Saturday, August 30, 2014

प्रोफ़ेसर बिपन चन्द्रा नहीं रहे


जानेमाने इतिहासकार प्रोफ़ेसर बिपन चन्द्रा का छियासी वर्ष की आयु में देहांत हो गया. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी अध्येताओं में गिने जाने वाले प्रोफ़ेसर बिपन चन्द्रा का जन्म १९२८ में हिमांचल की कांगड़ा घाटी में हुआ था. उन्होंने लाहौर और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका में अपनी पढ़ाई पूरी की थी.

कबाड़खाना उनकी मृत्यु पर शोकाकुल है और उन्हें श्रद्धांजलि देता है.


कि भाषा कोरे वादों से वायदों से भ्रष्ट हो चुकी है सबकी



फिल्म के बाद चीख़

- रघुवीर सहाय


इस ख़ुशबू के साथ जुड़ी हुई
है एक घटिया फ़िल्म की दास्ताँ
रंगीन फ़िल्म की
ऊबे अँधेरे में
खड़े हुए बाहर निकलने से पहले बंद होते हुए
कमरे में
एक बार
भीड़ में
जान-बूझ
कर चीख़
ना होगा
जिंदा रहने के लिए
भौंचक बैठी हुई रह जाएँ
पीली कन्याएँ
सीली चाचियों के पास
टिकी रहे क्षण-भर को पेट पर
यौवन के एक महान क्षण की मरोड़
फ़िर साँस छोड़ कर चले
जनता
सुथन्ना सम्हालती
सारी जाति एक झूठ को पीकर
एक हो गयी फ़िल्म के बाद
एक शर्म को पीकर युद्ध के बाद
सारी जाति एक
इस हाथ को देखो
जिसमे हथियार नहीं
और अपनी घुटन को समझो, मत
घुटन को समझो अपनी
कि भाषा कोरे वादों से
वायदों से भ्रष्ट हो चुकी है सबकी
न सही यह कविता
यह मेरे हाथ की छटपटाहट सही
यह कि मैं घोर उजाले में खोजता हूँ
आग
जब कि हर अभिव्यक्ति
व्यक्ति नहीं
अभिव्यक्ति
जली हुई लकड़ी है न कोयला न राख
क्रोध, नक्कू क्रोध, कातर क्रोध
तुमने किस औरत पर उतारा क्रोध
वह जो दिखलाती है पैर पीठ और फ़िर
भी किसी वस्तु का विज्ञापन नहीं है
मूर्ख, धर्मयुग में अस्तुरा बेचती है वह
कुछ नहीं देती है बिस्तर में बीस बरस के मेरे
अपमान का जवाब
हर साल एक और नौजवान घूँसा
दिखाता है मेज़ पर पटकता है
बूढों की बोली में खोखले इरादे दोहराता है
हाँ हमसे हुई जो ग़लती सो हुई
कहकर एक बूढा उठ
एक सपाट एक विराट एक खुर्राट समुदाय को
सिर नवाता है

हर पांच साल बाद निर्वाचन
जड़ से बदल देता है साहित्य अकादमी
औरत वही रहती है वही जाति
या तो अश्लील पर हंसती है या तो सिद्धान्त पर
सेना का नाम सुन देशप्रेम के मारे
मेजें बजाते हैं
सभासद भद भद कोई नहीं हो सकती
राष्ट्र की
संसद एक मंदिर है जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं
जा सकता
दूधपिये मुँहपोंछे आ बैठे जीवनदानी गोंद-
दानी सदस्य तोंद सम्मुख धर
बोले कविता में देशप्रेम लाना हरियाली प्रेम लाना
आइसक्रीम लाना है
भोला चेहरा बोला
आत्मा नें नकली जबड़ेवाला मुँह खोला
दस मंत्री बेईमान और कोई अपराध सिद्ध नहीं
काल रोग का फल है अकाल अनावृष्टि का
यह भारत एक महागद्दा है प्रेम का
ओढने-बिछाने को, धारण कर
धोती महीन सदानंद पसरा हुआ
दौड़े जाते हैं डरे लदेफंदे भारतीय
रेलगाड़ी की तरफ़
थकी हुई औरत के बड़े दाँत
बाहर गिराते हैं उसकी बची-खुची शक्ति
उसकी बच्ची अभी तीस साल तक
अधेड़ होने के तीसरे दर्जे में
मातृभूमि के सम्मान का सामान ढ़ोती हुई
जगह ढूँढती रहे
चश्मा लगाए हुए एक सिलाई-मशीन
कंधे उठाये हुए

