Thursday, August 14, 2014

वो इतने सारे लोगों की नियतियों के भार से इतना दबा हुआ है


फ़िदेल कास्त्रो का एक निजी पोर्ट्रेट 

-गाब्रीएल गार्सीया मार्केज़, 

प्रस्तुति और अनुवाद : शिवप्रसाद जोशी

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तीन साल और तब फ़िदेल कास्त्रो 90 के हो जाएंगे. वो लंबे समय से बीमार हैं. करीब एक सदी का जीवन उनका हो रहा है. 20 वीं सदी के संघर्षों और यातनाओं और विडंबनाओं और उत्पातों के वे चुनिंदा चश्मदीदों में हैं. शीत युद्ध उपरांत विश्व की उथलपुथल के दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सशक्त प्रवक्ता. क्यूबा मे समाजवाद के अनूठे प्रयोग के निर्माता और दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति और युद्धोन्मत राष्ट्रपतियों के विभिन्न कार्यकालों के साए में छोटे से क्यूबा को खड़ा रख पाने वाले साहसी योद्धा और राजनीतिज्ञ फ़िदेल कास्त्रो अब सक्रिय राजनीति से दूर हैं. सत्ता से अलग हैं लेकिन उनकी उपस्थिति, दबदबे और आधिपत्य और नवउदारवादी कब्ज़ों से चोट खाई और सताई दुनिया के लिए अब भी सांत्वना और साहस का काम करती है.

पीढिय़ों के लिए फ़िदेल एक बड़े नायक रहे हैं. उनसे एक गहरा जुड़ाव दुनिया भर के लोग महसूस करते रहे हैं. फ़िदेल कास्त्रो के नायकत्व को सलाम करते हुए एक निबंध (पर्सनल पोर्ट्रेट ऑफ फ़िदेल) लिखा है कास्त्रो के गहरे मित्र रहे जाने माने उपन्यासकार-पत्रकार गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ ने. मार्केज़ का ये पोर्ट्रेट लेफ्ट वर्ल्ड’ से प्रकाशित फिदेल कास्त्रो: माई अर्ली इयर्स से साभार लिया गया है. ये लंबी टिप्पणी पहली बार 1991 में ओशन प्रेस से इतावली पत्रकार गियानी मीना की किताब एन एनकाउंटर विद फ़िदेल में बतौर प्रस्तावना प्रकाशित हुई थी. गियानी ने कास्त्रो का एक यादगार इंटरव्यू किया था जो रिकॉर्ड 17 घंटे तक चला था और राजनीतिक, कूटनीतिक और पत्रकारिता हल्कों में जिसकी बड़ी धू्म रही है. मार्केज़ के मुताबिक कास्त्रो के चुनिंदा मुकम्मल साक्षात्कारों में से ये एक था. वरना कास्त्रो का इंटरव्यू करने वाले अधिकांश विदेशी पत्रकार सवाल जवाब और आग्रहों की स्टारियोटाइप रूढि़ से निकले ही नहीं.

पेश हैं मार्केज़ के लिखे निबंध के अंश.

एक विदेशी आगंतुक को क्यूबा की सप्ताह भर की सैर कराने के बाद एक दिन फ़िदेल कास्त्रो ने कहा: ये आदमी कैसे इतना बोल सकता है - ये तो मुझसे भी ज़्यादा बोलता है. साफ है कि फ़िदेल कास्त्रो बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहा था - क्योंकि खुद उससे ज़्यादा बोलने की आदत का दीवाना तो कोई होगा नहीं.
शब्द के प्रति उनकी श्रद्धा लगभग जादुई है. क्रांति के शुरुआती दिनों में, हवाना में उसके दाख़िल होने के बामुश्किल हफ्ते भर बाद ही, उसने टीवी पर बिना रुके सात घंटे तक भाषण दिया था. ये विश्व रिकॉर्ड होगा. पहले कुछ घंटों में हवाना के लोग तो उस आवाज़ के सम्मोहन से परिचित नहीं थे, पारंपरिक अंदाज़ में उसे सुनने बैठ गए. लेकिन वक्त बीतने लगा तो वे अपने रोज़मर्रा के कामों में लौट गए, एक कान अपने काम पर और दूसरा भाषण पर लगाए.

एक दिन पहले ही मैं पत्रकारों के एक दल के साथ कराकास से पहुंचा था. हमने अपने होटल के कमरों में वो भाषण सुनना शुरू किया. जब हम लिफ्ट में थे तब भी उसे सुन रहे थे, बिना रुके. उस टैक्सी में भी उसे सुनते रहे जो हमें शहरों के दौर पर ले गई. फूलों से लदे दालानों वाले कैफे में, एसी वाले बारों में और यहां तक कि वो भाषण सड़कों पर चलते हुए भी सुना जहां खुली खिड़कियों से रेडियो ऊंची आवाज़ में गूंज रहे थे. शाम तक उसका कहा एक शब्द भी गंवाए बिना हमारा दिन भर का कार्यक्रम पूरा हो चुका था.

