उस्ताद शाहिद
परवेज़ ख़ान अपने सितार वादन के लिए भारत के प्रमुख शास्त्रीय संगीतकारों में से गिने
जाते है. उस्ताद वाहिद ख़ान के पोते और उस्ताद अज़ीज खान के सुपुत्र, शाहिद परवेज़ साहब इटावा घराने से हैं
और प्रसिद्ध सितार वादक विलायत ख़ान के परिवार से सम्बंध रखते हैं. उनकी कला की प्रसिद्धि
फ़ैली जब उन्होंने आठ साल की उम्र में पहली बार एक संगीत जनसभा में अपनी कला को प्रस्तुत
किया. वह गत ७ दिसम्बर २००६ को इटली में बोलोनिया में अपना संगीत प्रस्तुत करने के
लिए आये. उसके दौरान थोड़ी देर के लिए उनसे सुनील दीपक को बात करना का मौका मिला जिसमें
उन्होंने अपने बारे में बतायाः
बचपन:
मेरा जन्म हुआ बम्बई में. हमारा परिवार संगीत से जुड़ा
है,
बहुत पुराना ख़ानदानी नाता है संगीत
से. परिवार में मैं आठवीं पीढ़ी हूँ जो लगातार संगीत के क्षेत्र में है. मेरा बचपन ऐसा
था कि जब चार साल का था तब संगीत से मेरा नाता शुरु हुआ, साथ साथ पढ़ाई भी चली. जिस तरह आम बच्चे
खेलकूद में बचपन बिताते हें, मेरा बचपन वैसा नहीं था. सारा समय रियाज़ और पढ़ाई में
निकल जाता. संगीत की साधना बहुत सख्त़ थी.
अगर आप संगीत को पैशेवर स्तर पर अपनाते हैं तो उसके लिए बहुत
मेहनत चाहिए. संगीत की शिक्षा बहुत कठिन होती है. अगर वह केवल शौक है तो उसमें मज़ा हो सकता है, आसान
भी हो सकता है लेकिन अगर उसे गम्भीरता से पैशे की तरह लेना चाहते हैं तो उसके लिए बहुत
सख़्त मेहनत और लगन चाहिए जो आसान नहीं.
संगीत में काम करने का निर्णय:
कला के क्षेत्र में हम इसलिए
नहीं आये थे कि इसे हमने अपना पेशा बनाना था या पैसा कमाना था. यह बात थी मन में कि
यह हमारा ख़ानदानी फ़न है और इसे सीखना है. आप इसे इत्तफ़ाक़ कह सकते हैं कि बाद में
यही हमारा पेशा बन गया. जब शुरु किया तो कला सोच कर किया था, फिर जब लगा कि मुझे यही करना है तो
पेशा भी बन गया.
मैंने यह कभी नहीं सोचा कि कुछ और काम करुँ. मुझे लगता था कि
मैं तो पैदा ही इसीलिए हुआ हूँ कि संगीत की कला में काम करूँ. पिछली सात पुश्तों से
हमारे बाप, दादा, परदादा इसी संगीत में लगे थे, अभी मेरे बच्चे भी इसी पेशे में आने
वाले हैं. हमारे परिवार के कुछ लोगों ने कुछ और रास्ते भी चुने, अन्य पेशों की ओर गये, पर अधिकतर लोगों ने, ९० फ़ीसदी लोगों ने संगीत को ही चुना.
फ़िल्मी और पश्चिमी संगीत का प्रभाव:
हम बचपन में सब तरह का
संगीत सुन सकते थे, कोई रोकटोक नहीं थी. हमें यह सिखलाया गया कि सब तरह का
संगीत सुनो, चाहे
वह फ़िल्मी हो या पश्चिमी संगीत, लेकिन अच्छा संगीत सुनो.