वे भागे जाते हैं जैसे बमबारी के
बाद भागे जाते हों नगर-निगम की
सड़ांध लिये-दिये दूसरे शहर को
अलग-अलग वंश के वीर्य के सूखे
अंडकोष बाँध .
भोंपू ने कहा
पांच बजकर ग्यारह मिनट सत्रह डाउन नौ
नंबर लेटफारम
सिर उठा देखा विज्ञापन में फ़िल्म के लड़की
मोटाती हुई चढ़ी प्राणनाथ के सिर उसे
कहीं नहीं जाना है.
पाँच दल आपस में समझौता किये हुए
बड़े-बड़े लटके हुए स्तन हिलाते हुए
जाँघ ठोंक एक बहुत दूर देश की विदेश नीति पर
हौंकते डौंकते मुँह नोच लेते हैं
अपने मतदाता का

एक बार जान-बूझकर चीख़ना होगा
ज़िंदा रहने के लिये
दर्शकदीर्घा में से
रंगीन फ़िल्म की घटिया कहानी की
सस्ती शायरी के शेर
संसद-सदस्यों से सुन
चुकने के बाद.

Friday, August 29, 2014

मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन पर रीपोस्ट



आज ध्यान चन्द का जन्मदिन है.

सिर्फ़ एक वीडियो देखिये आज : Tribute to Indian Hockey

सवा दो मिनट का वीडियो है. देख लेंगे तो बहुत सारी यादें आएंगी. हिटलर, बर्लिन ओलिम्पिक, ग्रेट ब्रिटेन के झन्डे का अनुसरण करता ग़ुलाम भारत का दल और दद्दा ध्यानचन्द का अतुलनीय कौशल:

यह जो स्त्री आप देखते हैं सो मेरी स्त्री है


मेरी स्त्री

- रघुवीर सहाय


प्यारे दर्शको, यह जो स्त्री आप देखते हैं सो मेरी स्त्री है
इसकी मुझसे प्रीति है. पर यह भी मेरे लिए एक विडम्बना है
क्योंकि मुझे इसकी प्रीति इतनी प्यारी नहीं
जितनी यह मानती है कि है. यह सुंदर है मनोहारी नहीं,
मधुर है, पर मतवाली नहीं, फुर्तीली है, पर चपला नहीं
और बुद्धिमती है पर चंचला नहीं. देखो यही मेरी स्त्री है
और इसी के संग मेरा इतना जीवन बीता है. और
इसी के कारण अभी तक मैं सुखी था.
सच पूछिए तो कोई बहुत सुखी नहीं था. पर दुखिया
राजा ने देखा कि मैं सुखी हूँ सो उसने मन में ठानी
कि मेरे सुख का कारण न रहे तो मैं सुखी न रहूँ.
उसका आदेश है कि मैं इसकी हत्या कर इसको मिटा
डालूँ. यह निर्दोष है अनजान भी. यह
नहीं जानती कि इसका जीवन अब और अधिक
नहीं. देखो, कितने उत्साह से यह मेरी ओर आती है.

(चित्र: बिल गूफी की पेंटिंग “वूमन इन अ फील्ड इन फ्रांस’)

Thursday, August 28, 2014

कीर्तीश भट्ट के कार्टून

कीर्तीश भट्ट ज़बरदस्त कार्टूनिस्ट हैं. आज पेश हैं उनके बनाए कुछ समकालीन कार्टून -








कि कोई मूड़ नहीं मटकाय, न कोई बेमतलब अकुलाय



अरे अब ऐसी कविता लिखो

-रघुवीर सहाय


अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि जिसमें छंद घूमकर आय
घुमड़ता जाय देह में दर्द
कहीं पर एक बार ठहराय

कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं
वही दो बार शब्द बन जाय
बताऊँ बार-बार वह अर्थ
न भाषा अपने को दोहराय

अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि कोई मूड़ नहीं मटकाय
न कोई पुलक-पुलक रह जाय
न कोई बेमतलब अकुलाय

छंद से जोड़ो अपना आप
कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय
थामकर हँसना-रोना आज
उदासी होनी की कह जाय.

