं, पर उन्होंने एक शब्द भी कभी नहीं कहा ... इसके अलावा मैंने अपनी कोई कविता कभी पिताजी को पढ़ के नहीं सुनाई. अब ... १९९९ में मैं अपने माँ-पिता से इतनी खामोशी से बातें करता हूँ कि वे बमुश्किल मुझे सुन पाते हैं “माँ, डैडी ... सुनो, मैं एक कवि हूँ”

“मुझे पता है बेटे!” माँ कहती हैं. “मुझे हमेशा से पता था.”

“जोर से बोलो! मुझे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा!” पिताजी कहते हैं.

----

... कई सालों से मैं माँ से तीन वायदे करता रहा हूँ – उन्हें क्राकाव बुलाऊंगा, उन्हें ज़ाकापेन और पहाड़ दिखाऊँगा और उनके साथ समुद्र तक की यात्रा करूंगा. मैंने कभी पूरे नहीं किये ये वायदे ...

खैर! बेटा क्राकाव में रहता है ... एक युवा “प्रतिभाशाली” कवि ... और इस कवि ने अपनी माँ और तमाम माँओं के लिए कितनी ही कविताएँ लिखी हैं ... वह अपनी माँ को क्राकाव नहीं ले गया ... न १९४७ में, न १९४९ में ...

मैं अपनी माँ को कभी किसी कॉफ़ीशॉप, किसी रेस्तरां, थियेटर, ओपेरा या कंसर्ट में लेकर नहीं गया ... मैं एक कवि था ...

-ताद्यूश रूज़ेविच 
(एक संस्मरण से)