हममें से जो लोग फ़िदेल कास्त्रो को पहली बार सुन रहे थे, उनका ध्यान दो चीज़ों ने खींचा. एक तो फ़िदेल की अपने श्रोताओं को लुभा देने की जबर्दस्त सामथ्र्य. और दूसरी उसकी आवाज़ की नज़ाकत. उसकी आवाज़ बैठी हुई थी जो कभी कभी महज़ एक सांसविहीन फुसफुसाहट जैसी रह जाती थी. उसके बैठे गले की आवाज़ को सुनकर एक डॉक्टर ने ये नतीजा निकाला कि अमेज़न नदी जितने लंबे और धाराप्रवाह मैराथन भाषणों के बावजूद पांच साल में कास्त्रो की आवाज़ चली जाएगी. कुछ ही समय बाद, अगस्त 1962 में आवाज़ में इस गड़बड़ी का पहला इशारा तब मिला जब अमेरिकी कंपनियों के राष्ट्रीयकरण का ऐलान करने वाले भाषण के बाद उसकी आवाज़ रुक गई. लेकिन ये एक अस्थायी धक्का था जो फिर नहीं आया. उसके बाद से छब्बीस साल बीत गए. फ़िदेल कास्त्रो अभी अभी 61 का हुआ है. और उसकी आवाज में हमेशा से जैसे अनिश्चय बना हुआ है, लेकिन मौखिक शब्दों के बारीक शिल्प में ये उसका सबसे उपयोगी और सशक्त औजार है.
एक सामान्य बातचीत के लिए तीन घंटे तो उसका एक अच्छा औसत है. वो अपने ऑफिस में बंधे रहने वाले किसी अकादमिक लीडर की तरह नहीं है. वो जहां समस्याएं आती हैं वहीं उनको दुरुस्त करने की कोशिश करता है. अपनी खटारा कार में उसे देखा जा सकता है, उसके आजूबाजू मोटरसाइकिलों की गर्जना नहीं होती, वो हवाना के सुनसान इलाकों में अकेले निकल जाता है. कभी किसी सड़क के किनारे, दिन के किसी भी पहर में. कभी कभी भोर को भी इन सब बातों से उसके बारे में किंवदंती चल पड़ी कि वो एक अकेला यायावर है, अव्यवस्थित और स्वच्छंद अनिद्रा रोगी, जो किसी भी वक्त मिलने के लिए धमक सकता है और अपने मेज़बान को सुबह तक जगाए रख सकता है.

क्रांति के शुरुआती दिनों में इस छवि में कुछ सच्चाई तो थी. अपने बहुत लंबे भाषणों की वजह से ही नहीं, इसलिए भी क्योंकि उसका कोई वास्तविक घर नहीं था, कोई दफ्तर नहीं था, 15 साल से ज़्यादा समय तक न ही उसका कोई तय डेली रूटीन था. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अपने विशिष्ट उतावलेपन को बरकरार रखते हुए उसने अपनी ज़िंदगी को आख़िरकार एक निश्चित ढर्रे में ढाला है. पहले, वो बिना पलक झपकाए रात और दिन काट लेता था और उसे कोई थकान नहीं लगती थी, लेकिन अब वो बेखटके छह घंटे सोता है. किस समय, ये वो खुद भी नहीं जानता. रात के दस बजे भी या अगली सुबह सात बजे भी. जैसा काम रहे.

जिस क्रूर सहजता से उसका वजन बढ़ा है उसके चलते वो एक स्थायी आहार का रुख करने को विवश हुआ. उसकी विराट भूख और पाक कला के प्रति उसकी अदम्य चाहत को देखते हुए ये एक बहुत बड़ा त्याग है. वो एक तरह के वैज्ञानिक जूनून के साथ कोई रेसिपी तैयार करता है. एक रविवार, खुद को थोड़ा ढील देते हुए उसने बढिय़ा लंच निपटाया. उसमें आइसक्रीम के 18 स्कूप भी शामिल थे. वो शारीरिक रूप से फिट रहता है. कुछ घंटे जिमनास्टिक करता है और तैराकी भी. रोज़ एक गिलास व्हिस्की का लेता है और वो भी लगभग अदृश्य घूंट भरते हुए. और स्पेगैटी (एक तरह की नूडल) के प्रति अपनी कमज़ोरी पर उसने काबू पा लिया है. क्षणिक लेकिन प्रचंड क्रोध भी अब बीते दिनों की बात है और अपने बुरे मूड को एक अदम्य धीरज के साथ खत्म कर देना उसने सीख लिया है.