Wednesday, August 27, 2014

अमित साह का नैनीताल - चन्द यादगार तस्वीरें

अमित साह नैनीताल में रहने वाले एक अतीव प्रतिभाशाली फोटोग्राफर हैं. उनकी एकाध फोटोग्राफ़्स कबाड़खाने पर पहले लगाई जा चुकी हैं. आज देखिये उनकी कमाल निगाहों से नैनीताल की चन्द यादगार तस्वीरें: 













मैं यक़ीन करती हूँ कि बारिश स्वर्ग और धरती को साथ सी देती है



अन्ना कामीएन्स्का (१२ अप्रैल १९२०- १० मई १९८६)  बीसवीं सदी के पोलैंड के उन अनूठे समूह से ताल्लुक रखती हैं जिस में से असाधारण कवि प्रस्फुटित हुए. मीरोन बियालोज्युस्की, यूलिया हार्तविग, ज्बिगनियू हेर्बेर्त, कारपोविक्ज़, ताद्यूश रूज़ेविच और विस्वावा शिम्बोर्स्का जैसे प्रमुख नामों के साथ अन्ना कामीएन्स्का इस सूची में विराजमान हैं. १९२० के दशक में जन्मे ये सारे दूसरे विश्वयुद्ध के समय युवा थे. वे उस ऐतिहासिक सैलाब को समझ चुके थे जो पोलैंड पर जर्मनों द्वारा किया गया कब्ज़ा अपने साथ ले कर आया था. युद्ध के बाद के उत्पातभरे वर्षों और उसके बाद की कम्यूनिस्ट तानाशाही से भी इन सब ने रू-ब-रू होना पड़ा था. इनमें से हरेक कवि ने प्रचुर मात्रा में बेहद सशक्त रचनाकर्म किया. १९८० के नोबेल विजेता और अपने से थोड़ा बड़े कवि चेस्वाव मीवोश के साथ मिलकर इन सबने पोलिश कविता के लैंडस्केप को रूपांतरित कर दिया और उसने विश्व साहित्य के परिदृश्य पर व्यापक प्रभाव डाला.

“मेरी साहित्यिक पीढ़ी ने आलोचकों की धूमधाम के साथ कविता में प्रवेश नहीं किया,” अपनी एक किताब के आमुख में अन्ना ने लिखा था, “हम फायरिंग स्क्वाडों और फूटते बमों के दरम्यान लिखना सीख रहे थे.”

अन्ना की रचनाओं से पाठकगण पहले से परिचित हैं. आज उनकी दो और कवितायेँ:

एक दीया

मैं समझने के लिए लिखती हूँ न कि ख़ुद को अभिव्यक्त करने के लिए
मैं कुछ समझ भी नहीं सकूंगी, यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं मुझे
इस न जानने को साझा करती हूँ चिनार की एक पत्ती के साथ
सो मैं अपने सवालों समेत उन शब्दों के पास जाती हूँ जो मुझ से ज़्यादा अक्लमंद हैं
उन चीज़ों के पास जाती हूँ जो हमारे बहुत बाद तक बनी रहेंगी
मैं इंतज़ार करती हूँ कि संयोग मेरी मदद करेगा अक्लमंद बनने में
मुझे उम्मीद है खामोशी मुझे विवेक प्रदान करेगी
मुमकिन है अचानक कुछ घट जाए
और उस तेल के दीये की लपट की आत्मा के रहस्यभरे
सच की तरह धड़के
जिसके सम्मुख हम अपने सिर झुकाते थे
जब हम बहुत छोटे थे
और दादीमाँ डबलरोटी पर एक क्रॉस बनाया करती थीं
और हम हरेक चीज़ में यक़ीन करते थे
सो फिलहाल मुझे किसी भी चीज़ की
उतनी लालसा नहीं सिवा
उस यक़ीन के.


दूसरा संसार

मेरा यक़ीन नहीं है दूसरे संसार पर
लेकिन मैं तो इस संसार पर भी भरोसा नहीं करती
जब तक कि वह बिंधा न हुआ हो रोशनी से

मैं यक़ीन करती हूँ
सड़क पर कार से कुचली गयी एक औरत के शरीर पर

आधी-जल्दबाजी, आधी-भंगिमा
और आधे-धक्के में ठहरे
शरीरों पर यक़ीन करती हूँ मैं
जैसे कि वे जाने कब से प्रतीक्षा कर रही हों
कि एक अर्थ कभी भी
उठाना शुरू करे अपनी तर्जनी

मुझे अंधी आँख पर भरोसा है
बहरे कान पर
कुचली गयी टांग पर
आँख के कोने की झुर्री को
गाल की लाल लपट को

