उमादेवी
उर्फ़ टुनटुन (११ जुलाई १९२३ - २४ नवम्बर २००३ ) का यह संस्मरणात्मक इंटरव्यू शिशिर कृष्ण शर्मा ने 27 अक्टूबर
2003 को उनकी मृत्यु के कुछ
समय पहले उनसे लम्बी मुलाक़ात के बाद 'सहारा समय' के लिए लिया था.
शिशिर
कृष्ण शर्मा और सहारा समय से साभार आपके लिए ख़ास पेशकश-
“मुझे याद नहीं कि मेरे माता-पिता कौन थे और कैसे दिखते थे. मैं दो-ढाई बरस
की रही होऊँगी जब वो ग़ुज़रे थे. घर में मुझसे आठ-नौ साल बड़ा एक भाई था जिसका नाम हरि
था. मुझे बस इतना याद था कि हम लोग अलीपुर नाम के गांव में रहते थे. गांव के बीच
में एक तालाब था जिसमें बत्तखें तैरती रहती थीं. मेरा भाई गांव की रामलीला में भाग
लेता था. एक रोज़ मैं किसी घर की छत पर बैठी रामलीला देख रही थी कि मुझे नींद आ गयी
और मैं लुढ़ककर नीचे गिर पड़ी. भाई मेरा इतना ख्याल रखता था कि वो रामलीला के बीच
में ही मंच छोड़कर मुझे उठाने के लिए दौड़ पड़ा था. उस वक़्त मैं तीन-चार बरस की और
भाई बारह-तेरह बरस का रहा होगा. लेकिन एक रोज़ भाई भी ग़ुज़र गया और दो वक़्त की रोटी
के एवज़ में रिश्तेदारों के लिए चौबीस घण्टे की नौकरानी छोड़ गया. अब
रिश्तेदारी-बिरादरी में जहां कहीं भी शादी-ब्याह-जीना-मरना हो काम के लिए मुझे भेजा
जाने लगा. मेरा अन्दाज़ है कि अलीपुर शायद दिल्ली के आसपास था क्योंकि अक्सर घरेलू
काम के सिलसिले में मुझे दिल्ली के दरियागंज इलाक़े में किसी रिश्तेदार के घर
आते-जाते रहना पड़ता था. उसी दौरान एक रोज़ पड़ोसियों से पता चला था कि अलीपुर में
हमारी काफी ज़मीनें थीं जिन्हें हड़पने के लिए पहले मेरे माता-पिता और फिर भाई का
क़त्ल कर दिया गया था.
गाने
का शौक़ मुझे बचपन से था लेकिन गुनगुनाते हुए भी डर लगता था क्योंकि उन लोगों में
से अगर कोई गाते हुए सुन लेता था तो मार पड़ती थी. उन्हीं दिनों दिल्ली में मेरी
मुलाक़ात एक्साईज़ विभाग में इंस्पेक्टर अख्तर अब्बास काज़ी से हुई. उन्होंने मुझे
सहारा दिया तो मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा. लेकिन तभी मुल्क़ का बंटवारा हुआ और काज़ी
साहब लाहौर चले गए. इधर हालात से तंग आकर फिल्मों में गाने का ख्वाब लिए मैं एक
रोज़ चुपचाप मुम्बई भाग आयी. दिल्ली में किसी ने निर्देशक नितिन बोस के असिस्टेण्ट
जव्वाद हुसैन का पता दिया था सो उनसे आकर मिली और उन्होंने मुझे अपने यहां पनाह दे
दी. उस वक़्त मेरी उम्र चौदह बरस की थी. उधर काज़ी साहब का मन लाहौर में नहीं लगा
इसलिए मौक़ा पाते ही वो भी मुम्बई चले आए और फिर हमने शादी कर ली. ये सन 1947 का वाक़या है.
मैं
काम की तलाश में थी. कारदार उन दिनों फिल्म ‘दर्द’ बना रहे थे. एक रोज़ उनके स्टूडियो में पहुंची और बेरोकटोक उनके कमरे में
घुसकर बेझिझक उन्हीं से पूछ बैठी, कारदार कहां मिलेंगे,
मुझे गाना गाना है. दरअसल मैं न तो कारदार को पहचानती थी और न ही
फिल्मी तौर-तरीक़ों से वाक़िफ थी. शायद मेरा यही बेतक़ल्लुफी भरा अंदाज़ कारदार को
पसन्द आया जो बिना नानुकुर किए उन्होंने नौशाद साहब के असिस्टेण्ट ग़ुलाम मोहम्मद
को बुलाया और मेरा टेस्ट लेने को कहा. ग़ुलाम मोहम्मद ढोलक लेकर बैठे तो मैंने उनसे
ठीक से बजाने को कहा. मेरे बेलाग तरीकों से वो भी हक्के-बक्के थे. बहरहाल मैंने
फिल्म ‘ज़ीनत’ का नूरजहां का गाया गीत ‘आंधियां ग़म की यूं चलीं’ गाकर सुनाया जो सबको इतना
पसन्द आया कि मुझे पांच सौ रुपए महिने की नौकरी पर रख लिया गया.