कुल मिलाकर: सख्त अनुशासन. लेकिन किसी भी स्थिति में ये नाकाफी है. ये ध्यान में रखते हुए कि वक़्त की अवश्यंभावी किल्लत एक अनियमित शेड्यूल लाद देती है. और कल्पनाशीलता का ज़ोर उसे किसी भी पल जीत सकता है. उसके साथ बैठने पर आपको पता होता है कि आप कहां से शुरू करेंगे लेकिन ये कभी नहीं जान सकते हैं कि खत्म आप कहां पर करेंगे. किसी एक रात ये कोई असामान्य बात नहीं है कि आप खुद को एक गुप्त ठिकाने की ओर जाते विमान में बैठा पाएं, किसी शादी में शरीक हो रहे हों, समंदर में लॉबस्टर पकड़ रहे हों या कामागाई में फ्रेंच चीज़ चख रहे हों.

बहुत समय पहले उसने कहा था : ''काम करना सीखो लेकिन आराम करना भी सीखो. ये उतना ही महत्वपूर्ण है.'' लेकिन आराम के उसके तरीके कुछ ज़्यादा ही मौलिक हैं. और ज़ाहिर है इसमें बातचीत भी शामिल है. एक बार आधी रात के क़रीब वो एक अत्यंत गहन काम को बीच में छोड़कर, थकान के स्पष्ट लक्षण दिखाता हुआ, पौ फटने से पहले ही दो घंटे तैर कर पूरी तरह फ्रेश होकर लौट आया.

निजी दावतें उसके किरदार से मेल नहीं खाती. वो उन दुर्लभ क्यूबाइयों में  से है जो न तो गाते हैं न नाचते हैं. जिन कुछ दावतों में वो शामिल भी होता है उसका स्वरूप उसके पहुंचते ही बदल जाता है. शायद उसे इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि उसकी मौजूदगी का कैसा दबदबा कायम होता है. एक ऐसी उपस्थिति जिसमें पूरी की पूरी स्पेस भर जाती है. जबकि वो न तो उतना लंबा और भीमकाय है जैसा कि वो पहली नज़र में दिखता है. उसके सामने मैंने ऐसे बहुत से लोगों को अपना संतुलन खोते देखा है जो खुद को लेकर सुनिश्चित होने का दावा करते हैं. वे खुद को स्थिर दिखाने की कोशिश करते हैं या कॉन्फ़िडेंस की अतिरंजित हवा खींच रहे होते हैं. असल में वो भी उनकी ही तरह त्रस्त रहता है और कोई नोटिस न कर ले इसकी कोशिश करता रहता है. मैं हमेशा मानता रहा हूं कि अपने कामों के बारे में बोलते हुए वो बहुवचन ही इस्तेमाल करता है (हमने किया हमने सोचा जैसे) और ये जितना दिखता है उतना प्रभावशाली तरीका नहीं, बल्कि अपने शर्मीलेपन को पर्दे में रखने का उसका ये एक पोएटिक लायसेंस है.

फिर क्या होता है. अनिवार्य रूप से नाच बाधित हो जाता है, गाना रुक जाता है. खाना किनारे कर दिया जाता है. और भीड़ उसके इर्दगिर्द जमा हो जाती है बातचीत के लिए. जो फौरन ही शुरू हो जाती है. इस स्थिति में वो कितनी भी देर रह सकता है. खड़ा हुआ, बिना कुछ खाए पिए. कभी कभी, बिस्तर पर जाने से पहले, वो बहुत रात किसी घनिष्ठ मित्र के दरवाजे पर दस्तक देगा, बिना उसे बताए पहुंच जाएगा, और कहेगा कि वो बस पांच मिनट के लिए आया है. वो इस बात को इतनी निष्कपटता से कहता है कि इस चक्कर में बैठता भी नहीं. धीरे धीरे, वो नई बातचीत से उत्तेजित हो उठता है और कुछ समय बाद वो आरामकुर्सी पर ढेर हो जाता है और पांव फैलाते हुए कहता है : ''मैं खुद को नया महसूस कर रहा हूं.'' उसका यही तरीका है : बात करते करते थक जाना और बातों में ही लौटकर आराम हासिल कर लेना.