मैं यक़ीन करती हूँ नींद के गहरे विश्वास
में लेटी देहों पर,
मैं यक़ीन करती हूँ
अजन्मी अशक्तता को लेकर आयु के धैर्य पर

मैं यक़ीन करती हूँ उस एक बाल पर जिसे
छोड़ गया एक मृतक अपनी भूरी टोपी पर
मैं यक़ीन करती हूँ
चमत्कारी बने हुए चमकीलेपन पर
जो हरेक चीज़ पर चमकता है

अपनी पीठ के बल कसमसाते
किसी पिल्ले जैसे
उस गुबरैले पर भी मैं यक़ीन करती हूँ

मैं यक़ीन करती हूँ कि बारिश
स्वर्ग और धरती को साथ सी देती है
और कि इस बारिश में फ़रिश्ते उतरा करते हैं
पंख लगे मेंढकों जैसे नज़र आते हुए

मैं यक़ीन नहीं करती इस संसार पर
जो खाली होता है
किसी स्टेशन की तरह भोर के वक्त
जबकि सारी रेलगाड़ियाँ
सुदूर के लिए जा चुकीं

यह दुनिया एक है
खासतौरपर जब वह एक ओस में जागती है
और ईश्वर निकलता है
मनुष्यों और पशुओं के स्वप्नों
की पत्तियों पर
टहलने.

Tuesday, August 26, 2014

असमानता और प्रेमहीनता की संस्कृति उर्फ़ विराट-अनुष्का का मोहब्बतनामा


यह पोस्ट प्रतीक्षा पाण्डेय ने अपनी फेसबुक वॉल पर अंग्रेज़ी में चढ़ाई थी. प्रतीक्षा की बेहतरीन कविताओं से आपका साक्षात्कार इस ब्लौग पर पहले हो चुका है. इधर समकालीन परिस्थितियों पर उनकी कई टिप्पणियाँ असाधारण परिपक्वता का अहसास देती हैं, ख़ास तौर पर इस लिहाज़ से कि वे बिना भटके सीधे मुद्दे पर आती हैं. शाबाश प्रतीक्षा!

भारतीय क्रिकेट टीम के प्रबंधक महोदय कहते हैं कि अभिनेत्री अनुष्का शर्मा खेल के दौरान विराट कोहली के दौरों पर उनका साथ नहीं दे सकतीं, और पूछने पर वजह यह बताते हैं कि “हमारी संस्कृति दूसरे देशों से भिन्न है, कि भारतीय समाज यह अनुमति नहीं देता कि किसी खिलाड़ी की गर्लफ्रेंड उसके साथ विदेशी दौरों पर जाए.” पर कुछ ही दिनों बाद बीसीसीआई अनुष्का को उसी होटल में रुकने की अनुमति दे देता है जिसमें विराट रुकते हैं क्योंकि उसे ऐसा सुनने में आया है कि विराट और अनुष्का काफी जल्दी विवाह के बंधन में बंधने जा रहे हैं.

किसी कारणवश भारतीय लोग यह मानते हैं कि हमारे नायकों के लिए जितना आवश्यक मर्दाना होना है, उतना ही आवश्यक है कि वह इश्क-मोहब्बत-शादी-विवाह से दूर रहे. समाज में अगर कोई परिवर्तन ला सकता है तो वह एक महिमामयी ब्रह्मचारी ही है. और इसी नायक की परिभाषा से हम विवाह के नाम पर समझौता कर लेते हैं. विराट ने अनुष्का को साथ ले जा कर जो पाप किया है उसे आगे होने वाला विवाह उचित साबित कर देगा और हमारे नायक को स्वर्ग से निष्कासित करने के बजाय उन्हें बाइज्ज़त वापस बुला लिया जायेगा.