अन्य संगीत विधाओं से प्रेरणा लेना और बात है और उनसे मिला कर
फ़्यूजन करना दूसरी बात है. मैं फ़्यूजन के खिलाफ़ नहीं हूँ अगर उससे कुछ अच्छी चीज़
बने तो अच्छा है. यह मेरा निजी विचार है, लेकिन मैंने अभी तक फ्यूज़न संगीत नहीं किया है. क्योंकि
हमारा जो संगीत है उसका मज़ा तो तभी है जब उसकी विशिष्टता, उसकी सच्चाई बनी रहे. उसे अन्य संगीतों
से मिला कर मुझे नहीं लगता कि वह अच्छा संगीत रह जाता है. अगर शास्त्रीय संगीत को ज़ैज़
या पश्चिमी संगीत से मिला कर बजाया जाये तो वह न तो शास्त्रीय संगीत रहता है और न ही
अच्छा पश्चिमी संगीत, बस मिला जुला बन कर रह जाता है. यह अच्छा हो सकता है कि
दुनिया के विभिन्न बड़े कलाकार मिल कर कुछ नया प्रयास करते हैं, तो मज़ा आ सकता है और उससे कुछ अच्छा
भी बन सकता है. लेकिन आम तौर पर मेरा विचार है कि मिलाने से संगीत की दृष्टि से कोई विशेष बढ़िया चीज नहीं बन सकती.
समय के साथ शास्त्रीय संगीत में परिवर्तन:
संगीत समय के साथ
बदलता रहता है. कला को परिवर्तनशील कहते हैं, वह बदलती रहती है जैसे समय के साथ हर चीज़ में बदलाव आता है. पर संगीत की
जो असली चीज़ है, उसकी जो नींव है, उसकी जो विशिष्टता है वह नहीं बदलती.
मसलन जैसे राग है, राग तो वही रहता है पर उसे गाने या बजाने वाले, वह अपने तरीके बदलते रहते हैं. समय
के साथ उसका तकनीकी स्तर बढ़ गया है.
शास्त्रीय संगीत पहले चैम्बर संगीत कहा जाता था जिसे छोटी जगह
पर थोड़े से लोगों के लिए, विशेषकर उनके लिए जो स्वयं गाना बजाना जानते हैं या फ़िर
उसको अच्छी तरह समझते थे, पेश किया जाता था. धीरे धीरे जब यह आम लोगों के लिए हुआ
तो उसमें भिन्न प्रकार के लोग आने लगे, कुछ जिन्हे संगीत की अच्छी समझ है, कुछ जिन्हें थोड़ी बहुत समझ है, कुछ जिन्हें बिल्कुल समझ नहीं और कुछ
जो पहली बार इसे सुनने आये हैं, इन सब सुननेवालों का सोच कर संगीत को पेश करने के तरीके
में फ़र्क आ गया है, ताकि यह अधिक लोगों तक पहुँच सके. पर इससे संगीत की असलियत
में कोई अंतर नहीं आया है.
कला और प्रसिद्धि:
कला और प्रसिद्धि दोनो अलग अलग चीज़ें हैं.
असली चीज़ होती है कला, और प्रसिद्धि है परछाईं. मैंने परछाईं को कभी नहीं पकड़ा, असली चीज़ को पकड़ा और परछाईं तो अपने
आप ही साथ चलती है.
प्रसिद्धि और देश विदेश की यात्रा से जीवन और परिवार दोनों को
कुछ बलिदान देना पड़ता है. अक्सर, परिवार से दूर रहना पड़ता है. जनता की नज़र में हैं तो
आम लोगों की तरह अपने परिवार के उतने पास नहीं रह सकते, लेकिन हमारी भी व्यक्तिगत जिंदगी है, हमारा भी परिवार है. बच्चों के साथ, पत्नी के साथ वक्त कम मिलता है तो यह
बलिदान है, जिसे
हमारे बच्चे भी महसूस करते हैं और हम भी महसूस करते हैं.
(www.kalpana.it से साभार)
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