एक बार उसने कहा : ''अपने अगले जन्म में, मैं लेखक होना चाहता हूं''. वास्तव में, वो अच्छा लिखता है और वो उसमें आनंद भी लेता है, कार में भी उसके पास एक नोट बुक रहती है, कुछ याद आने पर फौरन उसे लिख लेता है और कभी कभी निजी चिट्ठियां लिखता है. साधारण कागज़ों की वे कॉपियां नीले रंग के प्लास्टिक से लिपटी होती हैं, और साल दर साल उसकी निजी फाइलों का हिस्सा बनती रही हैं. उसकी हैंडराइटिंग छोटी और उलझी हुई है, यूं पहली नज़र में वो किसी स्कूली बच्चे की राइटिंग जैसी लगती है. वो किसी पेशेवर की तरह लेखन पर ध्यान देता है. वो वाक्य को कई बार संशोधित करता है. उसे काटता है, फिर से हाशिए पर लिखता है, और उसे जो चाहिए जब तक वो न मिल जाए तब तक उसके लिए ये कोई असाधारण बात नहीं है कि कई कई दिनों तक सही शब्द की तलाश करेगा, डिक्शनरियां टटोलेगा और इधर उधर तफ्तीश करता रहेगा.

पिछले कुछ समय से वो सार्वजनिक सभाओं में समय पर पहुंच रहा है. और उसके भाषणों की मियाद ऑडियंस के मूड पर निर्भर करती है. शुरुआती वर्षों के अनंत भाषण, किंवदंती बन चुके अतीत का हिस्सा हैं, क्योंकि बहुत कुछ जो उस समय समझाया जाना था वो समझा जा चुका है. और फ़िदेल कास्त्रो की स्टाइल भी खुद अब कई सारे सत्रों की भाषण कला के प्रशिक्षण के बाद संक्षिप्त हो गई है. उसे कभी भी कम्युनिस्ट रूढि़वाद के पेपरमैशी सरीखे नारों को दोहराते नहीं सुना गया है. न ही वो सिस्टम के रस्मी जुमलों का इस्तेमाल करता है. वो उस फासिल भाषा से दूर है जो बहुत पहले यथार्थ से अपना संपर्क खो चुकी है और स्तुतिगान और स्मारक निर्माण में व्यस्त पत्रकारिता के साथ जिसका घनिष्ठ संबंध है. वो भाषा जिसका इरादा कुछ स्पष्ट करने के बजाय छिपा लेने का ही लगता है. फ़िदेल आला दर्जे का गैर-हठधर्मी है. उसकी रचनात्मक कल्पनाशीलता मतांतरों की खाई के ऊपर मंडराती रहती है. वो दूसरों की कही बातों को बहुत कम कोट करता है, न बातचीत में और न ही किसी मंच से. वो सिर्फ खोसे मार्ती के कथन ही कोट करता है जो उसका पसंदीदा लेखक है.

सीधे संपर्क पर उसका पक्का यकीन है. कठिनतम भाषण भी ठेठ बतकही जैसे लगते हैं, जैसे कि यूनिवर्सिटी के दालान में छात्रों से क्रांति के बारे में बातचीत कर रहा हो. भीड़ के बीच से कोई उसे पुकार लेता है, खासकर हवाना से बाहर ये कोई असामान्य बात भी नहीं कि किसी पब्लिक मीटिंग में कोई उससे बहस करने लगे और शोरशराबा हो जाए. उसके पास हर अवसर के लिए एक भाषा है. और समझाने के विभिन्न तरीके. निर्भर करता है कि वो किसके साथ है- वे कामगार हैं, या किसान, छात्र, नेता, लेखक या विदेशी आगंतुक. वो उनमें से हरेक से उनके लेवल पर बात कर लेता है. उसके पास विभिन्न सूचनाओं का भंडार है. और वो किसी भी माध्यम में आसानी से आवाजाही कर लेता है. लेकिन उसकी शख़ि्सयत इतनी जटिल और अप्रत्याशित है कि एक ही मुलाकात में हर कोई उसके बारे में अपना एक अलग इंप्रेशन बना सकता है.

एक बात तै है: कहीं भी हो, किसी भी रूप में किसी के भी साथ, फ़िदेल कास्त्रो की जीत पक्की है. हार के सामने उसका रवैया एक निजी तर्क से संचालित है: हार नहीं माननी है. वो बहस का रुख जब तक अपने पक्ष में नहीं मोड़ लेता उसे क्षण भर का भी चैन नहीं पड़ता है. लेकिन जो भी मुद्दा हो और जहां भी हो, ये सब होता है कभी न खत्म होने वाली बातचीत के ज़रिए.