पहला
गीत जो मेरी आवाज़ में रेकॉर्ड हुआ था वो था साल 1947 में बनी
फिल्म ‘दर्द’ का ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का’. ये गीत इतना
बड़ा हिट साबित हुआ कि मुझे आज तक इसी गीत से पहचाना जाता है. इस फिल्म में मेरे
गाए बाक़ी तीनों गीत ‘आज मची है धूम’, ये
कौन चला’ और सुरैया के साथ ‘बेताब है
दिल’ भी काफी पसन्द किए गए. उसी साल बनी फिल्म ‘नाटक’ में मैंने गीत ‘दिलवाले,
जल कर ही मर जाना’ गाया. साल 1948 में बनी फिल्म ‘अनोखी अदा’ में
मेरे दो सोलो गीत ‘काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए’ और ‘दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया’ थे. 1948 में प्रदर्शित हुई ‘चांदनी
रात’ में मुझे उस फिल्म का शीर्षक गीत ‘चांदनी रात है, हाए क्या बात है’ गाने का मौक़ा मिला था. उसी साल बनी फिल्म ‘दुलारी’
में मैंने शमशाद बेगम के साथ मिलकर गाया था, ‘मेरी
प्यारी पतंग चली बादल के संग’. इन सभी फिल्मों के संगीतकार
नौशाद साहब थे. इसके अलावा मैंने ‘चन्द्रलेखा’, ‘हीर रांझा’ (दोनों 1948), ‘भिखारी’,
‘भक्त पुण्डलिक’, ‘प्यार की रात, ‘सुमित्रा’, ‘रूपलेखा’, ‘जियो
राजा’, ‘हमारी किस्मत’ (सभी 1949),
‘भगवान श्री कृष्ण’ (1950), ‘सौदामिनी’
(1950), ‘दीपक’ (1951), ‘जंगल का जवाहर’
(1952) और ‘राजमहल’ (1953) जैसी फिल्मों में भी गीत गाए. चूंकि संगीत और गायन की मैंने विधिवत शिक्षा
नहीं ली थी और उधर बच्चों के जन्म के साथ घरेलू ज़िम्मेदारियां भी बढ़ने लगी थीं
इसलिए बतौर गायिका मेरा करियर ज़्यादा नहीं चल पाया. मेरे गाए गीतों की कुल संख्या
क़रीब 45 होगी. यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि मुझे
सिंदूर खिलाकर मेरी आवाज़ खराब कर देने वाली जो बात अक्सर कही-सुनी जाती है,
वो महज़ अफवाह है. उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं है.
कुछ समय मैं
फिल्मों से दूर रहकर अपने परिवार में उलझी रही. पति नौकरी करते थे लेकिन परिवार
बढ़ने के साथ उनका वेतन कम पड़ने लगा तो मजबूरन मुझे एक बार फिर से काम की तलाश में
निकलना पड़ा. मैं नौशाद साहब से मिली जो उन दिनों फिल्म ‘बाबुल’ बना रहे थे.
उन्होंने मुझे उस फिल्म में एक हास्य भूमिका करने को कहा जिसे मैंने स्वीकार कर
लिया. हालांकि इससे पहले फिल्म ‘दर्द’ में
भी वो मुझे एक भूमिका ऑफर कर चुके थे लेकिन तब मैं अभिनय के लिए मानसिक तौर पर
तैयार नहीं थी. उमादेवी की जगह टुनटुन नाम भी मुझे फिल्म ‘बाबुल’
में नौशाद साहब ने ही दिया था. आगे चलकर यही नाम मेरी पहचान बन गया.
मेरा ये रूप दर्शकों को बेहद पसन्द आया और देखते ही देखते मैं हिन्दी फिल्मों की
अतिव्यस्त हास्य अभिनेत्री बन गयी. फिर तो उड़न खटोला, बाज़,
आरपार, मिस कोकाकोला, मिस्टर
एण्ड मिसेज़ 55, राजहठ, बेगुनाह,
उजाला, कोहिनूर, नया
अंदाज़, 12 ओ’क्लॉक, दिल अपना और प्रीत पराई, कभी अन्धेरा कभी उजाला,
मुजरिम, जाली नोट, एक
फूल चार कांटे, काश्मीर की कली, अक़लमन्द,
सी.आई.डी.909, दिल और मोहब्बत, एक बार मुस्कुरा दो और अन्दाज़ जैसी सैकड़ों फिल्में मैंने कीं. सत्तर के
दशक में मेरी सक्रियता में कमी आनी शुरु हुई और फिर क़ुर्बानी और नमक हलाल जैसी
फिल्में करने के बाद मैंने खुद को अभिनय से दूर कर लिया. नब्बे के दशक की शुरुआत
में काज़ी गुज़रे. अब दोनों बेटों और दोनों बेटियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से
मुक्त होने के बाद पिछले क़रीब बीस बरस से मैं घर पर ही रहकर आराम कर रही हूं.”
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