यह अद्भुत बात है कि अपनी क्रिकेट टीम से हम अपेक्षा रखते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह अच्छा खेले और इसके लिए उन्हें आधुनिक तकनीक वाली अंतर्राष्ट्रीय सुविधायें उपलब्ध कराई जाती हैं. वहीँ दूसरी ओर उनसे ऐसे बर्ताव की अपेक्षा रखी जाती है मानो वो दुनिया के प्राचीनतम और सबसे रूढ़िवादी गाँव में रहते हों. यह दुःख और हैरत का विषय है कि भारत में क्रिकेट देखने वाली जनता का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर यकीन रखता है कि किसी भी युवा खिलाड़ी के बुरे प्रदर्शन का कारण एक महिला ही हो सकती है जो उसे उसके मार्ग से भटकाती है— और अगर वह अभिनेत्री हो तो करेले पर नीम चढ़ जाता है. और लोगों द्वारा इस तरह की प्रतिक्रिया कोई नयी बात नहीं है, जब युवराज सिंह और दीपिका पादुकोण के बीच संबंधों की हवा चली थी, तब भी कुछ ऐसा ही सुनने में आया था. कुछ ने तो ऐसा भी कहा की दीपिका ने पहले युवराज को बर्बाद किया और फिर बैंगलोर की आईपीएल टीम को. इस तरह की सोच और इनपे आधारित चुटकुले जो सोशल मीडिया पर टहलते हुए पाए जाते हैं, ये न सिर्फ अभिनेत्रियों, जो किसी भी खिलाड़ी जितनी ही सफल और सक्षम हैं, को बेवजह बदनामी के तीरों का शिकार बनाते हैं, पर साथ ही साथ दो वयस्कों, जो एक-दूसरे के साथ रहना चाहते हैं, उन्हें अलग करते हैं. और यह सब हमारी उस ‘संस्कृति’ की रक्षा के लिए जिसकी बुनियाद ही असमानता और प्रेमहीनता है.


गैरी लार्सन के कुत्ते - 5




किसी कब्रिस्तान में संगेमरमर और धुनों के साथ जुटी एक सेना हैं वायोलिन


वायोलिन
-महमूद दरवेश

आन्दालूसिया की तरफ़ जा रहे जिप्सियों के साथ रोते हैं वायोलिन.
आन्दालूसिया छोड़कर जा रहे अरबों के साथ रोते हैं वायोलिन.
रोते हैं वायोलिन बीते हुए समय पर, जिसने पलटना नहीं.
रोते हैं वायोलिन छूट चुकी मातृभूमि के लिए जो शायद लौट सके.
वायोलिन आग लगा देते हैं उस सघन, सघन अन्धेरे के जंगल में.
आन्दालूसिया की तरफ़ जा रहे जिप्सियों के साथ रोते हैं वायोलिन.
आन्दालूसिया छोड़कर जा रहे अरबों के साथ रोते हैं वायोलिन.
वायोलिनो से रिसता है कसाई के चाकू का ख़ून, वे सूंघ पा रहे हैं मेरी गर्दन की नसों का रक्त.
आन्दालूसिया की तरफ़ जा रहे जिप्सियों के साथ रोते हैं वायोलिन.
आन्दालूसिया छोड़कर जा रहे अरबों के साथ रोते हैं वायोलिन.
आंतों की भुतहा डोर पर घोड़े हैं वायोलिन और गाते हुए मृतकगान.
हिलकोरे मारते जंगली लाईलैक के फूलों के खेत हैं वायोलिन.
एक स्त्री के नाखूनों से सताए हुए हैं वायोलिन, एक दफ़ा गिराकर उठाए गए.
किसी कब्रिस्तान में संगेमरमर और धुनों के साथ जुटी एक सेना हैं वायोलिन.
एक नर्तक के पैरों पर हवा से पगलाए दिलों का विप्लव हैं वायोलिन.
फटे झण्डों से टेढ़ीमेढ़ी उड़ान में बचकर भाग रही चिड़ियों के झुण्ड हैं वायोलिन.
एक प्रेमी की रात में तहाए हुए और अस्तव्यस्त रेशम की शिकायत हैं वायोलिन.
वायोलिन हैं शराब की आवाज़ पुकारती हुई एक पुरानी इच्छा को.
एक उचित और दुखभरा बदला लेने को वायोलिन मेरा पीछा करते हैं हर जगह.
वायोलिन मेरा शिकार करने की फ़िराक़ में रहते हैं जहां कहीं वे मुझे खोज पाएं.
आन्दालूसिया की तरफ़ जा रहे जिप्सियों के साथ रोते हैं वायोलिन.
आन्दालूसिया छोड़कर जा रहे अरबों के साथ रोते हैं वायोलिन.

-------------------------------

आन्दालूसिया: यूरोप के धुर दक्षिण में अवस्थित स्पेन का एक हिस्सा जो मोरक्को समेत यूरोप और अफ़्रीका के बीच सबसे आसान प्रवेशद्वार था. अटलान्टिक और मैडिटरेनियन समुद्रों के बीच होने और खनिज और कृषि उत्पादों की बहुलता के कारण प्रागैतिहासिक काल से ही आन्दालूसिया आक्रान्ताओं का प्रिय लक्ष्य रहा है.