वो ऑडियंस की पसंद के विषय पर बोल सकता है. लेकिन आमतौर पर वही किसी एक विषय पर अपनी ऑडियंस को संबोधित करता है. ऐसा उन मौकों पर ज़्यादा होता है जब उसके दिमाग में कोई विचार पक रहा होता है और वो उसे परेशान कर रहा होता है. किसी चीज़ की तह तक जाने में उससे ज़्यादा जुनूनी तो कोई नहीं होता. छोटा या बड़ा कोई भी ऐसा प्रोजेक्ट नहीं है जिसे लेकर उसमें भीषण जुनून न हो. प्रोजेक्ट माकूल न हो तो ये जुनून तब और भी प्रचंड हो उठता है. ऐसे मौकों पर ही वो सबसे ज़्यादा अच्छा दिखता है, बढिय़ा मूड में रहता है और उमंग से भरा रहता है. फ़िदेल को जानने का दावा करने वाले एक शख्स ने उससे कहा : ''ज़रूर कुछ भारी गड़बड़ है, तुम्हारा चेहरा दमक रहा है.''

वैसे कुछ साल पहले फ़िदेल से पहली बार मिले एक विदेशी ने मुझसे कहा: ''फ़िदेल बूढ़ा हो गया है, कल रात वो एक ही विषय पर सात बार लौट लौट कर आया.'' मैंने उस विदेशी को बताया कि ये लगभग उन्मादी दोहराव उसके काम करने का एक तरीका है. मिसाल के लिए लातिन अमेरिका को विदेशी कर्ज़ का मुद्दा उसकी बातों में पहली बार करीब दो साल पहले आया था, और तब से वो विचार विकसित हो रहा है. फैल रहा है, और गंभीर बन रहा है और वो करीब करीब एक दुस्वप्न का रूप ले चुका है. पहली बार उसने किसी साधारण गणितीय नतीजे की तरह कही और वो ये थी कि ये क़र्ज़ लौटाया नहीं जा सकता है. धीरे धीरे, उस साल क्यूबा के अपने तीन दौरों में मैंने उस विषय पर उसके ताज़ा विचारों को एक साथ रखकर देखा:  उन देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर क़र्ज़ के नतीजे, उसके राजनैतिक और सामाजिक प्रभाव, अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर उसका निर्णायक असर और एकीकृत लातिन अमेरिका नीति के लिए उसका क्षेत्रीय महत्व. आख़िरकार फ़िदेल ने हवाना में विशेषज्ञों की एक अहम बैठक बुलाई और वहां एक भाषण दिया जिसमें उसने अपनी पुरानी बातों के महत्वपूर्ण बिंदुओं में से कुछ भी नहीं छोड़ा. तब तक उसके पास एक समग्र दृष्टि आ गयी थी, आने वाले वक़्त में ही जिसकी झलक देखी जा सकती थी.

मुझे लगता है कि राजनीतिज्ञ के रूप में उसका सबसे अद्भुत गुण है किसी एक खास समस्या को उभरते हुए देख पाना, उसे समझना, और उसके दूरस्थ निष्कर्षों में झांक लेना मानो वो हिमखंड का उभरा हुआ हिस्सा ही नहीं देख रहा हो बल्कि पानी के नीचे का उसका अधिकांश हिस्सा भी देख पा रहा हो. लेकिन उसे ये गुण किसी अंतज्र्ञान से नहीं बल्कि विकट और अटल तर्कबुद्धि से मिला है. एक मेहनतकश संभाषी उसकी बातों में प्रकट किसी विचार के भ्रूण को खोज सकता है, वो कई महीनों तक निरंतर बातचीत के सिलसिलों में उसके क्रमिक विकास को फॉलो कर सकता है. और आख़िरकार अपने समग्र रूप में वो उस विचार को सार्वजनिक किया जाता हुआ भी देख सकता है, जैसा कि मैंने विदेशी कर्ज़ वाले मुद्दे में देखा.

इस तरह की मौखिक चक्की को ज़ाहिर है सूचना के निर्बाध प्रवाह की मदद भी चाहिए - अच्छी तरह चबाई और पचाई हुई सूचना. उसकी सर्वोच्च सहायक है उसकी स्मृति और सूचना संग्रह का ये काम शुरू होता है जगने के साथ. दुनिया भर की खबरों के 200 पन्नों के साथ उसका नाश्ता होता है. दिनभर, अपनी अनवरत गतिशीलता के बावजूद, उसे अहम सूचनाएं मुहैया कराई जाती हैं. उसका खुद का आकलन है कि हर रोज़ उसे क़रीब 50 दस्तावेज पढऩे होते हैं. उसके दफ्तरी कामकाज की रिपोर्टें और उससे मिलने वालों की रिपोर्टें भी इसमें जोड़ दें, और वो सब भी जो उसकी अनंत जिज्ञासा के दायरे में आता है.

