Thursday, May 1, 2014

अखरती तो नहीं इनकी सोहबत? जी तो नहीं कुढ़ता है? – मई दिवस पर बाबा नागार्जुन की कविता


घिन तो नहीं आती है

-बाबा नागार्जुन

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ.
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है?

कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके-मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचेअगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाकेसुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है? 

(फ़ोटो: साभार www.rediff.com)

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

बाबा नागार्जुन वाकई अर्जुन थे ।