उसका सूचना का दूसरा जीवंत स्रोत ज़ाहिर है किताबें हैं. उसके आलोचक उसकी शख़ि्सयत के जिस पहलू को अलग कर उसकी छवि बनाते हैं वो ये है कि वो एक अगाध पाठक है. कोई इस बात को नहीं समझा सकता कि वो इतना सब और इतनी जल्दी पढ़ लेने का समय आख़िर कैसे निकाल लेता है. क्या तरीके इस्तेमाल करता है. हालांकि वो ज़ोर देता है कि इसमें ऐसी कोई विशेष बात नहीं है. सुबह खुलने से पहले वो कोई किताब शुरु करता है और अगली सुबह उस पर टिप्पणी करता है. वो अंग्रेज़ी पढ़ता है लेकिन बोलता नहीं. ज़्यादातर वो स्पानी पढऩा चाहता है. और किसी भी वक़्त ऐसे किसी भी कागज़ को पढऩे के लिए हमेशा तत्पर है जिस पर अक्षर अंकित हों. जो उसके हाथ लग जाए. कोई एकदम हाल की किताब जिसका अनुवाद भी न हुआ हो वो उसे पढऩे के लिए उसका अनुवाद करा देता है. एक परिचित डॉक्टर ने उसे ऑर्थोपेडिक्स पर अपनी किताब भेजी. वो पढ़ेगा भी, ये न जानते हुए. लेकिन हफ्ते भर बाद ही फ़िदेल की टिप्पणियों की लंबी सूची डॉक्टर के पास पहुंच गई. वो आर्थिक और ऐतिहासिक विषयों का आदतन पाठक है. वो साहित्य का भी अच्छा पाठक है और उसे नज़दीकी से फॉलो करता है. 

फिर भी उसके लिए सूचना का सबसे फौरी और सबसे कारगर स्रोत संवाद ही है. किसी चीज़ के बारे में पूछते चले जाने की उसकी आदत रूसी गुडिय़ा मात्र्युश्का से मिलती जुलती है जिसके अंदर उसी तरह की एक छोटी गुडिय़ा निकलती है, फिर उसके अंदर एक और छोटी गुडिय़ा और आख़िरकार सबसे छोटी गुडिय़ा रह जाती है. गुडिय़ा के भीतर गुडिय़ा की तरह वो एक के बाद एक सवाल पूछता जाता है तत्क्षण बौछारों की तरह जब तक कि वो क्यों के क्यों का आखिरी क्यों नहीं जान लेता.

अपने पूर्वजों की भूमि स्पेन से उसे एक खास लगाव रहा है. भविष्य के लातिन अमेरिका का उसका विज़न बोलीवार और मार्टी जैसा ही है. दुनिया की नियति को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला एक अखंड और स्वायत्त समुदाय. लेकिन क्यूबा के बाद जिस देश को वो सबसे ज़्यादा जानता है वो है अमेरिका. वो उसके लोगों की प्रकृति से पूरी तरह वाकि$फ है, उसकी सत्ता के ढांचों से, उसकी सरकारों के अप्रत्यक्ष इरादों से. और इस सबसे उसे नाकेबंदी के अनवरत तूफान से जूझने में मदद मिली है. अमेरिकी सरकार के प्रतिबंधों के बावजूद मियामी और हवाना के बीच कमोबेश एक उड़ान रोज़ है. और रोज़ाना अमेरिका से कोई न कोई क्यूबा आता ही रहता है - विशेष विमान से या निजी विमान से.

चुनावों के कुछ पहले अमेरिका के दोनों दलों के राजनीतिज्ञों की आवाजाही बेतहाशा बढ़ जाती है. फ़िदेल कास्त्रो जितने लोगों से संभव है मिलता है, वो ये सुनिश्चित करता है कि उनकी आवभगत ठीक से हो, उन्हें पूरा वक़्त देता है कि नई सूचनाओं का बहुत सारा आदान प्रदान हो सके. असल में ये मुलाक़ातें एक तरह का संवाद-उत्सव बन जाती हैं. वो उन्हें अपने देश के बारे में कुछ सच्चाईयां बताता है और उनकी बातों को भी सहृदयता और सम्मान से सुनता है. जो लोग शत्रुता के प्रचार भाव से मिलते हैं कि वे किसी दुर्दांत अधिनायक से मिल रहे हों, उनके सामने अपना असली चेहरा दिखाते हुए उसे बड़ा आनंद मिलता है. इस तरह का इंप्रेशन वो देता है. एक अवसर पर, अमेरिकी कांग्रेस के एक दल और यहां तक कि एक पेंटागन अधिकारी के सामने उसने इस बात का बड़ा ही वास्तविक खाका खींचा कि कैसे उसके गालिज़ियाई (गालिज़िया : स्पेन का एक भूभाग) पूर्वजों और उसके धार्मिक गुरुओं ने उसके भीतर कुछ ऐसे नैतिक सिद्धांत भरे हैं जो उसकी शख़ि्सयत के निर्माण में बहुत उपयोगी साबित हुए हैं. अपनी बात के आख़िर में उसने कहा : ''मैं एक ईसाई हूं.''

ऐसा कहते ही मानो कोई बम गिरा. मुलाकात अगले दिन सुबह तक चली. सांसदों के दल में सबसे ज़्यादा अनुदार (कंज़रवेटिव) समझे जाने वाले एक सांसद ने हैरानी भरी एक राय पेश की. उसके मुताबिक वो मानता था कि लातिन-अमेरिका और यूनाइटेड स्टेट्स के बीच सबसे प्रभावशाली मध्यस्थ अगर कोई हो सकता है तो वो फ़िदेल कास्त्रो हैं.

क्यूबा जाने वाला हर व्यक्ति ये उम्मीद करता है कि उसे हर संभव हाल में फ़िदेल से मिलने का मौका मिलेगा. हालांकि कुछेक लोग निजी साक्षात्कार का ख्वाब भी देखते हैं, खासकर विदेशी पत्रकार. वे अपना काम पूरा नहीं समझते जब तक कि उन्हें फ़िदेल से इंटरव्यू की ट्रॉफी हासिल नहीं हो जाती. हवाना के होटलों में हमेशा कोई न कोई पत्रकार आकर टिकता है. इंटरव्यू के इंतज़ार में. इस समय इंटरव्यू के लिए क़रीब 300 आवेदन आए हुए हैं.

आख़िरकार बहुत कम इंटरव्यू उसे खुश कर पाते हैं. वो मानता है कि टीवी इंटरव्यू अस्वाभाविक होते हैं और सात मिनट के कार्यक्रम के लिए उसे अपनी जिंदगी के पांच घंटे बरबाद करना न्यायसंगत नहीं लगता. लेकिन फ़िदेल कास्त्रो और उसके श्रोताओं के लिए सबसे निराशाजनक बात ये है कि सर्वश्रेष्ठ पत्रकार भी, खासकर यूरोपीय, अपने सवालों को यथार्थ के साथ पेश करने की अभिलाषा ही नहीं रखते. अपने देशों की राजनैतिक इच्छाओं और सांस्कृतिक श्रेष्ठता की ग्रंथि से ग्रस्त सवालों के साथ वो ट्रॉफी की आकांक्षा रखते हैं. इस बात के बारे में जानने का ज़रा भी कष्ट उठाए बिना कि आज का क्यूबा वास्तव में कैसा है, उसके लोगों के सपने और सच्ची निराशाएं क्या हैं. उनकी जिंदगियों की सच्चाई क्या है. इस तरह वे क्यूबा के आम आदमी को दुनिया से बात करने के अवसर से वंचित करते हैं. और खुद को भी उस पेशेवर उपलब्धि से वंचित कर देते हैं जो फ़िदेल को ऐसे सवाल पूछकर हासिल की जा सकती थी अपने लोगों की चिंताओं के बारे में उसका क्या कहना है, खासकर बड़े फैसलों के आज के वक़्त में उनकी चिंताओं के बारे में, न कि ऐसे सवाल कि दूर स्थित यूरोपीय अनुमानों के बारे में उसके क्या ख्याल हैं.

कुल मिलाकर, फ़िदेल कास्त्रो को इतने सारे और इतनी विविध परिस्थितियों में सुनने के दौरान, मैंने कई बार खुद से पूछा है कि बातचीत करते रहने का और संवाद में मुब्तिला रहने का उसका उत्साह, क्या भ्रमित कर देने वाली सत्ता-मरीचिका के बीच सच्चाई की संरक्षक डोर को हर कीमत पर थामे रखने की एक जैविक आवश्यकता से ही बना होगा. मैंने सार्वजनिक और निजी, संवादों के कई दौर के दरम्यान खुद से ये पूछा है. ऐसे मौकों पर भी मैं यही सोचता हूं जब उसके सामने बैठे लोग अपनी स्वाभाविकता खो देते हैं और यथार्थ से दूर किताबी फार्मूलों में ही बात करते हैं. या ऐसे मौके पर जब सच्चाई को उससे दूर रखने की कोशिश की जाती हैं कि उसे खामाखाह चिंताओं में न डाला जाए जो उसके पास वैसी ही बहुत सारी हैं, वो ये जानता है.

ऐसे ही मौके पर एक अधिकारी से उसने कहा: ''तुम मुझसे सच छिपाते हो कि मुझे कष्ट न हो लेकिन आख़िरकार जब मैं उसे जान लूंगा तब सोचो कि इतनी सारी सच्चाईयों के सामने आ जाने से जो असर मुझ पर पड़ेगा उससे तो मैं मर ही जाऊंगा.''

हालांकि अफसर उससे जो सबसे गंभीर सच्चाई छिपाते हैं वो कमियों के बारे में है. क्योंकि क्रांति को क़ायम रखने वाली बड़ी उपलब्धियों के बावजूद-राजनैतिक, वैज्ञानिक, खेल, सांस्कृतिक उपलब्धियां - इन सबके बावजूद अफसरशाही की एक विराट अयोग्यता रोज़मर्रा के जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रही है. और सबसे बढ़कर घरेलू खुशी को खाए जा रही है. इसी वजह से फ़िदेल कास्त्रो ने क्रांति के तीस साल बाद भी निजी तौर पर असाधारण तरीके से कुछ मामलों में दखल देना जारी रखा, मिसाल के लिए ब्रेड बनाने में और बीयर के वितरण में.

सड़क पर रहने वाले लोगों के साथ बातचीत में सब कुछ अलग हो जाता है. वहां की बातें वास्तविक लगाव की एक खुरदुरी अनौपचारिकता से भरी होती हैं. वहां उसका एक ही नाम रह जाता है - फ़िदेल. लोग उसे घेर लेते हैं और प्रगाढ़ता के संबोधन 'तू' (तुम) में पुकारते हैं. वे उससे बहस करते हैं, उसकी बात काटते हैं, उससे मांग करते हैं - ये एक निर्बाध संचार चैनल है जिसके ज़रिए सच की तेज़ धारा बहती रहती है. यूं अपनी छवि की चमक में घिरा यहां एक दुर्लभ मनुष्य है. ये वो फ़िदेल कास्त्रो है जिसे मैं जानता हूं. बातचीत के अनगिनत घंटों के बाद जिससे होते हुए राजनीति का प्रेत नहीं गुज़रता है. आडंबरों से दूर, अतृप्त इच्छाओं से भरा, पुराने दौर की शिक्षा पाया हुआ, सावधानी से शब्द चुनता, सादे आचरण वाला,और साधारणता से न निकले किसी भी विचार को ग्रहण कर पाने में असमर्थ. उसका सपना है कि उसके वैज्ञानिक कैंसर का इलाज ढूंढ लेंगे. अपने मुख्य शत्रु से 84 गुना छोटे और ताज़े पानी से खाली द्वीप में उन्होंने वैश्विक शक्ति वाली विदेश नीति बना ली है. उसकी लगभग रहस्य भरी मान्यता है कि मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है अंत:करण का समुचित निर्माण. उसका मानना है कि नैतिक प्रेरणाओं में भौतिकतावाद की अपेक्षा दुनिया को बदलने और इतिहास को आगे ले जाने की क्षमता है. मैं मानता हूं कि फ़िदेल हमारे समय के महानतम आदर्शवादी में से एक है, और हो सकता है कि ये उसका सबसे बड़ा गुण हो, हालांकि यही उसका सबसे बड़ा खतरा भी रहा है.


कई बार देर रात गए मैंने उसे अपने घर में पाया है, दिन भर की अंतहीन गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए. कई बार मैंने उससे पूछा है कि और क्या चल रहा है. और एक से ज़्यादा बार उसने मुझे जवाब दिया है : ''बहुत बढिय़ा. हमारे सारे जलाशय भरे हुए हैं.'' मैंने उसे रेफ़ि्रजरेटर खोलकर चीज़ का टुकड़ा खाते हुए देखा है. नाश्ते के बाद अब जाकर शायद कोई कौर उसके मुंह में गया है. मैंने उसे मेक्सिको में अपनी एक दोस्त को फोन करते देखा, उसे एक पसंदीदा डिश की रेसिपी पूछने के लिए. काउंटर पर झुककर मैंने उसे रेसिपी लिखते हुए देखा है. वहां पर जहां रात के खाने के बर्तन अनधुले रखे हैं. टीवी पर कोई एक प्राचीन गीत गा रहा है, ''लाइफ इज़ ऐन एक्सप्रेस ट्रेन दैट ट्रैवल्स थाउज़ंड्स ऑफ लीग्स.'' एक रात जब वो छोटी चम्मच से थोड़ा थोड़ा लेकर वानिला आइसक्रीम खा रहा था, मैंने देखा कि वो इतने सारे लोगों की नियतियों के भार से इतना दबा हुआ है, खुद से इतना पृथक कि एक पल के लिए वो मुझे उस आदमी से बिल्कुल अलग लगा जो वो हमेशा रहा है. उस समय मैंने उससे पूछा कि इस दुनिया में वो सबसे ज़्यादा क्या करना चाहेगा, और उसने तत्काल जवाब दिया: किसी नुक्कड़ पर मटरगश्ती, और क्या.

('पहल' - 96 से साभार)

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